
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम ने अयोध्यावासियों को मनुष्य के शरीर की प्राप्ति और उसके उपयोग के बारे में विस्तार से बताया। अयोध्यावासी उसे सुनकर बहुत प्रसन्न हुए। इसके बाद सभी अपने-अपने घर चले गये, तब वशिष्ठ मुनि प्रभु श्रीराम के पास आये और कहने लगे कि आपका आचरण देखकर मेरे मन में मोह हो रहा है। उन्होंने एक रहस्य बताया और कहा कि मैं आपके परिवार का उपरोहित ब्रह्माजी के कहने से बना था क्योंकि मैं जानता हूं उपरोहित का कर्म बहुत नीच का होता है। गुरु वशिष्ठ ने इस बात की तरफ इशारा किया कि उपरोहितों के बारे में यह माना जाता है कि दूसरे के अशुभ कर्मों को अपने ऊपर ले लेते हैं और अपने यजमान को कष्टों से मुक्ति दिलाते हैं। इसीलिए वशिष्ठ जी उपरोहित नहीं बनना चाहते थे लेकिन ब्रह्मा जी ने कहा कि हे पुत्र, तुम रघुकुल के पुरोहित बनो और आगे चलकर तुम्हें बहुत लाभ मिलेगा क्योंकि परमात्मा ब्रह्म उसी वंश में जन्म लेंगे। वशिष्ठ जी का यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो अयोध्या के लोग अपने राजाराम की प्रशंसा कर रहे हैं-
सब के बचन प्रेम रस साने, सुनि रघुनाथ हृदय हरषाने।
निज निज गृह गए आयसु पाई, बरनत प्रभु बतकही सुहाई।
उमा अवध वासी नर नारि कृतारथ रूप।
ब्रह्म सच्चिदानंद धन रघुनायक जहं भूप।
भगवान शंकर पार्वती जी को रामकथा सुनाते हुए कह रहे हैं कि प्रभु श्रीराम ने जब अयोध्यावासियों के प्रेम से सने बचन सुने तो उनका हृदय बहुत हर्षित हुआ। इसके बाद सभी लोग अपने-अपने घर को चले गये। वे रास्ते में प्रभु श्रीराम की बतकही का वर्णन करते जा रहे थे। हे उमा, अयोध्या में रहने वाले पुरुष और स्त्री सभी कृतार्थ रूप हैं, जहां स्वयं सच्चिदानंद धन ब्रह्म श्री रघुनाथ जी राजा हैं।
एक बार वशिष्ठ मुनि आए, जहां राम सुखधाम सुहाए।
अति आदर रघुनायक कीन्हा, पद पखारि पादोदक लीन्हा।
राम सुनहु मुनि कहकर जोरी, कृपा सिंधु विनती कछु मोरी।
देखि देखि आचरन तुम्हारा, होत मोह मम हृदय अपारा।
महिमा अमिति वेद नहिं जाना, मैं केहि भांति कहउं भगवाना।
उपरोहित्य कर्म अति मंदा, वेद पुरान सुमृति कर निंदा।
जब न लेउं मैं तब विधि मोही, कहा लाभ आगे सुत तोही।
परमात्मा ब्रह्म नर रूपा, होइहि रघुकुल भूषन भूपा।
तब मैं हृदय विचारा जोग्य जग्य व्रत दान।
जा कहुं करिअ सो पैहउं धर्म न एहि सम आन।
शंकर जी पार्वती को इसके आगे की कथा सुनाते हुए कहते हैं कि एक बार मुनि वशिष्ठ जी प्रभु श्रीराम के पास आये। प्रभु श्रीराम ने उनका बहुत आदर सत्कार किया और उनके चरण धोकर चरणामृत लिया। तब मुनि ने हाथ जोड़कर कहा कि हे कृपा सागर श्रीराम जी मेरी कुछ बिनती सुनिए। आपके इन मनुष्योचित आचरणों को देखकर मेरे हृदय में अपार मोह (भ्रम) हो रहा है। हे भगवान आपकी महिमा की सीमा नहीं है, उसे वेद भी नहीं जानते, फिर मैं किस प्रकार कह सकता हूं? पुरोहिती का कर्म (पेशा) बहुत ही नीचा है। वेद, पुराण और स्मृति सभी इसकी निंदा करते हैं। वशिष्ठ जी ने कहा कि जब मैं सूर्यवंश की पुरोहिती का काम नहीं ले रहा था तब ब्रह्मा जी ने मुझसे कहा था-हे पुत्र इससे तुमको आगे चलकर बहुत लाभ मिलेगा। स्वयं ब्रह्म परमात्मा मनुष्य रूप धारण कर रघुकुल के भूषण राजा होंगे, तब मैंने हृदय में विचार किया कि जिसके लिए योग, यज्ञ, व्रत और दान किये जाते हैं, उसे मैं इसी कर्म (उपरोहित्य) से पा जाऊंगा तब तो इसके समान कोई धर्म ही नहीं है।
जप तप नियम जोग निज
धर्मा, श्रुति संभव नाना सुभ कर्मा।
ग्यान दया दम तीरथ मज्जन, जहं लगि धर्म कहत श्रुति सज्जन।
आगम निगम पुरान अनेका, पढ़े सुने कर फल प्रभु एका।
तव पद पंकज प्रीति निरंतर, सब साधन कर यह फल सुंदर।
छूटइ मल कि मलइ के धोएं, धृत कि पाव कोइ बारि बिलोएं।
प्रेम भगति जल बिनु रघुराई, अभिअंतर मल कबहंु न जाई।
सोइ सर्वग्य तग्य सोइ पंडित, सोइ गुन गृह विग्यान अखंडित।
दच्छ सकल लच्छन जुत सोई, जाके पद सरोज रति होई।
नाथ एक बर मागहुं राम कृपा करि देहु।
जन्म जन्म प्रभु पद कमल कबहुं घटै जनु नेहु।
वशिष्ठ जी प्रभु श्रीराम से कह रहे हैं कि जप, तप, नियम, योग, अपने अपने वर्णाश्रम के अनुसार धर्म (कर्तव्य), श्रुतियों से उत्पन्न अर्थात वेद विदित बहुत से शुभ कर्म, ज्ञान, दया, दम (इन्द्रिय निग्रह) तीर्थ स्थान आदि जहां तक वेद और संतजनों ने कहे हैं, उन्हें करने का तथा हे प्रभो अनेक तंत्र, वेद और पुराणों के पढ़ने और सुनने का सर्वोत्तम फल एक ही है और सब साधनों का भी यही एक सुंदर फल है कि आपके चरणों में सदा-सर्वदा प्रेम हो। उन्होंने कहा कि हे प्रभु मैल से धोने से क्या मैल छूटता है? जल के मथने से क्या कोई घी पा सकता है? उसी प्रकार हे श्रीराम प्रेम-भक्ति रूपी निर्मल जल के बिना हृदय का मल कभी नहीं जाता। उन्होंने कहा वही सर्वज्ञ है, वही तत्व को जानने वाला और विद्वान है, वही गुणों का घर और अखण्ड विज्ञानवान है, वही चतुर और सब सुलक्षणों से युक्त हैं, जिसका आपके चरण कमलों में प्रेम है। हे नाथ, हे श्रीरामजी, मैं आपसे एक ही वर मांगता हूं, कृपा करके दीजिए। प्रभु, आपके चरण कमलों में मेरा प्रेम जन्म-जन्मान्तर में भी कभी कम न हो।
अस कहि मुनि वसिष्ट गृह आए, कृपा सिंधु के मन अति भाए।
हनूमान भरतारिक भ्राता, संग लिए सेवक सुखदाता।
पुनि कृपाल पुर बाहेर गए, गजरथ तुरग मगावत भए।
देखि कृपा करि सकल सराहे, दिए उचित जिन्ह जिन्ह तेइ चाहे।
हरन सकल श्रम प्रभु श्रम पाई, गए जहां सीतल अवंराई।
भरत दीन्ह निज बसन डसाई, बैठे प्रभु सेवहिं सब भाई।
मारुत सुत तब मारुत करई, पुलक वपुष लोचन जल भरई।
हनूमान सम नहिं बड़ भागी, नहिं कोउ राम चरन अनुरागी।
ऐसा कहकर मुनि वशिष्ठ जी अपने घर आ गये। उनकी बातें कृपा सागर श्री रामचन्द्र जी को बहुत अच्छी लगीं। इसके बाद सेवकों को सुख देने वाले श्रीराम जी ने हनुमान जी तथा भरत जी आदि भाइयों को अपने साथ लिया और फिर कृपालु श्रीराम नगर के बाहर गये। वहां उन्होंने हाथी, रथ, घोड़े मंगवाए। उन्हें देखकर कृपा करके प्रभु ने सबकी सराहना की और उनको जिस जिसने चाहा, उस-उसको उचित जानकर दे दिया। संसार के सभी श्रमों को हरने वाले प्रभु ने हाथी, घोड़े आदि बांटने में श्रम का अनुभव किया और श्रम मिटाने के लिए वहां गये जहां शीतल आम का बगीचा था। वहां भरत जी ने अपना वस्त्र बिछा दिया, प्रभु उस पर बैठ गये और सब
भाई उनकी सेवा करने लगे। उस
समय हनुमान जी पंखा डुलाने लगे। शंकर जी कहते हैं, हे गिरिजा, हनुमान जी के समान न कोई बड़भागी है
और न कोई श्रीराम जी के चरणों का प्रेमी ही है। -क्रमशः (हिफी)