अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

राम राज्य में सभी सुखी हैं किसी को शोक-संताप नहीं, तब गोस्वामी तुलसीदास जी ने यह क्यों लिखा कि बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका। इसका भी समाधान यहां किया गया है। इस प्रसंग में यही बताया गया है कि रामराज्य में कौन दुखी हैं। अभी तो अयोध्यावासी परम प्रसन्न होकर एक दूसरे से राजा राम के भजन की बात करते हैं-
जलज बिलोचन स्यामल गातहिं, पलक नयन इव सेवक त्रातहिं।
धृत सर रुचिर चाप तूनीरहिं, संत कंज बन रबि रन धीरहिं।
काल कराल ब्याल खगराजहि, नमत राम अकाम ममता जहि।
लोभ मोह मृग जूथ किरातहि, मनसिज करि हरिजन सुख दातहि।
संसय सोक निबिड़ तम भानुहि, दनुज गहन घन दहन कृसानुहि।
जनकसुता समेत रघुबीरहि, कस न भजहु भंजन भव भीरहि।
बहु बासना मसक हिम रासिहि, सदा एक रस अज अविनासिहि।
मुनि रंजन भंजन महि भारहि, तुलसिदास के प्रभुहि उदारहि।
अयोध्या के लोग कहते हैं कि कमल नयन और सांवले शरीर वाले श्रीराम का भजन करो। पलकें जिस प्रकार नेत्रों की रक्षा करती हैं उसी प्रकार अपने सेवकों की रक्षा करने वाले को भजो। सुंदर वाण, धनुष और तरकस
धारण करने वाले को भजो। संत रूपी कमल वन को खिलाने के लिए सूर्य रूप, रणधीर श्रीराम जी को भजो। कालरूपी भयानक सर्प का भक्षण करने वाले श्रीराम रूप गरुड़ को भजो। निष्काम भाव से प्रणाम करते ही ममता का नाश कर देने वाले श्रीराम को भजो। लोभ-मोह रूपी हिरनों के समूह का नाश करने वाले श्रीराम स्वरूप किरात को भजो। कामदेव रूपी हाथी के लिए सिंह रूप तथा सेवकों को सुख देने वाले श्रीराम जी को भजो। संशय और शोक रूपी घने अंधकार का नाश करने वाले श्रीराम रूप सूर्य को भजो। राक्षस रूपी घने वन को जलाने वाले श्रीराम रूप अग्नि को भजो। जन्म-मृत्यु के भय का नाश करने वाले श्री जानकी जी समेत श्री रघुवीर को क्यों नहीं भजते? बहुत सी वासना रूपी मच्छरों को नाश करने वाले श्रीराम रूप हिम राशि (बर्फ के ढेर) को भजो। नित्य, एक रस, अजन्मा और अविनाशी श्री रघुनाथ जी को भजो। मुनियों को आनंद देने वाले, पृथ्वी का भार उतारने वाले तुलसीदास के उदार (दयालु) स्वामी श्रीराम का भजन करो।
एहि विधि नगर नारि नर करहिं राम गुन गान।
सानुकुल सब पर रहहिं संतत कृपा निधान।
जब ते राम प्रताप खगेसा, उदित भयउ अति प्रबल दिनेसा।
पूरि प्रयास रहेउ तिहुं लोका, बहुतेन्ह सुख बहुतन मन सोका।
जिन्हहि सोक ते कहउं बखानी, प्रथम अविद्या निसा नसानी।
अध उलूक जहं तहां लुकाने, काम क्रोध कैरव सकुचाने।
विविध कर्म गुन काल सुभाऊ, ए चकोर सुख लहहिं न काऊ।
मत्सर, मान मोह मद चोरा, इन्ह कर हुनर न कवनिहुं ओरा।
धरम तड़ाग ग्यान विग्याना, ए पंकज विकसे विधि नाना।
सुख संतोष बिराग विवेका, विगत सोक ए कोक अनेका।
यह प्रताप रबि जाके उर जब करइ प्रकास।
पछिले बाढ़हिं प्रथम जे कहे ते पावहिं नास।
इस प्रकार अयोध्या के सभी स्त्री-पुरुष श्रीराम जी का गुणगान करते हैं और कृपा निधान श्रीराम जी सदैव सब पर प्रसन्न रहते हैं। काग भुशुण्डि जी गरुड़ को राम कथा सुनाते हुए कहते हैं कि पक्षी राज गरुड़ जी जब से श्री श्रीराम का अत्यन्त प्रताप रूपी सूर्य उदित हुआ है तब से तीनों लोकों में पूर्ण प्रकाश भर गया है। इससे बहुतों के मन में सुख और बहुतों के मन में शोक भी हुआ है। काग भुशुण्डि जी कहते हैं कि जिनको शोक हुआ है पहले हम उनके बारे में बता रहे हैं। सर्वत्र प्रकाश छा जाने से प्रथम तो अविद्या रूपी रात्रि नष्ट हो गयी है। पाप रूपी उल्लू जहां-तहां छिप गये हैं और काम,
क्रोध रूपी कुमुद मुरझा गये हैं। भांति-भांति के बंधन कारक कर्म, गुण काल और स्वभाव ये सभी चकोर हैं जो राम के प्रताप रूपी प्रकाश में कभी सुख नहीं पाते। मत्सर (डाह), अभिमान, मोह और मद (अहंकार) रूपी चोर है उनका हुनर भी किसी ओर नहीं चल पाता है। धर्म रूपी तालाब में ज्ञान-विज्ञान सरीखे अनेक प्रकार के कमल खिले हुए हैं। सुख संतोष, वैराग्य और विवेक-ये अनेकों चकवे शोक रहित हो गये हैं यह श्रीराम प्रताप रूपी सूर्य जिसके हृदय में जब प्रकाश करता है तब जिनका वर्णन पीछे से किया है अर्थात धर्म, ज्ञान, विज्ञान, सुख, संतोष, वैराग्य और विवेक बढ़ जाते हैं (सुखी होते हैं) और जिनका वर्णन पहले किया गया है अर्थात अविद्या, पाप, काम, क्रोध, कर्म, काल, गुण, स्वभाव आदि नाश को प्राप्त होते हैं।
भ्रातन्ह सहित रामु एक बारा, संग परम प्रिय पवन कुमारा।
संुदर उपवन देखन गए, सब तरु कुसुमित पल्लव नए।
जानि समय सनकादिक आए, तेज पंुज गुन सील सुहाए।
ब्रह्मानंद सदा लयलीना, देखत बालक बहु कालीना।
रूप धरें जनु चारिउ बेदा, सम दरसी मुनि विगत विभेदा।
आसा बसन व्यसन यह तिन्हहीं, रघुपति चरित होइ तहं सुनहीं।
तहां रहे सनकादि भवानी, जहं घटसंभव मुनिवर ग्यानी।
रामकथा मुनिवर बहु बरनी, ग्यान जोनि पावक जिमि अरनी।
देखि राम मुनि आवत हरषि दंडवत कीन्ह।
स्वागत पूंछि पीत पट प्रभु बैठन कहं दीन्ह।
भगवान शंकर पार्वती जी को आगे की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि एक बार भाइयों सहित श्रीरामचन्द्र जी परम प्रिय हनुमान जी को साथ लेकर सुंदर उपवन देखने गये। वहां के सब वृक्ष फूले हुए तथा नये पत्तों से युक्त थे। सुअवसर जानकर सनकादि मुनि आए जो तेज के पंुज, सुंदर गुण और शील से युक्त तथा सदा ब्रह्मानंद में लवलीन रहते हैं। देखने में तो वे बालक लगते हैं लेकिन उनकी उम्र बहुत है। मानों चारों वेद ही बालक का रूप धरे हों। वे मुनि समदर्शी और भेद रहित हैं। दिशाएं ही उनके वस्त्र हैं। उनके एक ही व्यसन हैं कि जहां श्री रघुनाथ जी की चरित्र कथा होती है, वहां जाकर वे उसे अवश्य सुनते हैं। शंकर जी कहते हैं कि हे भवानी, सनकादि मुनि वहां गये थे जहां ज्ञानी मुनि श्रेष्ठ अगस्त्य जी रहते थे। श्रेष्ठ मुनि ने श्रीराम जी की बहुत सी कथाएं वर्णन की थीं, जो ज्ञान उत्पन्न करने में उसी तरह से समर्थ हैं जैसे लकड़ी से अग्नि उत्पन्न होती है। सनकादि मुनि वहां से सीधे अयोध्या आए थे। सनकादि मुनियों को आते देखकर श्रीरामचन्द्र जी ने हर्षित होकर दण्डवत की और स्वागत करते हुए कुशल पूछी। इसके बाद प्रभु ने उनको बैठने के लिए अपना पीताम्बर बिछा दिया। -क्रमशः (हिफी)

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