
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम जानकी जी के साथ
अयोध्या के राज सिंहासन पर विराजमान हो गये हैं। विप्रगण वेदों के मंत्र का उच्चारण कर रहे हैं। माताएं प्रभु की आरती उतार कर ब्राह्मणों को दान दे रही हैं। सबसे पहले कुलगुरु वशिष्ठ ने तिलक लगाया। इसके बाद ब्राह्मणों ने तिलक किया। अयोध्या के सिंहासन पर त्रिभुवन के स्वामी विराजमान हुए हैं तो उस समय की शोभा का बखान गोस्वामी तुलसीदास ने विस्तार से किया। उसी समय भाटों का रूप
धरकर चारों वेद वहां आए और प्रभु श्रीराम की स्तुति की। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो श्रीराम राज सिंहासन पर जानकी जी के साथ विराजमान हुए हैं।
जनकसुता समेत रघुराई, पेखि प्रहरषे मुनि समुदाई।
वेद मंत्र तब द्विजन्ह उचारे, नभ सुर मुनि जय जयति पुकारे।
प्रथम तिलक वसिष्ट मुनि कीन्हा, पुनि सब विप्रन्ह आयसु दीन्हा।
सुत बिलोकि हरषीं महतारी, बार-बार आरती उतारी।
विप्रन्ह दान विविध विधि दीन्हे, जाचक सकल अजाचक कीन्हें।
सिंघासन पर त्रिभुवन साईं, देखि सुरन्ह दुंदुभी बजाई।
नभ दुंदुभी बाजहिं विपुल,ं गंधर्व किन्नर गावहीं।
नाचहिं अपछरा वृंद परमानंद सुर मुनि पावहीं।
भरतादि अनुज विभीषनांगद हनुमदादि समेत ते।
गहे छत्र चामर व्यजन धनु असि चर्म सक्ति बिराजते।
श्री सहित दिनकर बंस भूषन काम बहु छवि सोहई।
नव अंबुधर बर गात अंबर पीत सुर मन मोहई।
मुकुटांगदादि विचित्र भूषन अंग अंगन्हि प्रति सजे।
अंभोज नयन बिसाल उर भुज धन्य नर निरखंति जे।
राज सिंहासन पर जानकी जी सहित श्री रघुनाथ जी को देखकर मुनियों का समुदाय अत्यंत ही हर्षित हुआ। ब्राह्मणों ने वेद मंत्रों का उच्चारण किया। आकाश में देवता और मुनि ‘जय हो, जय हो’ ऐसी पुकार करने लगे। सबसे पहले मुनि वशिष्ठ ने श्रीराम को तिलक लगाया फिर मुनि ने सब ब्राह्मणों को तिलक करने की आज्ञा दी। पुत्र को राज सिंहासन पर देखकर माताएं हर्षित हुईं और बार-बार आरती उतारी। उन्होंने ब्राह्मणों को अनेक प्रकार से दान दिये और सभी भिखारियों को इतना धन दिया कि उन्हें अब आगे भिक्षा मांगने की जरूरत नहीं होगी अर्थात उन्हें अयाचक बना दिया। त्रिभुवन के स्वामी रामचन्द्र जी को अयोध्या के राज सिंहासन पर विराजित देखकर देवताओं ने नगाड़े बजाए। इस प्रकार आकाश में बहुत सारे नगाड़े बज रहे हैं। गंधर्व और किन्नर गा रहे हैं, अप्सराओं के झुंड के झुंड नाच रहे हैं। देवता और मुनि परमानंद प्राप्त कर रहे हैं। भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न जी, विभीषण, अंगद, हनुमान और सुग्रीव आदि क्रमशः छत्र, चंवर, पंखा, धनुष, तलवार, ढाल और शक्ति लिये हुए शोभित है। श्री सीता जी सहित सूर्य वंश के विभूषण श्रीराम जी के शरीर में अनेक कामदेवों की छवि शोभा दे रही है। नवीन जलयुक्त मेघों के समान सुंदर श्याम शरीर पर पीताम्बर देवताओं के मन को भी मोहित कर रहा है। मुकुट, बाजूवंद आदि विचित्र आभूषण अंग अंग मंे सजे हुए हैं। कमल के समान नेत्र हैं, चैड़ी छाती है और लम्बी भुजाएं हैं। प्रभु श्रीराम के जो दर्शन कर रहे हैं, वे
धन्य हैं।
वह सोभा समाज सुख कहत न बनइ खगेस।
बरनहिं सारद शेष श्रुति सो रस जान महेस।
भिन्न-भिन्न अस्तुति करि गए सुर निज निज धाम।
बंदी बेष बेद तब आए जहं श्रीराम।
प्रभु सर्वग्य कीन्ह अति आदर कृपा निधान।
लखेउ न काहूं मरम कछु लगे करन गुनगान।
काग भुशुंडि जी गरुड़ जी को श्रीराम कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे पक्षीराज, उस समय की शोभा और समाज व सुख मुझसे कहते नहीं बन रहा है। सरस्वती जी, शेष जी और वेद निरंतर उसका वर्णन करते हैं और उस सुख-शोभा का रस अर्थात आनंद महादेव जी ही जानते हैं। सब देवता अलग-अलग स्तुति करके अपने-अपने लोक को चले गये तब भाटों का वेश धरकर चारों वेद वहां आए जहां श्रीराम जी थे। कृपा निधान सर्वज्ञ प्रभु श्रीराम ने उन्हें पहचान कर वेदों का बहुत ही आदर किया। इस भेद को कोई जान नहीं पाया। इसके बाद वेद प्रभु श्रीराम का गुणगान करने लगे।
जय सगुन निर्गुन रूप रूप अनूप भूप सिरोमने।
दसकंधरादि प्रचंड निसिचर प्रबल खल भुज बल हने।
अवतार नर संसार भार बिभंजि दारुन दुख दहे।
जय प्रनत पाल दयाल प्रभु संजुक्त सक्ति नमामहे।
तव विषम माया वस सुरासुर नाग नर अग जग हरे।
भव पंथ भ्रमत अमित दिवस निसि काल कर्म गुननि भरे।
जे नाथ करि करुना बिलोके त्रिबिधि दुख ते निर्वहे।
भव खेद छेदन दच्छ हम कहुं रच्छ राम नमामहे।
जे ग्यान मान विमत्त तव भव हरनि भक्ति न आदरी।
ते पाइ सुर दुर्लभ पदादपि परत हम देखत हरी।
विस्वास करि सब आस परिहरि दास तव जे होइ रहे।
जपि नाम तव बिनु श्रम तरहिं भव नाथ सो समरामहे।
वेद कहते हैं-हे सगुण और निर्गुण रूप, हे अनुपम रूप लावण्य मय, हे राजाओं के शिरोमणि आपकी जय हो। आपने रावण आदि प्रचण्ड, प्रबल और दुष्ट निशाचरों को अपनी भुजाओं के बल से मार डाला। आपने मनुष्य अवतार लेकर संसार के भार को नष्ट करके अत्यंत कठोर दुखों को भस्म कर दिया। हे दयालु, हे शरणागत की रक्षा करने वाले प्रभो-आपकी जय हो। मैं शक्ति (सीता जी) सहित हे शक्तिमान आपको नमस्कार करता हूं। हे हरे, आपकी दुस्तर माया के वशीभूत होने के कारण देवता, राक्षस, नाग, मनुष्य और चर-अचर सभी काल, कर्म और गुणों से भरे हुए हैं और माया के वशीभूत होकर दिन रात अनंत भव (संसार) के आवागमन मंे भटक रहे हैं। हे नाथ इनमें से जिनको आपने कृपा करके देख लिया, वे माया जनित तीनों प्रकार के दुखों से छूट गये। हे जन्म-मरण के श्रम को काटने में कुशल श्रीराम जी हमारी रक्षा कीजिए, हम आपको नमस्कार करते हैं।
वेद कहते हैं कि हे प्रभो जिन्होंने मिथ्या ज्ञान के अभिमान में विशेष रूप से मतवाले होकर जन्म-मृत्यु के भय को हरने वाले आपकी भक्ति का आदर नहीं किया, हरि, उन्हें दुर्लभ पद प्राप्त करके भी हम उस पद से नीचे गिरते देखते हैं लेकिन जो सब आशाओं को छोड़कर आप पर विश्वास करके
आपके दास हो गये, वे केवल आपका नाम ही जप कर, बिना ही परिश्रम
भव सागर पार हो जाते हैं। हे नाथ इसी तरह से हम आपका स्मरण करते हैं। -क्रमशः (हिफी)