अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

वैनतेय सुनु संभु तब आए जहं रघुवीर

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवान शंकर ने लंका में ही जब प्रभु श्रीराम ने राक्षस राज रावण का वध किया था, तब श्रीराम की स्तुति करते हुए यह अनुमति भी मांगी थी कि हे प्रभु जब अयोध्या में आपका राजतिलक होगा, तब उसे देखने मैं वहां आऊंगा। इसलिए प्रभु श्रीराम जब अयोध्या के राज सिंहासन पर बैठे तो पहले वेदों ने आकर गुणगान किया और वेदों के गुणगान करने के बाद शंकर जी वहां आए और अपने आराध्य की स्तुति की। अभी तो वेद ही प्रभु का गुणगान कर रहे हैं-
जे चरन सिव अज पूज्य रज सुभ परसि मुनिपतिनी तरी।
नख निर्गता मुनि वंदिता त्रैलोक पावनि सुरसरी।
ध्वज कुलिस अंकुस कंज जुत वन फिरत कंटक किन लहे।
पद कंज द्वंद्व मुकुंद राम रमेस नित्य भजामहे।
अव्यक्तमूलमनादि तरु त्वच चारि निगमागम भने।
षट कंध साखा पंच बीस अनेक पर्न सुमन घने।
फल जुगल विधि कटु मधुर बेलि अकेलि जेहि आश्रित रहे।
पल्लवत फूलत नवल नित संसार बिटप नमामहे।
जे ब्रह्म अजमद्वैतमनुभवगम्य मन पर ध्यावहीं।
ते कहहुं जानहुं नाथ हम तव सगुन जस नित गावहीं।
करुनायतन प्रभु सद गुनाकर देव यह बर मागहीं।
मन बचन कर्म विकार तजि तव चरन हम अनुरागहीं।
वेद भगवान श्रीराम की वंदना करते हुए कहते हैं कि जो चरण ब्रह्मा जी और शिवजी द्वारा पूज्य हैं तथा जिन चरणों की कल्याणमयी धूल का स्पर्श पाकर पत्थर की शिला बनी हुई गौतम ऋषि की पत्नी अहिल्या का उद्धार हो गया, जिन पैरों की नख से मुनियों द्वारा वंदित, त्रैलोक्य को पवित्र करने वाली देव नदी गंगा जी निकलीं और ध्वजा, वज्र, अंकुश और कमल इन चिह्नों से युक्त जिन चरणों में वन जाते समय कांटे चुभ जाने से गड्ढे पड़ गये हैं-हे मुकुंद, हे राम, हे रमापति हम आपके उन्हीं चरणों को नित्य भजते रहते हैं। वेद-शास्त्रों ने कहा है कि जिसका मूल अव्यक्त (प्रकृति) है जो प्रवाह रूप से अनादि है, जिसकी चार त्वचाएं छह तने, पचीस शाखाएं और अनेक पत्ते और बहुत से फूल हैं, जिसमें कड़वे और मीठे दो प्रकार के फल लगे हैं, जिन पर एक ही बेल है जो प्रभु के आश्रित रहती है जिसमें नित्य नये पत्ते और फूल निकलते रहते हैं, ऐसे संसार स्वरूप वृक्ष प्रभु को हम नमस्कार करते हैं। वेद कहते हैं कि ब्रह्म तो अजन्मा है, अद्वैत है केवल अनुभव से ही जाना जाता है और मन से परे हैं जो इस प्रकार कहकर उस ब्रह्म का ध्यान करते हैं वे ऐसा कहा करें और समझा करें लेकिन हे नाथ, हम तो नित्य आपका सगुण यश ही गाते हैं। हे करुणा के धाम प्रभो, हे सद्गुणों की खान, हे देव हम यह वर मांगते हैं कि मन, वचन और कर्म से विकारों को त्याग कर आपके चरणों में ही प्रेम करें।
सबके देखत वेदन्ह विनती कीन्हि उदार।
अंतर्धान भए पुनि गए ब्रह्म आगार।
वैनतेय सुनु संभु तब आए जहं रघुवीर।
विनय करत गद्गद गिरा पूरित पुलक सरीर।
जय राम रमारमनं समनं, भव ताप भयाकुल पाहि जनं।
अवधेस सुरेस रमेस विभो, सरनागत मागत पाहि प्रभो।
दससीस बिनासन बीस भुजा, कृत दूरि महामहि भूरि रुजा।
रजनीचर वृंद पतंग रहे, सर पावक तेज प्रचंड दहे।
महि मंडल मंडन चारु तरं,
धृत सायक चाप निषंग बरं।
मदमोह महा ममता रजनी, तम पुंज दिवाकर तेज अनी।
मनजात किरात निपात किए, मृग लोग कुभोग सरेन हिए।
हतिनाथ अनाथनि पाहि हरे, विषया वन पांवर भूलि परे।
बहु रोग वियोगन्हि लोग हए, भव दंध्रि निरादर के फल ए।
भव सिंधु अगाध परे नर ते, पद पंकज प्रेम न जे करते।
अति दीन मलीन दुखी नितही, जिन्ह के पद पंकज प्रीति नहीं।
अवलंब भवंत कथा जिन्हके, प्रिय संत अनंत सदा तिन्हके।
नहि राग न लोभ न मान मदा, तिन्ह कें सम वैभव वा विपदा।
एहि ते तव सेवक होत मुदा, मुनि त्यागत जोग भरोस सदा।
करि प्रेम निरंतर नेम लिएं, पद पंकज सेवत सुद्ध हिंए।
सम मानि निरादर आदरहीं, सब संत सुखी विचरंति मही।
मुनि मानस पंकज भृंग भजे, रघुवीर महा रनधीर अजे।
तव नाम जपामि नमामि हरी, भव रोग महागद मान अरी।
सभी को देखते हुए वेदांे ने इस प्रकार विनती की फिर वे अन्तध्र्यान हो गये और ब्रह्म लोक को चले गये। काग भुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी सुनिये, वेदों के विनती करके जाते ही वहां भगवान शंकर आए और गदगद वाणी से स्तुति करने लगे। उनका शरीर पुलकित था। भगवान शंकर कहते हैं-हे राम, हे रमा रमण (लक्ष्मी के पति), हे जन्म-मरण के संसार का नाश करने वाले आपकी जय हो, आवागमन के भय से व्याकुल इस सेवक की रक्षा कीजिए। हे अवधपति, हे अवध के स्वामी, हे रमापति, हे विभो, मैं शरणागत आपसे यही मांगता हूं कि हे प्रभो मेरी रक्षा कीजिए। हे दस सिर और बीस भुजाओं वाले रावण का विनाश करके पृथ्वी के सब महारोगों (कष्टों) को दूर करने वाले श्रीराम जी, राक्षस समूह रूपी जो पतंगे थे वे सब आपके वाण रूपी अग्नि के प्रचण्ड से भस्म हो गये। आप पृथ्वी मंडल के अत्यंत सुंदर आभूषण हैं। आप श्रेष्ठ वाण, धनुष, तरकस धारण किये हैं। महान मद, मोह और ममता रूपी रात्रि के अंधकार समूह का नाश करने के लिए आप सूर्य के तेजोमय किरण समूह हैं। कामदेव रूपी भील ने मनुष्य रूपी हिरनों के हृदय में कुभोग रूपी वाण मारकर उन्हें गिरा दिया है। हे नाथ हे पाप-ताप का नाश करने वाले हरे, उसे मारकर विषय रूपी वन में भूले पड़े हुए इन पामर अनाथ जीवों की रक्षा कीजिए। लोग बहुत से रोगों और वियोगों (दुखों) से मारे हुए हैं। ये सब आपके चरणों के निरादर के फल हैं। जो मनुष्य आपके चरण कमलांे में प्रेम नहीं करते, वे अथाह महासागर में पड़े हैं जिनको आपके चरण कमलांे में प्रीति नहीं है, वे नित्य ही अत्यंत दीन-मलीन (उदास) और दुखी रहते हैं और जिन्हें आपकी लीला-कथा का आधार है उनको संत और भगवान सदा प्रिय लगने लगते हैं। उनमें न राग (आसक्ति) है, न लोभ न मान है और न मद है। उनको सम्पत्ति और विपत्ति समान है। इसी से मुनि लोग योग (साधना) का भरोसा लेकर उसे त्याग देते हैं और प्रसन्नता के साथ आपके सेवक बन जाते हैं। वे प्रेम पूर्वक नियम लेकर निरंतर शुद्ध हृदय से आपके चरण कमलांे की सेवा करते रहते हैं और निरादर और आदर को समान मानकर वे सब संत सुखी होकर संसार में विचरते रहते हैं। हे मुनियों के मन रूपी कमल के भ्रमर, हे महान रणधीर एवं अजेय श्री रघुबीर मैं आपको भजता हूूं अर्थात आपकी शरण में हूं। हे हरि, आपका नाम जपता और आपको नमस्कार करता हूं। आप जन्म-मरण रूपी रोग की महान औषध और अभिमान के शत्रु हैं। आपको मेरा नमस्कार है। -क्रमशः (हिफी)

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