
(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त हैं हनुमान। इनको वर्तमान मंे भी उसी तरह सम्पूजित किया जाता है क्योंकि पौराणिक आख्यानों के अनुसार हनुमान जी, अश्वत्थामा, राजा बलि, परशुराम, विभीषण, वेद व्यास और कृपाचार्य को अजर-अमर होने का वरदान मिला था। त्रेता युग मंे जब राक्षस राज रावण माता सीता का हरण कर लंका ले गया तो उनकी खोज मंे वानरराज सुग्रीव ने अपनी विशाल वानर सेना को चारों तरफ भेजा था। हनुमान जी, अंगद और जाम्बवंत समेत एक दल दक्षिण दिशा मंे खोज के लिए भेजा गया था। इस दल को जटायू के बड़े भाई सम्पाति ने बताया कि सीता जी को रावण ने लंका मंे रखा हुआ है लेकिन सौ योजन समुद्र पार कर जो लंका जा सकता है, वही सीता को खोज पाएगा। अंगद आदि सूर्य वीरों ने असमर्थता जताई तो जाम्बवंत ने हनुमान जी को उनके बल-बुद्धि की याद दिलाई। हनुमान जी लंका पहुंचे माता सीता ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को अजर-अमर होने का वरदान दिया था।
हनुमान जी के पास है राम रूपी रसायन
वृहदारण्यक उपनिषद मंे कहा गया है कि रस अर्थात् आनंद रूप एक ब्रह्म ही है। यही आनंद रूपी रस माता सीता ने हनुमान जी को वरदान स्वरूप प्रदान किया था। सीता जी ने कहा था- राम रसायन तुम्हारे पासा, सदा रहो रघुपति के दासा। इस प्रसंग को कई रूपकों के साथ यहां बताया गया है-
बाल्मीकि के आश्रम पर जब लक्ष्मण जी ने जानकीजी को छोड़ा तब जानकीजी ने कहा-‘‘हे लक्ष्मण! मुझे यश या अपयश मिला है, इससे मुझे कोई मतलब नहीं है। मुझे क्यों छोड़ा है इसमें भी मुझे कोई शंका नहीं है।’’ रामजी की प्रसन्नता जिस कार्य में हो, उसमें सहायक बनना ही मेरा काम है। इस समय धर्म-संकट आ पड़ा है। इस संकट को दूर करने में तुम सहायक होओ। यदि मैं चुप रहती हूँ तो रामजी को संसार की तरफ से अपयश का पात्र बनना पड़ेगा और रामजी का अपयश कराने वाली मैं होऊँगी। सेवा में प्रमाद दोष आ जाता है वह मेरे में आ जाएगा। इसलिए मेरी विनय सुनो-‘‘मुझे छः महीने का गर्भ है फिर रामजी को कोई उलाहना न देवे। यदि चुप रहूँ तो रामजी की सन्तान ही कोई नहीं बताएगा। यह रामजी का अपमान मेरे से सहन नहीं होगा।’’ रामजी को दुष्ट भार्या के पति का अपयश न प्राप्त हो।’’
इस प्रकार पति सेवा और पुत्र वत्सलता (अर्थात संसार में सब मेरे पुत्र हैं) दोनों मर्यादाओं को कायम रखा। उस माता ने हनुमानजी को आशीर्वाद दिया था। फिर हनुमानजी भला घमण्ड में कैसे आ सकते हैं?’’
‘‘मैथिली प्राह मारुतिम्।’’
सर्वे सौम्या गुणाः सौम्य त्वम्येव परिनिष्ठताः‘‘
यहाँ जनकनन्दिनी ने स्वयं अपने मुखारविन्द से हनुमानजी की प्रशंसा करते हुए कहा है-‘‘प्राणीमात्र के हित के लिए जिन सौम्य गुणों की आवश्यकता है वे सब तुम्हारे में निवास करते हैं।
राम रसायन तुम्हरे पासा।
सदा रहो रघुपति के दासा।।
अर्थ-जो योगीजनों को आनन्द देने वाला है, जो लोग हजारों वर्ष तक तप करने के बाद जिस आनन्द की प्राप्ति करते हैं, वह रस आपके पास है। (अर्थात आपकी कृपा से वह दिव्य आनन्द रस प्राप्त हो जाता है।) आपने अपना सम्पूर्ण जीवन राम-सेवा में ही अर्पण कर रखा है। संसार में आपका अपना कोई भी कार्य नहीं है।
भावार्थ-रस अर्थात् आनन्द रूप एक ‘ब्रह्म’ ही है बिना ब्रह्म-प्राप्ति के जीव स्वप्न में भी रस का आस्वादन नहीं कर सकता। (ऐसा वृहदारण्यक उपनिषद में कहा गया है)।
तुलसीदास जी ने भी कहा है कि जो ब्रह्म सत् चित और आनन्द का समुद्र है, उस समुद्र में एक सलाई डुबो दी जाए और बाहर निकालकर देखें उसमें एक बूँद मात्र ही आएगा। उस एक बूँद मात्र से ही ब्रह्मा से चींटी पर्यन्त आनन्द का अनुभव करते हैं। समुद्र का क्या कम होना है?
‘‘सिक्ता ते त्रैलोक सुपासो’’
उस रास (आनन्द) रूप समुद्र के स्वामी हनुमानजी ही हैं। वह केवल प्रभुनाम से ही प्रसन्न हो जाते हैं, और लोगों को रस धन बाँटते चले जाते हैं। ऐसे हनुमानजी की शरण में कौन जाना नहीं चाहेगा? तुलसीदासजी से अधिक कौन हनुमानजी का वास्तविक स्वरूप जान सकता है?
‘‘राम से अधिक राम के दासा’’
एक बार भगवान कृष्ण ने हनुमानजी को कहा था कि ‘मैं स्वयं राम हूँ।’ हनुमानजी ने कहा-‘‘मैं जानता हूँ आप स्वयं राम ही कृष्ण रूप में आए हैं। परन्तु मैं क्या करूँ? हाथ में धनुष वाण लिए हुए दीन हितकारी श्रीरामजी के स्वरूप को ही मैं सर्वस्व अर्पण कर चुका हूँ।
अब यह शीश तो उनके ही चरणों में झुकेगा। आप धनुषबाण धारण करें तो लंका में जा सकते हैं, अर्जुन के सारथी बनकर नहीं।’’ यह है दासत्व का अभिमान। जब कृष्णजी धनुषबाण लेकर रथ में बैठ गए और अर्जुन लक्ष्मण बनकर रथ हाँकने लगा तब हनुमानजी ने रामजी की स्तुति करी।
‘‘अन्याश्रयाणा त्यागो अनन्यता’’
तुलसीदासजी ने ‘सादर’ शब्द कहकर हनुमानजी की अनन्यता का भाव प्रकट किया है।
तुलसीदासजी की परीक्षा करते समय वृन्दावन के महन्त परशुराम ने कहा था-
‘‘अपने-अपने इष्ट को नमन करे सब कोई।
परशुराम बिन इष्ट के नमन करे सो मूर्ख होई।।’’
तुलसीदास जी ने उत्तर में कहा-
‘‘क्या वरनौं छबि आपकी, भले विराजे नाथ।
तुलसी मस्तक तब नवे, जब धनुषबाण लो हाथ’’
‘‘कित मुरली कित चन्द्रिका, कित गोपीयन को साथ।
तुलसी जन के कारणे, नाथ भये रघुनाथ।’’
शास्त्रों की मर्यादा रखते हुए तुलसीदास जी ने अपने को ‘जन’ कहा और कृष्णजी को ‘नाथ’ कहा, जो रघुनाथ स्वरूप हो गए। ऐसी अनन्यता चाहिए। राग ‘द्वेष’ का नाम निशान न हो यही अनन्यता है।
तुलसीदास जी कन्नौज में नन्ददास जी के पास, वृन्दावन जाते हुए, मिलने के लिए गए। आपस में प्रभु चरित्र वर्णन करने लगे। नन्ददास ने कहा-‘‘आप तो अनन्य भक्त हैं और कवि शिरोमणि भी हैं। मैं भगवान कृष्ण की स्तुति कैसे कर सकता हूँ? उसमें जो त्रुटि हों उसे आप पूर्ण करें।’’ ऐसा कहकर उन्होंने भँवर-गीत और अन्य गीत जो भगवान् कृष्ण के लिए बनाए थे, वह बोलना शुरू किए। तुलसीदासजी ने धन्यवाद देते हुए कहा-‘‘अब राम चरित्र भी सुनाइए।’’ नन्ददासजी कहने लगे-‘‘मेरा नाम, गुरूजी ने, नन्ददास रखा है। इसलिए मैं ‘नन्ददास’ हूँ ‘रामदास’ नहीं। मैं तो श्रीकृष्णजी की ही स्तुति कर सकता हूँ। आप तो तुलसी हैं। तुलसी तो भगवान कृष्ण, विष्णु, शिव, रामजी सब पर चढ़ती है। आप तो ठीक कर रहे हैं जो सबकी स्तुति कर रहे हैं।’’ यह है भक्तों का विनोद। इसलिए आप रामजी का चरित्र सुनावें या किसी अन्य देवता का सुनावें, मैं सब सुनने को तैयार हूँ। यह है राग द्वेष रहित अनन्यता।
कुरुक्षेत्र में भगवान कृष्ण ने अर्जुन को उपदेश दिया। कई जगह पर अर्जुन की समझ में नहीं आता था। तब रथ पर बैठे हुए हनुमानजी बता दिया करते थे कि ‘हे अर्जुन, ऐसा समझो, ऐसा करो।’ भगवान् कृष्ण ने कहा-‘‘उपदेश उपदेशक के ऊपर बैठकर नहीं सुनना चाहिए। इसलिए तू पिशाच हो जा।’’ तब हनुमानजी ने कहा-‘‘आपकी आज्ञा है कि ध्वजा पर बैठकर ही अर्जुन की रक्षा करो। इसलिए उसके अज्ञान की रक्षा की है। (अर्थात् आध्यात्मिक रक्षा की है) आपकी आज्ञा का ही पालन किया है महाराज!’’ यह है मर्यादा का पालन करते हुए अपने इष्टदेव का ‘अनन्य दास’ होना। उसी समय श्रीकृष्ण भगवान् प्रसन्न हो गए और कहा-‘‘शापोद्धार के लिए गीता की टीका कर दो।’’ हनुमानजी ने पलभर में ही गीता की टीका कर दी और वैसे-के-वैसे ध्वजा पर बैठ गए। हनुमानजी सरलता और सौम्यता का रूप ही हैं, यह दर्शाया है। भक्तों का वास्तविक स्वरूप हनुमानजी का चरित्र ही है। इसलिए तुलसीदासजी ने कहा है-‘‘सादर तुम रघुपति के दासा।’’
(हिफी)-क्रमशः
(साभार-स्वामी जी श्री प्रेम भिक्षु महाराज)