अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

पुनि रघुपति सब सखा बोलाए

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण जी जब परिवारी जनों से मिल चुके तब उन्होंने अपने सभी उन मित्रों को बुलाया जो लंका से उनके साथ आए थे। इनमें हनुमान जी को भरत जी जानते थे लेकिन बाकी अन्य लोगों के बारे में उनको भी पता नहीं था। प्रभु श्रीराम ने उन सबको बुलाकर यह शिक्षा दी कि गुरु वशिष्ठ को प्रणाम करो। इसके बाद एक-एक का परिचय कराया और उनकी प्रशंसा करते हुए कहा कि हे गुरुदेव, यही मेरे मित्र हैं जिन्होंने रावण के साथ युद्ध में मुझे बहुत सहयोग दिया। मेरे हित में इन्होंने अपने जीवन को भी दांव पर लगा दिया था, इसलिए ये मुझे भरत से भी अधिक प्यारे हैं। सुग्रीव, विभीषण आदि साथियों ने फिर सभी माताओं को भी प्रणाम करके आशीर्वाद लिया। अयोध्या में सब लोग खुश हुए और घर-घर दीपक जले। बताते हैं उसी समय से दीपावली का त्योहार शुरू हुआ। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कौशल्या जी अपने प्रिय पुत्र को निहार रही हैं और तरह-तरह से विचार कर रही हैं-
हृदयं विचारति बारहिं बारा, कवन भांति लंकापति मारा।
अति सुकुमार जुगल मेरे बारे, निसिचर सुभट महाबल भारे।
लछिमन अरु सीता सहित प्रभुहि बिलोकति मातु।
परमानंद मगन मन पुनि-पुनि पुलकित गातु।
कौशल्या जी बार-बार हृदय में विचारती हैं कि इन्होंने लंकापति रावण को कैसे मारा? मेरे ये दोनों बच्चे बड़े ही सुकुमार हैं और राक्षस तो बड़े भारी योद्धा और महान बली थे। इस प्रकार सोचते हुए लक्ष्मण जी और सीता जी सहित प्रभु श्रीरामचन्द्र जी को माताएं देख रही हैं। उनका मन परमानंद में मग्न है और शरीर बार-बार पुलकित हो रहा है।
लंकापति कपीस नल-नीला, जामवंत अंगद सुभ सीला।
हनुमदादि सब बानर वीरा, धरे मनोहर मनुज सरीरा।
भरत सनेह सील व्रत नेता, सादर सब बरनहिं अति प्रेमा।
देखि नगरबासिन्ह कै रीती, सकल सराहहिं प्रभु पद प्रीती।
पुनि रघुपति सब सखा बोलाए, मुनि पद लागहु सकल सिखाए।
गुर वसिष्ठ कुल पूज्य हमारे, इन्ह की कृपा दनुज रन मारे।
ए सब सखा सुनहु मुनि मेरे, भए समर सागर कहं बेरे।
मम हित लागि जन्म इन्ह हारे, भरतहुं ते मोहि अधिक पिआरे।
सुनि प्रभु बचन मगन सब भए, निमिष निमिष उपजत सुख नए।
कौसल्या के चरनन्हि पुनि तिन्ह नायउ माथ।
आसिष दीन्हे हरषि तुम्ह प्रिय मम जिमि रघुनाथ।
सुमन वृष्टि नभ संकुल भवन चले सुख कंद।
चढ़ी अटारिन्ह देखहिं नगर नारि नर वृंद।
इधर, श्रीराम को माताएं प्रेम से निहार रही थीं तो उधर लंकापति विभीषण, वानर राज सुग्रीव, नल-नील, जाम्ववान और अंगद तथा हनुमान जी आदि सभी उत्तम स्वभाव वाले वीर वानरों ने मनुष्यों के मनोहर शरीर धारण कर लिये। वे सब भरत जी के सुंदर प्रेम, स्वभाव (त्याग), व्रत और नियमों की अत्यंत प्रेम से आदरपूर्वक बड़ाई कर रहे हैं और नगर निवासियों की प्रेम, शील और विनय से भरी रीति देखकर प्रभु के चरणों में उनके प्रेम की सराहना कर रहे हैं। अपने साथियों की तरफ भगवान ने देखा और सोचा कि इनका भी परिचय कराना चाहिए, तब उन्होंने अपने सब सखाआंे को बुलाया और सिखाया कि मुनि के चरण स्पर्श करो। प्रभु श्रीराम ने अपने मित्रों से कहा कि ये गुरु वशिष्ठ जी हमारे कुल (वंश) के पूज्य हैं। इन्हीं की कृपा से रण में राक्षस मारे गये हैं। इसके बाद उन्होंने गुरु वशिष्ठ से कहा हे मुनि सुनिए। ये सब मेरे सखा हैं। ये संग्राम रूपी समुद्र में मेरे लिए जहाज के समान सहायक बने थे। मेरे हित के लिए इन्होंने अपने जन्म तक हार दिये अर्थात अपने प्राणों की भी बाजी लगा दी थी। ये मुझे भरत से भी अधिक प्रिय हैं।
प्रभु श्रीराम के वचन सुनकर वे सब प्रेम और आनंद में मग्न हो गये। इस प्रकार पल-पल में उन्हें नए-नए सुख मिल रहे हैं। सुग्रीव आदि सभी सखाओं ने कौशल्या जी के चरणों में मस्तक नवाया। कौशल्या जी ने हर्षित होकर आशीर्वाद दिया और कहा तुम सभी मुझे मेरे राम की तरह ही प्यारे हो।
इस प्रकार आनंद कंद श्रीराम जी अपने महल को चले, आकाश फूलों की वृष्टि से छा गया। नगर के स्त्री-पुरुषों के समूह अटारियों पर चढ़कर उनके दर्शन कर रहे हैं।
कंचन कलस विचित्र संवारे, सबहिं धरे सजि निज निज द्वारे।
बंदनवार पताका केतू, सबन्हि बनाए मंगल हेतू।
बीथीं सकल सुगंध सिंचाई, गजमनि रचि बहु चैक पुराई।
नाना भांति सुमंगल साजे, हरषि नगर निसान बहु बाजे।
जहं तहं नारि निछावरि करहीं, देहिं असीस हरष उर भरहीं।
कंचन थार आरती नाना, जुबतीं सजे करहिं सुभ गाना।
करहिं आरती आरत हरके, रघुकुल कमल बिपिन दिन कर के।
पुर सोभा संपति कल्याना, निगम सेष सारदा बखाना।
तेउ यह चरित देखि ठगि रहहीं, उमा तासु गुन नर किमि कहहीं।
श्रीराम, सीता जी और लक्ष्मण के लिए सोने के कलशों को विचित्र रीति से मणि रत्नों से अलंकृत कर और सजाकर सब लोगों ने अपने-अपने दरवाजों पर रख लिया। सब लोगों ने मंगल के लिए बंदनवार, ध्वजा और पताकाएं लगायीं। सारी गलियां सुंगधित दृव्यों से सिंचाई गयीं। गज मुक्ताओं से रचकर बहुत सी चैकंे पुराई गयीं। अनेक प्रकार के सुंदर मंगल साज सजाए गये और हर्षपूर्वक नगर में बहुत से डंके बजने लगे। स्त्रियां जहां-तहां निछावर कर रही हैं और हृदय में हर्षित होकर आशीर्वाद देती हैं। बहुत सी सुहागन युवतियां सोने के थालांे में अनेक प्रकार की आरती सजाकर मंगल गान कर रही हैं। वे स्त्रियां आर्तिहर अर्थात दीनों के दुखों को दूर करने वाले और सूर्यकुल रूपी कमल वन को प्रफुल्लित करने वाले सूर्य श्रीराम जी की आरती कर रही हैं। नगर की शोभा, सम्पत्ति और कल्याण का वेद, शेष जी और सरस्वती जी वर्णन करती हैं। शंकर जी पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे पार्वती वे भी यह चरित्र देखकर ठगे से खड़े रह जाते हैं। शिव जी कहते हैं कि हे उमा, अयोध्या की इस खुशी का वर्णन कोई मनुष्य भला कैसे कर सकता है।
श्रीराम के वनवास से वापस
आने पर अयोध्या में जिस प्रकार
की खुशी हुई और घर-घर दीपक जले तो बताते हैं, उसी समय
से दीपावली का त्योहार मनाया
जाता है। -क्रमशः (हिफी)

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