अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवान शंकर से रामकथा सुनने के बाद पार्वती जी ने पूछा कि प्रभु आप काग भुशुंडि जी के पास गये, उन्हें कौए का रूप केसे मिला और पक्षीराज गरुड़ ने किस प्रकार काग भुशुंडि जी से कथा सुनी। इन सभी प्रश्नों का उत्तर भगवान शंकर दे रहे हैं। सबसे पहले भगवान शिव ने यह बताया कि वे काग भुशुंडि जी के पास कैसे पहुंचे, फिर पक्षीराज गरुड़ की कथा सुनाते हुए कहा कि मैंने जिस प्रकार कथा सुनी, वह बता रहा हूं। इस प्रसंग में शंकर जी ने सती के प्रसंग का उल्लेख किया है।
मैं जिमि कथा सुनी भव मोचनि, सो प्रसंग सुनु सुमुखि सुलोचनि।
प्रथम दच्छ गृह तब अवतारा, सती नाम तब रहा तुम्हारा।
दच्छ जग्य तव भा अपमाना, तुम्ह अति क्रोध तजे तब प्राना।
मम अनुचरन्ह कीन्ह मख भंगा, जानहु तुम्ह सो सकल प्रसंगा।
तब अति सोच भयउ मन मोरे, दुखी भयउं वियोग प्रिय तोरे।
सुन्दर वन गिरि सरित तड़ागा, कौतुक देखत फिरउं बेरागा।
गिरि सुमेर उत्तर दिसि दूरी, नील सैल एक सुंदर भूरी।
तासु कनकमय सिखर सुहाए, चारि चारू मोरे मन भाए।
तिन्ह पर एक-एक बिटप बिसाला, बट पीपर पाकरी रसाला।
सैलोपरि सर सुंदर सोहा, मनि सोपान देखि मन मोहा।
सीतल अमल मधुर जल जलज विपुल बहुरंग।
कूजत कल रव हंस गन गुंजत मंजुल भृंग।
भगवान शिव कहते हैं कि मैंने जिस प्रकार जन्म-मृत्यु के भय को छुड़ाने वाली वह कथा सुनी, हे सुंदर मुख वाली सुलोचनी, वह कथा सुनो। पहले तुम्हारा अवतार प्रजापति दक्ष के घर में हुआ था, तब तुम्हारा नाम सती था। दक्ष के यज्ञ में तुम्हारा अपमान हुआ, तब तुमने अत्यंत क्रोध करके प्राण त्याग दिये थे और फिर मेरे सेवकों ने यज्ञ
विध्वंस कर दिया था वह सारा प्रसंग तुम जानती ही हो। शंकर जी ने कहा कि जब तुमने प्राण त्याग दिये तब मेरे मन में बड़ा सोच हुआ और हे प्रिये मैं तुम्हारे वियोग से दुखी हो गया। मैं विरक्त भाव से सुंदर वन, पर्वत, नदी और तालाबों का कौतुक (दृश्य) देखता फिर रहा था। उसी समय सुमेरु पर्वत की उत्तर दिशा में, और भी दूर एक बहुत ही सुंदर नीला पर्वत है। उसके सुंदर सोने के समान शिखर है। उनमें से चार सुंदर शिखर मुझे बहुत अच्छे लगे। उन शिखरों में एक-एक पर बरगद, पीपल, पाकर और आम का एक-एक विशाल वृक्ष है। पर्वत के ऊपर एक सुंदर तालाब शोभित है जिसकी मणियों की सीढ़ियां देखकर मन मोहित हो जाता है। उसका जल निर्मल, शीतल और मीठा है उसमें रंग-बिरंगे बहुत से कमल खिले हुए हैं। हंसगण मधुर स्वर से बोल रहे हैं और भौंरे सुंदर गुुंजार कर रहे हैं।
तेहिं गिरि रुचिर बसइ खग सोई, तासु नास कल्पांत न होई।
माया कृत गुन दोष अनेका, मोह मनोज आदि अविवेका।
रहे व्याप्त समस्त जग माहीं, तेहि गिरि निकट कबहुं नहिं जाहीं।
तहं बसि हरिहि भजइ जिमि कागा, सो सुनु उमा सहित अनुरागा।
पीपर तरु तर ध्यान सो धरई, जाप जग्य पाकरि तरु करई।
आंव छांह कर मानस पूजा, तजि हरि भजनु काजु नहिं दूजा।
बर तर कह हरि कथा प्रसंगा, आवहिं सुनहिं अनेक विहंगा।
रामचरित विचित्र विधि नाना, प्रेम सहित कर सादर गाना।
सुनहिं सकल मति बिमल मराला, बसहिं निरंतर जे तेहिं ताला।
जब मैं जाइ सो कौतुक देखा, उर उपजा आनंद विसेषा।
तब कछु काल मराल तनु
धरि तहं कीन्ह निवास।
सादर सुनि रघुपति गुन पुनि आयउं कैलास।
भगवान शंकर जी उस सुंदर पर्वत के बारे में पार्वती जी को बता रहे हैं। उसी सुंदर पर्वत पर वही पक्षी (काग भुशुंडि) बसता है। उसका नाश कल्प के अंत में भी नहीं होता। माया रचित अनेक गुण-दोष, मोह-काम आदि अविवेक जो सारे जगत में छा रहे है, उस पर्वत के पास में भी नहीं फटकते। वहां बसकर जिस प्रकार वह कौआ भगवान (हरि) की पूजा करता है उसे प्रेम सहित सुनो। वह (काग) पीपल के वृक्ष के नीचे ध्यान लगाता है पाकर के नीचे जप-यज्ञ करता है, आम की छाया में मानसिक पूजा करता है। श्री हरि के भजन को छोड़कर उसे दूसरा कोई काम नहीं है। बरगद के नीचे वह श्री हरि की कथा सुनाता है। वहां अनेक पक्षी आते हैं और कथा सुनते हैं वह विचित्र रामचरित को अनेक प्रकार से प्रेम सहित आदरपूर्वक गाकर सुनाता है। सभी निर्मल बुद्धि वाले हंस, जो सदा उस तालाब में रहते हैं उस कथा को सुनते हैं। भगवान शंकर पार्वती से कहते हैं कि जब मैंने वहां जाकर यह कौतुक (आश्चर्य) देखा तब मेरे हृदय में विशेष आनंद उत्पन्न हुआ, तब मैंने हंस का शरीर धारण कर वहां कुछ समय तक निवास किया। श्री रघुनाथ के गुणों को आदर सहित सुनकर कैलाश लौट आया।
गिरिजा कहेउं सो सब इतिहासा, मैं जेहि समय गयउं खग पासा।
अब सो कथा सुनहु जेहि हेतू, गयउ काग पहिं खग कुल केतू।
जब रघुनाथ कीन्ह रन क्रीड़ा, समुझत चरित होति मोहि ब्रीड़ा।
इंद्रजीत कर आपु बंधायो, तब नारद मुनि गरुड़ पठायो।
बंधन काटि गयो उरगादा, उपजा हृदयं प्रचण्ड विषादा।
प्रभु बंधन समुझत बहु भांती, करत बिचार उरग आराती।
व्यापक ब्रह्म विरज वागीसा, माया मोह पार परमीसा।
सो अवतार सुनेउं जग माही, देखउं सो प्रभाव कछु नाहीं।
भव बंधन ते छूटहिं नर जपि जाकर नाम।
खर्ब निसाचर बांधेउ नागपास सोइ राम।
भगवान शंकर कहते हैं कि हे गिरिजे मैंने वह सब इतिहास कहा है जिस समय मैं काग भुशुंडि जी के पास गया था। अब वह कथा सुनो जिस कारण पक्षि कुल के ध्वजा गरुड़ जी उस काग के पास गये थे। शिव जी कहते हैं कि जब श्री रघुनाथ जी ने ऐसी रणलीला की जिस लीला का स्मरण करके मुझे लज्जा आती है वह लीला ये थी कि प्रभु ने मेघनाद के हाथों अपने को बंधा लिया, तब नारद मुनि ने गरुड़ को भेजा। सर्पों के भक्षक गरुड़ जी नागों के बंधन काट कर चले गये तब गरुड़ के मन में भारी विषाद उत्पन्न हुआ। प्रभु के बंधन का स्मरण करके सर्पों के शत्रु गरुड़ जी बहुत प्रकार से विचार करने लगे। वे सोचने लगे कि जो व्यापक, विकार रहित वाणी के पति और माया-मोह से परे परमेश्वर हैं मैंने सुना था कि जगत में उन्होंने अवतार
लिया है, पर मैंने उस अवतार का
प्रभाव कुछ भी नहीं देखा। गरुड़ सोचने लगे कि जिनका नाम जपकर मनुष्य संसार के बंधन से छूट जाते हैं, उन्हीं राम को एक तुच्छ राक्षस ने नागपाश मंे बाधां? -क्रमशः (हिफी)

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