अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता 

लाग कहै रघुपति गुन गाहा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

काग भुशुंडि जी के आश्रम का प्रभाव ही यह था कि उसके आसपास माया-मोह नहीं भटकते थे। इसलिए गरुड़ जी के वहां पहुंचते ही उनका मोह समाप्त हो गया और प्रभु श्रीराम की कथा सुनने की इच्छा उत्पन्न हुई। काग भुशुंडि जी के पूछने पर कि आप किस कारण आए हैं तो उन्होंने श्रीराम की कथा सुनने की इच्छा जतायी। यह प्रसंग शंकर जी ने पहले भी बताया था कि रामचरित मानस में काग भुशुंडि और गरुड़ के संवाद की कहानी है। काग भुशुंडि जी ने पूरी राम कथा सुनायी। यहां पर गोस्वामी तुलसीदास ने प्रबंध महाकाव्य की साहित्यिक गरिमा को दिखाते हुए कथा को संक्षेप रूप में प्रस्तुत किया ताकि पढ़ने और सुनने वाले को पूरे प्रसंग एक बार फिर स्मरण हो जाएं। अभी तो गरुड़ जी काग भुशुंडि से कथा सुनाने का आग्रह कर रहे हैं-
अब श्रीराम कथा अति पावनि, सदा सुखद दुख पंुज नसावनि।
सादर तात सुनावहु मोही, बार-बार बिनवउँ प्रभु तोही।
सुनत गरुड़ कै गिरा विनीता, सरल सुप्रेम सुखद सुपुनीता।
भयउ तासु मन परम उछाहा, लाग कहै रघुपति गुनगाहा।
प्रथमहिं अति अनुराग भवानी, रामचरित सर कहेसि बखानी।
पुनि नारद कर मोह अपारा, कहेसि बहुरि रावन अवतारा।
प्रभु अवतार कथा पुनि गाई, तब सिसु चरित कहेसि मनलाई।
बाल चरित कहि विविधि विधि मन महं परम उछाह।
रिषि आगवन कहेसि पुनि श्री रघुवीर विवाह।
भगवान शंकर पार्वती जी से कहते हैं कि जब काग भुशुंडि जी ने गरुड़ से कहा कि अब आपकी क्या आज्ञा है सो मैं करूं तो गरुड़ जी कहने लगे कि हे तात, अब आप मुझे श्रीराम जी की अत्यंत पवित्र करने वाली, सदा सुख देने वाली और दुख समूह का नाश करने वाली कथा आदर सहित सुनाइए। हे प्रभो, मैं बार-बार आपसे यही विनती करता हूं। गरुड़ जी की विनम्र, सरल और सुंदर, प्रेमयुक्त, सुखप्रद और अत्यंत पवित्र वाणी सुनते ही भुशुंडि जी के मन में परम उत्साह हुआ और वे श्री रघुनाथ जी के गुणों की कथा कहने लगे। हे भवानी, पहले तो कागभुशुंडि ने बड़े ही प्रेम से रामचरित मानस का सरोवर रूपी रूपक समझाकर कहा जैसा कि बालकाण्ड में बताया गया है। उस तालाब के पास दुष्ट लोग नहीं जा पाते, वही जाते हैं जिन्हें श्रीराम के प्रति प्रेम है। इसके बाद नारद जी को काम-वासना को जीतने का जिस प्रकार अभिमान हुआ था और प्रभु ने विश्व मोहिनी के स्वयंवर की माया रचकर उस अभिमान को नष्ट किया, उस अपार मोह की कथा कही। इसके बाद राजा प्रताप भानु की कथा सुनाकर रावण के अवतार का प्रसंग सुनाया। रावण के अत्याचारों से जब पृथ्वी क्षुब्ध हो गयी और देवतागण दुखी हुए, भगवान से प्रार्थना की तब पृथ्वी का भार हरने के लिए प्रभु श्रीराम के अवतार की कथा का काग भुशुंडि ने वर्णन किया। इसके बाद उसने गरुड़ को श्रीराम की बाल लीलाएं सुनाईं। मन में परम उत्साह भरकर अनेक प्रकार की बाल लीलाएं कहकर फिर ऋषि विश्वामित्र का अयोध्या आना और श्री रघुवीर जी के विवाह का वर्णन किया।
बहुरि राम अभिषेक प्रसंगा, पुनि नृप बचन राज रस भंगा।
पुर बासिन्ह कर विरह विषादा, कहेसि राम लछिमन संवादा।
विपिन गवन केवट अनुरागा, सुरसरि उतरि निवास प्रयागा।
बालमीक प्रभु मिलन बखाना, चित्रकूट जिमि बसे भगवाना।
सचिवागमन नगर नृप मरना, भरतागवन प्रेम बहु बरना।
करि नृप क्रिया संग पुरबासी, भरत गए जहं प्रभु सुखरासी।
पुनि रघुपति बहुविधि समुझाए, लै पादुका अवधपुर आए।
भरत रहनि सुरपति सुत करनी, प्रभु और अत्रि भेंट पुनि बरनी।
कहि विराध बध जेहि विधि देह तजी सरभंग।
बरनि सुतीछन प्रीति पुनि प्रभु अगस्ति सतसंग।
काग भुशुंडि जी ने इसके बाद श्रीराम जी के राज्याभिषेक का प्रसंग, फिर राजा दशरथ जी के बचन से राज्याभिषेक के आनंद में व्यवधान पड़ने फिर नगर वासियों के बिरह विषाद और श्रीराम-लक्ष्मण के बीच वन जाने के लिए हुई बातचीत का वर्णन किया। इसके बाद श्रीराम का वनगमन, केवट का प्रेम, गंगा जी से पार उतरकर प्रयाग में निवास, बाल्मीकि जी और प्रभु श्रीराम का मिलन और जैसे भगवान चित्रकूट में बसे उस सबका वर्णन किया। इसके बाद मंत्री सुमंत्र जी का खाली रथ नगर में लौटना, राजा दशरथ का प्राण त्याग, भरत जी का ननिहाल से अयोध्या में आना और उनके प्रेम का बहुत वर्णन किया। राजा की अंत्येष्ठि क्रिया करके नगर निवासियों को साथ लेकर भरत जी वहां गये जहां सुख की राशि श्रीराम चन्द्र जी थे। फिर रघुनाथ जी ने भरत को जिस प्रकार से समझाया, जिससे वे खड़ाऊं लेकर अयोध्यापुरी लौट आए यह सब कथा कही। भरत जी की नन्दिग्राम में रहने की रीति, इंद्र पुत्र जयंत की नीच करनी और फिर प्रभु श्रीरामचन्द्र जी और अत्रि मुनि के मिलाप का वर्णन किया। इसके बाद जिस प्रकार विराध का वध हुआ और शरभंग जी ने शरीर त्याग किया, वह प्रसंग कहकर फिर सुतीक्ष्ण जी के प्रेम का वर्णन करके प्रभु श्रीराम ने जिस प्रकार दण्डक वन को पवित्र किया- यह कथा कहकर भुशुंडि जी ने गीध राज जटायु से मित्रता की कथा कही-
कहि दंडक वन पावनताई, गीध मइत्री पुनि तेहि गाई।
पुनि प्रभु पंचवटी कृत बासा, भंजी सकल मुनिन्ह की त्रासा।
पुनि लछिमन उपदेस अनूपा, सूपनखा जिमि कीन्हि कुरूपा।
खर-दूषन बध बहुरि बखाना, जिमि सब मरमु दसानन जाना।
दसकंधर मारीच बतकही, जेहि विधि भई सो सब तेहि कही।
पुनि माया सीता कर हरना, श्री रघुबीर विरह कछु बरना।
पुनि प्रभु गीध क्रिया जिमि कीन्ही, बधि कवन्ध सबरिहि गति दीन्हीं।
बहुरि बिरह बरनत रघुबीरा, जेहि विधि गये सरोवर तीरा।
प्रभु नारद संवाद कहि मारुति मिलन प्रसंग।
पुनि सुग्रीव मिताई, बालि प्रान कर भंग।
गीधराज जटायु से मित्रता के बाद प्रभु श्रीराम पंचवटी में रहने लगे और जिस प्रकार सभी मुनियों के कष्ट को दूर कर दिया वह कथा भी सुनाई। इसके बाद प्रभु श्रीराम ने लक्ष्मण जी को अनुपम उपदेश दिया और शूर्पणखा को जिस प्रकार कुरूप किया गया वह कथा सुनाई। इसके बाद खर-दूषण का वध और जिस प्रकार रावण ने सब समाचार पाया, वह बखान कर कहा। फिर जिस प्रकार रावण और मारीच की बातचीत हुई वह सब उन्होंने कही। इसके बाद माया रूपी सीता का हरण और श्री रघुबीर जी की बिरह का कुछ वर्णन किया फिर प्रभु ने गिद्ध जटायु की जिस प्रकार क्रिया की, कवंध का वध किया और शबरी को परम गति दी और फिर जिस प्रकार विरह करते हुए श्री रघुवीर जी पंपा सरोवर के पास पहुंचे, वह कथा सुनाई। प्रभु और नारद जी का संवाद और हनुमान जी के मिलने का प्रसंग कहकर, फिर सुग्रीव से मित्रता और बालि के प्राण लेने का वर्णन किया। -क्रमशः (हिफी)

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