
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
सचिव सुसेवक भरत प्रबोधे, निज निज काज पाइ सिख ओधे।
पुनि सिख दीन्हि बोलि लघु भाई, सौंपी सकल मातु सेवकाई।
भूसुर बोलि भरत कर जोरे, करि प्रनाम बय बिनय निहोरे।
ऊंच-नीच कारजु भल पोचू, आयसु देब न करब संकोचू।
परिजन पुरजन प्रजा बोलाए, समाधानु करि सुबस बसाए।
सानुज गे गुर गेह बहोरी, करि दंडवत कहत कर जोरी।
आयसु होइ त रहौं सनेमा, बोले मुनि तन पुलकि सपेमा।
समुझब कहब करब तुम्ह जोई, धरम सारू जग होइहि सोई।
सुनि सिख पाइ असीस बड़ि गनक बोलि दिन साधि।
सिंघासन प्रभु पादुका बैठारे निरुपाधि।
भरत जी ने मंत्रियों और विश्वासी सेवकों को समझाकर तैयार किया वे सब सीख पाकर अपने-अपने काम में लग गये। फिर छोटे भाई शत्रुघ्न को बुलाकर शिक्षा दी और सब माताओं की सेवा उनको सौंपी। इसके बाद ब्राह्मणों को बुलाकर भरत जी ने हाथ जोड़कर प्रणाम किया। उनकी उम्र के अनुसार उनसे बातें की और कहा आप लोग ऊंचा-नीचा (छोटा-बड़ा) अच्छा-मन्दा जो कुछ भी कार्य हो, उसके लिए आज्ञा दीजिएगा और संकोच न कीजिएगा। भरत जी ने फिर परिवार के लोगों को नागरिकों को और अन्य प्रजा को बुलाकर उनका समाधान करके उनको सुखपूर्वक बसाया। फिर छोटे भाई शत्रुघ्न जी समेत वे गुरू वशिष्ठ के घर गये और दण्डवत करके हाथ जोड़कर बोले गुरू जी आपकी आज्ञा हो तो मैं नियम पूर्वक रहूं। मुनि वशिष्ठ जी पुलकित शरीर होकर प्रेम के साथ बोले-हे भरत तुम जो कुछ समझोगे कहोगे और करोगे, वही जगत में धर्म का सार होगा। भरत जी ने यह सुनकर और शिक्षा तथा ढेर सारा आशीर्वाद पाकर ज्योतिषियों को बुलवाया और अच्छा दिन मुहूर्त साध कर प्रभु श्रीरामचन्द्र जी की चरण पादुकाओं को निर्विघ्नता पूर्वक सिंहासन पर विराजित कराया।
रामु मातु गुर पद सिरु नाई, प्रभु पद पीठ रजायसु पाई।
नंदिगावँ करि परन कुरीरा, कीन्ह निवासु धरम धुर धीरा।
जटाजूट सिर मुनिपट धारी, महि खनि कुस सांथरी संवारी।
असन, बसन बासन ब्रत नेमा, करत कठिन रिषिधरम सप्रेमा।
इसके बाद भरत जी श्रीराम की माता कौशल्या जी के और गुरू वशिष्ठ के चरणों में प्रणाम करके और श्रीराम जी की चरण पादुकाओं की आज्ञा पाकर धर्म की धुरी धारण करने में धीर भरत जी ने नन्दिग्राम में पर्ण कुटी बनाकर उसी में निवास किया। सिर पर जटाजूट और शरीर में मुनियों के वल्कल वस्त्र धारण कर, पृथ्वी को खोदकर उसके अंदर कुश की आसनी बिछाई। भोजन, वस्त्र, बर्तन, व्रत, नियम सभी बातों में वे ऋषियों के कठिन धर्म का प्रेम सहित आचरण करने लगे। -क्रमशः (हिफी)