अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

मागें बारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

राम राज कैसा होता है इसका वर्णन गोस्वामी तुलसीदास ने यहां किया है। आज भारत भले ही एक सीमित भूभाग में सिमट गया है लेकिन मर्यादा पुरुषोत्तम प्रभु श्रीराम का राज्य सात समुद्रों की मेखला (करधनी) वाली समूची पृथ्वी पर था। इतने बड़े राज्य में सभी सुखी और सम्पन्न थे लेकिन किसी में अहंकार नहीं, सभी उदार हृदय और परोपकारी हैं। कोई किसी का शत्रु नहीं। मनुष्यों की तो बात ही छोड़ दें, वन्य जीव भी एक साथ रहते हैं और वृक्ष हमेशा फलते-फूलते रहते हैं। प्रकृति भी उदार हो गयी है और पानी मांगने पर बादल बारिश कर
देते हैं।
भूमि सप्त सागर मेखला, एक भूप रघुपति कोसला।
भुवन अनेत रोम प्रति जासू, यह प्रभुता कछु बहुत न तासू।
सो महिमा समुझत प्रभु केरी, यह बरनत हीनता धनेरी।
सोउ महिमा खगेस जिन्ह जानी, फिरि एहिं चरित तिन्हहुं रति मानी।
सोउ जाने कर फल यह लीला, कहहिं सदा मुनिवर दमसीला।
रामराज कर सुख संपदा, बरनि न सकइ फनीस सारदा।
सब उदार सब पर उपकारी, बिप्र चरन सेवक नर नारी।
एक नारि ब्रत रत सब झारी, ते मनबच क्रम पति हितकारी।
दंड जतिन्ह कर भेद जहं नर्तक नृत्य समाज।
जीतहु मनहि सुनिअ अस रामचन्द्र के राज।
काग भुशुण्डि जी गरुड़ को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि अयोध्या में श्री रघुनाथ जी सात समुद्रों की मेखला
(करधनी) वाली पृथ्वी के एक मात्र राजा हैं। जिनके एक-एक रोम में अनेक ब्रह्माण्ड है ऐसे परम ब्रह्म के लिए सात द्वीपों की यह प्रभुता कुछ अधिक नहीं है। बल्कि प्रभु की उस महिमा को समझ लेने पर तो यह कहने में कि वे सात समुद्रों से घिरी हुई पृथ्वी के एक छत्र सम्राट हैं, प्रभु की बड़ी हीनता होती है लेकिन हे गरुड़ जी जिन्होंने वह महिमा जान भी ली है वे भी इस लीला में बहुत प्रेम देखते हैं क्योंकि उस महिमा को भी जानने का फल यह लीला ही है, इन्द्रियों को वश में रखने वाले मुनि श्रेष्ठ ऐसा कहते हैं। राम राज्य की सुख-सम्पत्ति का वर्णन शेष जी और सरस्वती जी भी नहीं कर सकते। सभी नर-नारी रामराज्य में उदार हैं, सभी परोपकारी हैं और सभी ब्राह्मणों के चरणों के सेवक हैं। सभी पुरुष मात्र एक स्त्री अर्थात एक पत्नीव्रती हैं। इसी प्रकार स्त्रियां भी मन वचन और कर्म से पति का हित करने वाली है। श्रीराम जी के राज्य में दण्ड केवल संन्यासियों के हाथ में है। दण्ड के दो अर्थ होते हैं एक लकड़ी का टुकड़ा, दूसरा अपराध के लिए दी जाने वाली सजा। यहां पर संन्यासियों के हाथ में दण्ड की बात इसीलिए कही गयी क्योंकि जब कोई अपराध ही नहीं करता तो उसे दण्ड कैसे दिया जाए। इसी प्रकार भेद नाचने वालों के नृत्य समाज में है और जीतो (विजय) शब्द केवल मन के जीतने के लिए सुनाई पड़ता है। राजा के लिए चार नीतियां बतायी जाती हैं-साम, दान, दण्ड और भेद। राजनीति मंे शत्रुओं को जीतने के लिए यही चार उपाय किये जाते हैं। राम राज्य में कोई शत्रु ही नहीं है तो जीत शब्द केवल मन को जीतने को बोला जाता है। कोई अपराध नहीं करता तो दण्ड किसी को नहीं दिया जाता। सभी लोग अनुकूल हैं इसलिए भेद नीति की जरूरत नहीं रह गयी। भेद शब्द केवल सुर-ताल के भेद के लिए प्रयोग किया जाता है।
राम राज्य में मनुष्यों की बात तो छोड़ ही दें, वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और शेर वैर भूलकर एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभी ने वैर भुला दिया है-
फूलहिं फरहिं सदा तरु कानन, रहहिं एक संग गंज पंचानन।
खग मृग सहज बयरु बिसराई, सबन्हि परस्पर प्रीति बढ़ाई।
कूजहिं खग मृग नाना वृंदा, अभय चरहिं बन करहिं अनंदा।
सीतल सुरभि पवन बह मंदा, गुंजत अलि लै चलि मकरंदा।
लता बिटप मांगे मधु चवहीं, मन भावतो धेनु पय स्रवहीं।
ससि सम्पन्न सदा रह धरनी, त्रेता भइ कृतजुग कै करनी।
प्रगटीं गिरिन्ह विविधि मनि खानी, जगदातमा भूप जग जानी।
सरिता सकल बहहिं बर बारी, सीतल अमल स्वाद सुख कारी।
सागर निज मरजादा रहहीं, डारहिं रत्न तटन्हि नर लहहीं।
सर सिज संकुल सकल तड़ागा, अति प्रसन्न दस दिसा विभागा।
बिधु महि पूर मयूखन्हि, रवि तप जेतनहिं काज।
मागें बारिद देहिं जल रामचन्द्र के राज।
वनों में वृक्ष सदा फूलते और फलते हैं। हाथी और शेर वैर भूलकर एक साथ रहते हैं। पक्षी और पशु सभी ने स्वाभाविक बैर भुलाकर आपस में प्रेम बढ़ा लिया है। पक्षी कूज रहे हैं अर्थात मीठे बोल बोलते हैं। भांति-भांति के पशुओं के समूह वन में निर्भय विचरते हैं और आनंद करते हैं। शीतल, मंद सुगंधित पवन चलता रहता है। भौंरे पुष्पों का रस लेकर चलते हुए गुंजार करते हैं। बेलें और वृक्ष मांगने से ही मधुर (मकरंद) टपका देते हैं। गौएं मन चाहा दूध देती हैं। धरती सदा फसलों से भरी रहती है। इस प्रकार त्रेतायुग में सतयुग की स्थिति हो गयी है। समस्त जगत की आत्मा (भगवान) को जगत का राजा जानकर पर्वतों ने अनेक प्रकार की मणियों की खानें प्रकट कर दी हैं। सब नदियां श्रेष्ठ, शीतल, निर्मल और सुख प्रद जल लेकर बह रही हैं। समुद्र अपनी मर्यादा में रहते हैं। वे लहरों के माध्यम से रत्न किनारे पर डाल देते हैं, जिन्हें मनुष्य उठा लेते हैं। सब
तालाब कमल के फूलों से खिले हुए
हैं। दशों दिशाओं के विभाग अर्थात
सभी प्रदेश अत्यंत प्रसन्न हैं। श्रीरामचन्द्र जी के राज्य में चन्द्रमा अपनी अमृतमयी किरणों से पृथ्वी को पूर्ण कर देते हैं।
सूर्य उतना ही तपते हैं जितना जरूरी होता है और मेघ (बादल) जब जहां जितना चाहिए उतना ही पानी
बरसाते हैं।
कोटिन्ह बाजिमेध प्रभु कीन्हें दान अनेक द्विजन्ह कहं दीन्हे।
श्रुति पथ पालक धर्म धुरंधर, गुनातीत अरु भोग पुरंदर।
पति अनुकूल सदा रह सीता, सोभा खानि सुसील बिनीता।
जानति कृपा सिंधु प्रभुताई, सेवति चरन कमल मन लाई।
जद्यपि गृह सेवक सेवकिनी, विपुल सदा सेवा विधि गुनी।
निज कर गृह परिचरजा करई, रामचन्द्र आयसु अनुसरई।
जेहि विधि कृपा सिंधु सुख मानइ, सोइ कर श्री सेवाविधि जानइ।
कौसल्यादि सासु गृह माहीं, सेवइ सबन्हि मान मद नाहीं।
उमा रमा ब्रह्मादि बंदिता, जगदंबा संततमनिंदिता।
राजा रामचन्द्र ने करोड़ों अश्वमेध यज्ञ किये और ब्राह्मणों को दान दिये। श्रीराम जी वेद मार्ग का पालन करने वाले धर्म की धुरा को धारण करने वाले, प्रकृति जन्य सत, रज और तम तीनों गुणों से अतीत और भोगों में इन्द्र के समान हैं। शोभा की खान, विनम्र और सुशील सीता जी सदैव पति के अनुकूल रहती हैं। वे कृपा सागर श्रीराम जी की महिमा को जानती हैं और मन लगाकर उनके चरण कमलों की सेवा करती हैं। यद्यपि घर में बहुत से दास-दासियां हैं और वे सभी सेवा करने में कुशल भी हैं तथापि स्वामी की सेवा का महत्व जानने वाली श्री सीता जी घर की सब सेवा अपने ही हाथों से करती हैं और श्रीरामचन्द्र जी की आज्ञा का पालन करती हैं। कृपा सागर श्रीरामचन्द्र जी जिस प्रकार से सुख मानते हैं सीता जी वही करती हैं क्योंकि वे सेवा की विधि जानती हैं। घर में कौशल्या आदि सभी सासुओं की सीता जी सेवा करती हैं उन्हें किसी बात का अभिमान और मद नहीं है। शिव जी कहते हैं कि हे उमा, जगत जननी रमा (सीता जी) ब्रह्मा आदि देवताओं से वंदित हैं और कभी उनकी निंदा नहीं हुई अर्थात सर्व गुण सम्पन्न हैं। -क्रमशः (हिफी)

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