
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामचरित मानस में राजनीति की बहुत अच्छी शिक्षा दी गयी है। चित्रकूट में भरत जी को समझाते हुए प्रभु श्रीराम ने कहा था-मुखिआ मुखु सो चाहिये खान-पान कहुं एक, पालइ पोषइ सकल अंग तुलसी सहित विवेक-अर्थात राजा को मुख के समान होना चाहिए जो खान-पान के लिए एक जैसा व्यवहार करता है और विवेक के साथ सभी अंगों का पालन करता है। इसी प्रकार प्रभु श्रीराम जब
अयोध्या के सिंहासन पर बैठे तो एक दिन गुरु वशिष्ठ, विप्र गण और
अयोध्या वासियों को बुलाकर कहा कि यदि राजा होते हुए मैं कोई अनीति करूं तो मुझे बिना भय किये ही रोकना। आज देश में जो सरकार चला रहे हैं उनकी कोई आलोचना करे तो उसकी खैर नहीं है। रामचरित मानस की इस शिक्षा का अनुकरण करके ही राम राज्य स्थापित किया जा सकता है। यहां पर इसी प्रसंग को बताया गया है और कहा गया कि मनुष्य का शरीर बड़े भाग्य से मिलता है। अभी तो प्रभु श्रीराम भरत जी को समझा रहे हैं-
सुनहु तात माया कृत गुन अरु दोष अनेक।
गुन यह उभय न देखिअहिं देखिअ सो अविवेक।
श्रीमुख बचन सुनत सब भाई, हरषे प्रेम न हृदयं समाई।
करहिं विनय अति बारहिं बारा, हनूमान हियं हरष अपारा।
पुनि रघुपति निज मंदिर गए, एहि विधि चरित करत नित नए।
बार-बार नारद मुनि आवहिं, चरित पुनीत राम के गावहिं।
नित नव चरित देखि मुनि जाहीं, ब्रह्मलोक सब कथा कहाहीं।
सुनि विरंचि अतिसय सुख मानहिं, पुनि पुनि तात करहु गुन गानहिं।
सनकादिक नारदहिं सराहहिं, जद्यपि ब्रह्म निरत मुनि आहहिं।
सुनि गुन गान समाधि बिसारी, सादर सुनहिं परम अधिकारी।
प्रभु श्रीराम भरत से कहते हैं कि हे तात सुनो, माया से रचे हुए ही अनेक गुण और दोष हैं अर्थात इनकी कोई वास्तविक सत्ता नहीं है। विवेक (ज्ञान) इसी में है कि दोनों ही न देखे जाएं। इन्हें देखना ही अविवेक है। भगवान के श्रीमुख से ये बचन सुनकर सब भाई हर्षित हो गये। प्रेम उनके हृदय में समाता नहीं। वे बार-बार बड़ी बिनती करते हैं, विशेष कर हनुमान जी के हृदय में अपार हर्ष है। इसके बाद श्री रामचन्द्र जी अपने महल को गये। इस प्रकार वे नित्य नई लीला करते हैं। नारद मुनि अयोध्या में बार-बार आते हैं और आकर श्रीराम जी के पवित्र चरित्र गाते हैं। मुनि यहां से नित्य नये-नये चरित्र देखकर जाते हैं और ब्रह्मलोक में जाकर सब कथा कहते हैं। ब्रह्मा जी सुनकर अत्यंत सुख मानते हैं और कहते हैं- हे तात, बार-बार श्रीराम जी के गुणों का गान करो। सनकादि मुनि नारद जी की सराहना करते हैं, यद्यपि वे मुनि ब्रह्मनिष्ठ हैं लेकिन श्रीराम जी का गुणगान सुनकर वे भी अपनी ब्रह्म समाधि को भूल जाते हैं और आदरपूर्वक उसे सुनते हैं। वे राम कथा सुनने के श्रेष्ठ अधिकारी हैं।
जीवन मुक्त ब्रह्म पर चरित सुनहिं तजि ध्यान।
जो हरि कथां न करहिं रति तिन्ह के हिय पाषान।
एक बार रघुनाथ बोलाए, गुर द्विज पुरवासी सब आए।
बैठे गुर मुनि अरु द्विज सज्जन, बोले बचन भगत भव भंजन।
सुनहु सकल पुरजन मम बानी, कहउं न कछु ममता उर आनी।
नहिं अनीति नहिं कछु प्रभुताई, सुनहु करहु जो तुम्हहि सोहाई।
सोइ सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन मानै जोई।
जौं अनीति कछु भाषौं भाई, तौ मोहि बरजहु भय बिसराई।
बड़े भाग मानुष तनु पावा, सुर दुर्लभ सब ग्रंथन गावा।
साधन धाम मोच्छ कर द्वारा, पाइ न जेहिं परलोक संवारा।
सो परत्र दुख पावइ सिर धुनि धुनि पछिताइ।
कालहि कर्महिं ईस्वरहि मिथ्या दोस लगाइ।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सनकादि मुनि जैसे जीवन मुक्त और ब्रह्मनिष्ठ पुरुष भी ध्यान (ब्रह्म समाधि) छोड़कर श्रीराम जी के
चरित्र सुनते हैं यह जानकर भी जो
श्री हरि की कथा से प्रेम नहीं करते, उनके हृदय सचमुच ही पत्थर के समान हैं।
इस प्रकार श्रीराम अयोध्या में राज कर रहे हैं। एक बार श्री रघुनाथ जी के बुलाने पर गुरु वशिष्ठ जी, ब्राह्मण और अन्य नगर निवासी सभा में आए। जब गुरु, मुनि, ब्राह्मण तथा अन्य सब सज्जन यथा योग्य बैठ गये, तब भक्तों के जन्म-मरण को मिटाने वाले श्रीराम जी ने उन्हें संबोधित किया।
श्रीराम जी ने कहा, हे समस्त नगरवासियों, मेरी बात सुनिए। यह बात मैं हृदय में ममता लाकर नहीं कहता हूं, न अनीति की बात कहता हूं और न इसमें कुछ प्रभुता ही है। इसलिए संकोच और भय त्यागकर ध्यान देकर मेरी बात को सुनो और फिर यदि तुम्हें अच्छी लगे तो उसके अनुसार कार्य करो। वही मेरा सेवक है, वही प्रियतम है जो मेरी आज्ञा माने। हे भाई यदि मैं कोई अनीति की बात कहंू तो भय भुलाकर (बे खटके) मुझे रोक देना। प्रभु श्रीराम ने कहा कि बड़े भाग्य से यह मनुष्य का शरीर मिला है। सभी ग्रंथों ने यही कहा है कि यह शरीर देवताओं को भी दुर्लभ है अर्थात उन्हें भी कठिनता से मिलता है। यह शरीर साधन का धाम और मोक्ष का दरवाजा है, इसे पाकर भी जिसने अपना परलोक नहीं संवारा तो वह परलोक में दुख पाता है सिर पीट-पीटकर पछताता है तथा अपनी गलती न समझकर समय, भाग्य और ईश्वर पर मिथ्या दोष लगाता है।
एहि तन कर फल विषय न भाई, स्वर्गउ स्वल्प अंत दुख दाई।
नर तनु पाइ विषय मन देहीं, पलटि सुधा ते सठ विषलेहीं।
ताहि कबहुं भल कहइ न कोई, गुंजा ग्रहइ परस मनि खोई।
आकर चारि लच्छ चैरासी, जोनि भ्रमत यह जिव अविनासी।
फिरत सदा माया कर प्रेरा, काल कर्म सुभाव गुन घेरा।
कबहुंक करि करुना नर देही, देत ईस बिनु हेतु सनेही।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि हे भाई, इस शरीर के प्राप्त होने का फल विषय-भोग नहीं है। इस जगत के भोगों की तो बात ही क्या, स्वर्ग का योग भी बहुत थोड़ा है और अंत में दुख देने वाला है। अतः जो लोग मनुष्य शरीर पाकर विषयों में मन लगा लेते हैं, वे मूर्ख अमृत को बदलकर विष ले लेते हैं, जो पारस मणि को खोकर बदले में घुंघची (गुंजा) ले लेता है उसको कभी कोई बुद्धिमान नहीं कहता। यह अविनाशी जीव अण्डज, स्वेदज, जरायुज और उद्भिज्य के चार खानों और चैरासी लाख योनियों में चक्कर लगाता रहता है। माया की प्रेरणा से काल, कर्म, स्वभाव और गुणों से घिरा अर्थात इनके वश में होकर यह सदा भटकता रहता है। बिना ही कारण स्नेह करने वाले ईश्वर कभी बिरले
ही दया करके इसे मनुष्य का शरीर देते हैं। -क्रमशः (हिफी)