
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
सनकादि मुनि प्रभु श्रीराम की स्तुति करके और मनचाहा वर प्राप्त कर जब ब्रह्मलोक को चले गये तब सभी भाइयों ने प्रभु श्रीराम को प्रणाम किया। प्रभु श्रीराम भाइयों के साथ उपवन में बैठे हैं। साथ में पवन पुत्र हनुमान जी भी हैं। सभी भ्राता प्रभु के मुख से कुछ सुनना चाहते हैं लेकिन संकोच लग रहा है कि कैसे कहें तो उन्होंने हनुमान से कहा। अन्तर्यामी प्रभु सब जानते हैं लेकिन नर लीला करते हुए हनुमान से पूछते हैं कि हनुमान क्या बात है, कहो। हनुमान जी कहते हैं कि हे प्रभु, भरत जी कुछ पूछना चाहते हैं लेकिन प्रश्न करते सकुचा रहे हैं। प्रभु श्रीराम कहते हैं भरत और मुझमें कोई अंतर ही नहीं है वे जो भी कहना चाहते हैं निश्ंिचत होकर कहें, तब भरत जी ने कहा- हे प्रभु संतों के क्या लक्षण होते हैं, बताइए। प्रभु संतों के लक्षण बताते हैं। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को गये हैं-
सनकादिक विधि लोक सिधाए, भ्रातन्ह राम चरन सिर नाए।
पूछत प्रभुहिं सकल सकुचाहीं, चिववहिं सब मारुत सुत पाहीं।
सुनी चहहिं प्रभु मुख कै बानी, जो सुनि होइ सकल भ्रम हानी।
अंतरजामी प्रभु सभ जाना, बूझत कहहु काह हनुमाना।
जोरि पानि कह तब हनुमंता, सुनहु दीनदयाल भगवंता।
नाथ भरत कछु पूछन चहहीं, प्रस्न करत मन सकुचत अहहीं।
तुम्ह जानहु कपि मोर सुभाऊ, भरतहिं मोहि कछु अंतर काऊ।
सुनि प्रभु बचन भरत गहे चरना, सुनहु नाथ प्रनतारति हरना।
नाथ न मोहि संदेह कछु, सपनेहुं सोक न मोह।
केवल कृपा तुम्हारिहिं कृपानंद संदोह।
सनकादि मुनि ब्रह्मलोक को चले गये, तब भाइयों ने श्रीराम के चरणों में सिर नवाया। सभी भाई प्रभु से पूछते सकुचाते हैं, इसलिए सब हनुमान जी की ओर देख रहे हैं। वे प्रभु के श्रीमुख की वाणी सुनना चाहते हैं जिसे सुनकर सारे भ्रमों का नाश हो जाता है। अन्तर्यामी प्रभु सब जान गये और पूछने लगे कि कहो हनुमान, क्या बात है? तब हनुमान जी हाथ जोड़कर बोले हे दीनदयालु भगवान, सुनिये हे नाथ, भरत जी कुछ पूछना चाहते हैं लेकिन प्रश्न करते मन में सकुचा रहे हैं। भगवान ने कहा, हनुमान, तुम तो मेरा स्वभाव जानते ही हो। भरत के और मेरे बीच कभी भी कोई अंतर (भेद) है? प्रभु के बचन सुनकर भरत जी ने उनके चरण पकड़ लिये और कहा हे नाथ, हे शरणागत के दुखों को दूर करने वाले सुनिए। हे नाथ, न तो मुझे कुछ संदेह है और न स्वप्न में भी शोक और मोह है। हे कृपा और आनंद के समूह यह केवल आपकी ही कृपा का फल है।
करउं कृपानिधि एक ढिठाई, मैं सेवक तुम्ह जन सुखदाई।
संतन्ह कै महिमा रघुराई, बहु विधि वेद पुरानन्ह गाई।
श्रीमुख तुम्ह पुनि कीन्ह बड़ाई, तिन्ह पर प्रभुहि प्रीति
अधिकाई।
सुना चहउं प्रभु तिन्ह कर लच्छन, कृपा सिंधु गुन ग्यान विचच्छन।
संत असंत भेद बिलगाई, प्रनतपाल मोहि कहहु बुझाई।
संतन्ह के लच्छन सुनु भ्राता, अगनित श्रुति पुरान विख्याता।
संत असंतन्हि कै असि करनी, जिमि कुठार चंदन आचरनी।
काटइ परसु मलय सुनु भाई, निज गुन देइ सुगंध बसाई।
ताते सुर सीसन्ह चढ़त जग बल्लभ श्रीखंड।
अनल दाहि पीटत धनहिं परसु बदन यह दंड।
भरत जी कहते हैं तथापि हे कृपा निधान मैं आपसे एक धृष्टता करता हूं। मैं सेवक हूं और आप सेवक को सुख देने वाले हैं। इससे मेरी धृष्टता को क्षमा कीजिए और मेरे प्रश्न का उत्तर देकर सुख दीजिए। हे रघुनाथ जी वेद पुराणों ने संतों की महिमा बहुत प्रकार से गायी है। आपने भी अपने श्रीमुख से उनकी बड़ाई की है और उन पर प्रभु का प्रेम भी बहुत है। हे प्रभो, मैं उनके लक्षण सुनना चाहता हूं। आप कृपा के समुद्र हैं तथा गुण एवं ज्ञान में अत्यंत निपुण हैं। हे शरणागत का पालन करने वाले-संत और असंत का भेद अलग- अलग करके मुझको समझाकर कहिए।
यह सुनकर श्रीराम जी ने कहा हे भाई संतों के लक्षण (गुण) असंख्य हैं जो वेद और पुराणों में प्रसिद्ध है। संत और असंतों की करनी ऐसी है जैसे कुल्हाड़ी और चन्दन का आचरण होता है। हे भाई सुनो, कुल्हाड़ी चन्दन को काटती है क्योंकि उसका स्वभाव या काम ही वृक्षों को काटना है लेकिन चंदन अपने स्वभाव वश अपना गुण (सुगंध) उस काटने वाली कुल्हाड़ी को भी दे देता है। इसी गुण के कारण चन्दन देवताओं के सिर पर चढ़ाया जाता है और जगत का प्रिय हो रहा है और कुल्हाड़ी को यह दण्ड मिलता है कि उसे पहले आग में जलाया (पिघलाया) जाता है फिर उसे धन (लोहे के टुकड़े) से पीटा जाता है।
विषय अलंपट सील गुनाकर, पर दुख दुख सुख सुख देखे पर।
सम अभूतरिपु विमद विरागी, लोभामरष हरष भय त्यागी।
कोमल चित दीनन्ह पर दाया, मन बच क्रम मम भगति अमाया।
सबहि मानप्रद आपु अमानी, भरत प्रान सम मम ते प्रानी।
विगत काम मम नाम परायन, सांति विरति विनती मुदियातन।
सीतलता सरलता मयत्री, द्विज पद प्रीति धर्म जन यत्री।
ए सब लच्छन बसहिं जासु उर, जानेहु तात संत संतत फुर।
सम दम नियम नीति नहिं डोलहिं, परषु बचन कबहूं नहिं बोलहिं।
निंदा अस्तुति उभय सम ममता मम पद कंज।
ते सज्जन मम प्रान प्रिय गुन मंदिर सुख पंुज।
संतों के लक्षण बताते हुए प्रभु श्रीराम कहते हैं कि संत विषयांे में लम्पट (लिप्त) नहीं होते, शील और सद्गुणों की खान होते हैं उन्हे पराया दुख देख कर दुख और पराया सुख देखकर सुख होता है। वे सभी में सर्वत्र और सब समय समता रखते हैं। उनके मन में उनका कोई शत्रु नहीं है। वे मद से रहित और वैराग्यवान होते हैं तथा लोभ, क्रोध हर्ष और भय का त्याग किये हुए रहते हैं उनका चित्त (हृदय) बड़ा कोमल होता है। वे दीनों पर दया करते हैं तथा मन, बचन और कर्म से मेरी निष्कपट भक्ति रखते हैं। सबको सम्मान देते हैं पर स्वयं मान रहित होते हैं। हे भरत, वे प्राणी (संतजन) मेरे प्राणों के समान है। उनकी (संतों की) कोई कामना नहीं होती। वे मेरे नाम के परायण होते हैं। शांति, वैराग्य विनय और प्रसन्नता के घर होते हैं। उनमें शीतलता, सरलता, सभी के प्रति मित्र भाव और ब्राह्मणों के चरणों में प्रीति होती है जो धर्म को उत्पन्न करने वाली है। हे तात, ये सब लक्षण जिसके हृदय मंे बसते हैं उनको सदा सच्चा संत जानना। जो शम (मनका निग्रह) दम (इन्द्रियों का निग्रह), नियम और नीति से कभी विचलित नहीं होते और मुख से कभी कठोर वचन नहीं बोलते, जिन्हें निंदा और स्तुति (बड़ाई) दोनों समान हैं और मेरे चरण कमलों में जिनकी ममता है, वे गुणों के धाम और सुख की राशि संतजन मुझे प्राणों के समान प्रिय होते हैं। -क्रमशः (हिफी)