अध्यात्म

तुलसीदास जी ने हनुमान जी से सर्वप्रथम बल, बुद्धि व विद्या मांगी (2)

राम के अनन्य भक्त हनुमान

(हिफी डेस्क-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

मर्यादा पुरुषोत्तम श्रीराम के अनन्य भक्त हैं हनुमान। इनको वर्तमान मंे भी उसी तरह सम्पूजित किया जाता है क्योंकि पौराणिक आख्यानों के अनुसार हनुमान जी, अश्वत्थामा, राजा बलि, परशुराम, विभीषण, वेद व्यास और कृपाचार्य को अजर-अमर होने का वरदान मिला था। त्रेता युग मंे जब राक्षस राज रावण माता सीता का हरण कर लंका ले गया तो उनकी खोज मंे वानरराज सुग्रीव ने अपनी विशाल वानर सेना को चारों तरफ भेजा था। हनुमान जी, अंगद और जाम्बवंत समेत एक दल दक्षिण दिशा मंे खोज के लिए भेजा गया था। इस दल को जटायू के बड़े भाई सम्पाति ने बताया कि सीता जी को रावण ने लंका मंे रखा हुआ है लेकिन सौ योजन समुद्र पार कर जो लंका जा सकता है, वही सीता को खोज पाएगा। अंगद आदि सूर्य वीरों ने असमर्थता जताई तो जाम्बवंत ने हनुमान जी को उनके बल-बुद्धि की याद दिलाई। हनुमान जी लंका पहुंचे और न सिर्फ सीता जी से मुलाकात की बल्कि रावण की लंका को जला दिया। उसके एक पुत्र का वध किया। हनुमान जी ने माता सीता को प्रभु श्रीराम का संदेश सुनाया और कहा ‘मेरे प्रभु को आपका पता नहीं था वरना वे कब का आपको यहां से ले गये होते। माता सीता ने प्रसन्न होकर हनुमान जी को अजर-अमर होने का वरदान दिया था। इसके बाद प्रभु श्रीराम जब अपने धाम को सिधारे तब हनुमान जी से कहा था कि मेरी कथा का श्रवण करना।
हनुमान जी के आशीर्वचन से ही गोस्वामी तुलसीदास ने प्रभु श्रीराम का गुणगान रामचरित मानस और अन्य कृतियों मंे किया है। हनुमान चालीसा मंे एक-एक चैपाई और दोहा, महामंत्र के समान है। इसकी विशद् व्याख्या स्वामी जी श्री प्रेम भिक्षु जी महाराज ने की है। इसका सभी लोग पाठन कर सकें, यही हमारा प्रयास है। ज्येष्ठ महीने मंे हनुमान जी की आराधना का विशेष महत्व होता है। हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा (हिफी) इस अवसर पर इसका क्रमबद्ध प्रकाशन कर रहा है। -प्रधान सम्पादक

तुलसीदास जी ने हनुमान जी से सर्वप्रथम बल, बुद्धि व विद्या मांगी

गोस्वामी तुलसीदास प्रभु श्रीराम के चरित्र का वर्णन करना चाहते थे, इसलिए हनुमान जी से सर्वप्रथम
बल, बुद्धि और विद्या मांगी। इसके साथ ही विकार और क्लेश से मुक्त करने की प्रार्थना भी की। यहां पर विद्या, विकार व क्लेश के बारे में विस्तार से बताया गया है।
‘‘विद्या‘‘-‘विद’ धातु का प्रयोग ‘जानने’ के अर्थ में होता है। वेद, वेदान्त, साँख्य आदि शास्त्रों के द्वारा पुरुष, प्रकृति और ब्रह्म का जो वास्तविक रूप प्रतिपादन किया गया है, शास्त्रोक्त, साधनों द्वारा ईश्वर के वास्तविक स्वरूप को जो प्राप्त करता है और कराता है उसका नाम ‘विद्या’ है। ‘विद्या’ का वास्तविक रूप है-‘‘तर्क का अवलम्बन न हो। केवल साधक को देखकर ही कृपादृष्टि द्वारा अनुभव जन्य साक्षात् कर सके और करता हो।’’
‘‘देहु मोहि’’-तुलसीदास जी, हनुमान जी से, प्रार्थना करते हुए कहते हैं ‘ये तीनांे वस्तु (बल, बुद्धि और विद्या) मुझे दीजिए।
‘‘को उदार जग माहिं, राम सरिस कोउ नाहिं।’’
यहां राम और हनुमान के ‘एकत्व’ का वर्णन है। क्योंकि स्वयं हनुमान जी ने कहा है-‘शरीर द्वारा’ मैं रामजी का दास हूँ, ‘जीव रूप’ में मैं उनका अंश हूँ और ‘वास्तव’ में हम दोनों एक ही हैं।
‘‘वस्तु तस्तु अभेद एवं’’
इसलिए यहाँ तुलसीदासजी हनुमानजी से ही ये तीनों वस्तुएँ (बल, बुद्धि और विद्या) माँग रहे हैं।
‘‘हरहु क्लेश विकार’’
तुलसीदास जी प्रार्थना करते हैं कि बल, बुद्धि और विद्या तो दें, परन्तु पाँच क्लेश हैं जो जन्म-जन्मान्तर से जीव के साथ रहते हैं।
इन क्लेश और विकारों के द्वारा चित्त भ्रमित होकर सुख रूपी चाँदी को प्राप्त करने के लिए सीप अर्थात् मायावी भोगों का अर्जन कर रहे हैं। न सुख की प्राप्ति होती है, न क्लेश की निवृत्ति होती है।
‘‘क्लेश’’ पाँच हैं-
अविद्या, अस्मिता, राग, द्वेष और अभिनिवेश।
‘‘अविद्या’’-आत्मा के अतिरिक्त जो साँसारिक विनाशशील वस्तु है, चाहे वह अपना शरीर हो या बड़े-बड़े महल आदि, उसमें आत्मबुद्धि (अर्थात यह मेरी है), समझना, जैसे यह शरीर मेरा है, सदा रहेगा, यही ‘अविद्या’ है।
‘‘अस्मिता‘‘-मोह, यानि संसार की भोग्य वस्तुओं में जो अपनत्व बना लिया है, कि यह वस्तुएँ मुझसे छूटनी नहीं चाहिएँ, उसे ‘अस्मिता’ कहते हैं।
‘‘राग’’-रूप, रस, गन्ध, स्पर्श और शब्द आदि वस्तुओं में जीव को अति आसक्ति हो जाने को ‘राग’ कहते हैं।
‘‘द्वेष’’-जिन संसारी वस्तुओं में हमने सुख की आशा बना ली है, कि अमुक से हमें सुख की प्राप्ति होगी, उसमें जो व्यक्ति बाधा या रुकावट डालता है, उसको ‘द्वेष’ कहते हैं।
‘‘अभिनिवेश‘‘-जिस वस्तु विशेष में मन में सुख की कामना बना ली है, कि वह मुझे सुख पहुंचायेगी, उसके छूट जाने या किसी भी प्रकार से दूर हो जाने का भय सामने हो और जीव उसे खोना न चाहे, बल्कि उसकी रक्षा करना चाहे, उस भय वाली मनःस्थिति को ‘अभिनिवेश’ कहते हैं।
उपनिषद में आया है-‘‘हे साधक! सदा सावधान रहो। जब तक प्राण अन्तिम घड़ी में हैं, ये पांचों ‘क्लेश’ किसी न किसी रूप में सन्मुख आते हैं और भ्रष्ट कर देते हैं। अन्तिम श्वाँस ईश्वर से विमुख न होने पाये, तब समझना चाहिए कि ‘क्लेश’ से मुक्ति हुई है।’’
‘‘विकार’’-यदि ‘क्लेशों’ पर विजय प्राप्त कर ली जाय तो ‘विकार’ अन्तिम श्वाँस तक जीव को अपने अधीन रखना चाहते हैं। श्री हनुमानजी के बिना जीवों पर कौन ऐसी दया करने वाला है, जो बिना स्वार्थ के ही तुच्छ जीवों के तोतले बोल सुनकर दौड़े आते हैं?
तुलसीदास जी ने विनय पत्रिका में कहा है-‘‘वह कौन-सा ऐसा ईश्वर है जो अपने चरणों मे ले जाने के लिए जबरदस्ती सदा आनन्दमय अवस्था प्राप्त कराने के लिए स्वयं दुःखी हो,’’ यहाँ राम और हनुमान जी की एकता का वर्णन है। इसलिए तुलसीदास जी हनुमान जी से प्रार्थना करते हैं कि मेरे ‘क्लेश’ और ‘विकार’ हरो।
‘‘विकार’’-षड् (छः) हैं-
(1) गर्भ में ही अस्तित्व अर्थात् सत्ता का ‘अभिमान’ कि मैं दुःखी हूँ, इससे कब निवृत्त होऊँगा।
(2) जन्म के तीसरे दिन पहले जन्म को भूलकर इस माता में ‘अस्तित्व’ धारण करना, छटे दिन पिता में ‘अपनत्व’ मानना तथा परिवार के अन्य व्यक्तियों को अपना समझना।
(3) ‘वर्द्धत्व’ को प्राप्त होना अर्थात अपने को बड़ा समझना, कार्यकुशल समझना।
(4) अपने आपको ‘प्रौढ़’ व बुद्धिमान समझना, अपने मित्र, शत्रु आदि बनाने की स्वयं क्षमता रखना।
(5) रोग आदि से पीड़ित होने पर अपने को ‘क्षीण’ समझना, वृद्धावस्था तक अपने आपको चिन्तित रखते हुए दुर्बल होते चले जाना व स्वाभिमान को त्याग कर अपने को पराधीन समझना।
(6) अन्त में ‘चिन्ता मग्न’ होता हुआ अपने को सर्वसमर्थहीन जानते हुए अपने भाग्य को कोसता हुआ, अपनी जवानी में किये हुए कर्मों का अभिमान करता हुआ तथा दूसरों के सामने अपनी डींग हांकता हुआ तड़प-तड़पकर पशु की तरह अनाथ होकर मृत्यु को प्राप्त होना।
‘‘विकारों के स्थान’’ सात है-चर्म, हड्डी, माँस, विष्ठा, मूत्र, वीर्य,
और रक्त। इन सातों से जो वस्तु
पैदा होती है उसे ‘देह’ कहते हैं। यह देह ही ‘विकारों’ को स्थान देता है। इसलिये तुलसीदास जी श्री हनुमान
जी से प्रार्थना करते हैं-‘‘हरहु क्लेश विकार’’। (हिफी) -क्रमशः

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