अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

गयउ गरुड़ जहं बसइ भुसुंडा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

भगवान शंकर पार्वती जी को काग भुशुंडि और गरुड़ जी के मिलन की कहानी बता रहे हैं। उन्होंने पार्वती से कहा कि तुमने जो पूछा था कि गरुड़ जी ने संतों के समूह को छोड़कर कौए से कथा क्यों सुनी तो इसका कारण था कि भगवान गरुड़ के मोह को दूर करना चाहते थे। अपने से काफी नीच पक्षी के सामने हाथ जोड़कर उन्हें जाना पड़ा था। शिव जी ने इसका एक कारण यह भी बताया कि पक्षी ही पक्षी को ज्यादा बेहतर समझा सकता है। इसलिए गरुड़ को काग भुशुंडि जी के पास भेजा। यही प्रसंग यहां बताया गया है। गरुड़ जी वहां पहुंच गये जहां काग भुशंडि जी श्रीराम की कथा सुनाते हैं। अभी तो शंकर जी गरुड़ को समझा रहे हैं-
मिलहिं न रघुपति बिनु अनुरागा, किए जोग तप ग्यान विरागा।
उत्तर दिसि सुंदर गिरि नीला, तहं रह काक भुशुंडि सुसीला।
राम भगति पथ परम प्रवीना, ग्यानी गुन गृह बहुकालीना।
रामकथा सो कहइ निरंतर, सादर सुनहिं विविध विहंगवर।
जाइ सुनहु तहं हरि गुन भूरी, होइहि मोह जनित दुख दूरी।
मैं जब तेहि सब कहा बुझाई, चलेउ हरषि मम पद सिरुनाई।
ताते उमा न मैं समुझावा, रघुपति कृपा मरमु मैं पावा।
होइहि कीन्ह कबहुं अभिमाना, सो खोवै चह कृपानिधाना।
कछु तेहि ते पुनि मैं नहिं राखा, समुझइ खग खगही कै भाषा।
प्रभु माया बलवंत भवानी, जाहि न मोह कवन अस ग्यानी।
ग्यानी भगत सिरोमनि त्रिभुवन पति कर जान।
ताहि मोह माया नर पावँर करहिं गुमान।
शंकर जी पक्षीराज गरुड़ को समझाते हैं कि बिना प्रेम के केवल योग, तप, ज्ञान और वैराग्य आदि के करने से श्री रघुनाथ जी नहीं मिलते, इसलिए तुम सत्संग के लिए वहां जाओ। काग भुशंुडि जी के आश्रम का पता बताते हुए शंकर जी ने कहा कि उत्तर दिशा में एक सुंदर नील पर्वत है, वहीं पर परम सुशील काग भुशुंडि जी रहते हैं। वे राम भक्ति के मार्ग में परम प्रवीण हैं, ज्ञानी हैं, गुणों के धाम हैं और बहुत काल (समय) के हैं। वे निरंतर श्रीराम की कथा कहते रहते हैं जिसे भांति-भांति के श्रेष्ठ पक्षी आदर के साथ सुनते हैं। वहां जाकर श्री हरि के गुण समूहों को सुनो। उनके सुनने से मोह के कारण उत्पन्न तुम्हारा दुख दूर हो जाएगा। शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि मैंने उन्हें जब सब समझाकर कहा तब वह मेरे चरणों में सिर नवाकर हर्षित होकर चला गया। हे उमा, मैंने उसको इसीलिए नहीं समझाया कि मैं श्री रघुनाथ जी की कृपा से उसका भेद समझ गया था। उसके कभी अभिमान किया होगा, जिसको कृपा निधान श्री रघुनाथ जी नष्ट करना चाहते हैं फिर कुछ इस कारण भी मैंने उसको अपने पास नहीं रखा कि पक्षी दूसरे पक्षी की बोली ही समझते हैं। हे भवानी, प्रभु की
माया बड़ी ही बलवती है, ऐसा कौन ज्ञानी है जिसे वह न मोह लेती हो? जो ज्ञानियों में और भक्तों में शिरोमणि है एवं त्रिभुवन पति भगवान के
वाहन हैं, उन गरुड़ को भी भगवान की माया ने मोह लिया फिर भी नीच मनुष्य मूर्खतावश घमंड किया
करते हैं।
सिव बिरंचि को मोहइ को है बपुरा आन।
अस जिय जानि भजहिं मुनि मायापति भगवान।
गयउ गरुड़ जहं बसइ भुसुंडा, मति अकुंठ हरि भगति अखंडा।
देखि सैल प्रसन्न मन भयऊ, माया मोह सोच सब गयऊ।
करि तड़ाग मज्जन जल पाना, बट तर गयउ हृदय हरषाना।
वृद्ध वृद्ध बिहंग तहं आए, सुनै राम के चरित सुहाए।
कथा अरंभ करै सोइ चाहा, तेही समय गयउ खग नाहा।
आवत देखि सकल खगराजा, हरषेउ वायस सहित समाजा।
अति आदर खगपति कर कीन्हा, स्वागत पूछि सुआसन दीन्हा।
करि पूजा समेत अनुरागा, मधुर बचन तब बोलेउ कागा।
नाथ कृतारथ भयउं मैं तव दरसन खगराज।
आयसु देहु सो करौं अब प्रभु आयहु केहि काज।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि वह माया जब शिवजी और ब्रह्मा जी को भी मोह लेती है तब दूसरा बेचारा क्या चीज है। मन में ऐसा जान कर ही मुनि लोग उस माया के स्वामी भगवान का भजन करते हैं।
शंकर जी पार्वती को आगे की कथा सुना रहे हैं। वे कहते हैं कि हे पार्वती तब गरुड़ जी वहां गये जहां निर्बाध बुद्धि और पूर्ण भक्ति वाले काग भुशुंडि जी बसते थे। उस पर्वत को देखकर गरुड़ जी का मन प्रसन्न हो गया और उसके दर्शन से ही सब माया, मोह तथा चिंता चली गयी। शंकर जी ने पार्वती जी को यह पहले ही बताया था कि काग भुशुंडि जी जहां बसते हैं उस पर्वत के पास माया-मोह फटकते ही नहीं हैं। इसी का प्रमाण गरुड़ जी को मिल गया। गरुड़ जी ने उस तालाब में स्नान और जलपान किया, तब प्रसन्न मन से वट वृक्ष के नीचे गये। वहां श्रीराम जी का चरित्र सुनने के लिए बूढ़े-बूढ़े पक्षी आये हुए थे। काग भुशंुडि जी कथा आरम्भ करना ही चाहते थे कि उसी समय पक्षीराज गरुड़ जी वहां जा पहुंचे। पक्षियों के राजा गरुड़ जी को देखकर कागभुशुंडि जी समेत सारा पक्षी समाज हर्षित हुआ। उन्होंने पक्षीराज गरुड़ का बहुत आदर सत्कार किया और कुशल पूछकर बैठने के लिए सुंदर आसन दिया। इसके बाद प्रेम सहित पूजा करके काग भुशुंडि जी ने मधुर बचन बोले-हे नाथ, हे पक्षीराज, आपके दर्शन से मैं कृतार्थ हो गया हूं। आप जो आज्ञा दें अब मैं वही करूं? हे नाथ आप किस कार्य के लिए यहां आए हैं?
सदा कृतारथ रूप तुम्ह, कह मृदु बचन खगेस।
जेहि के अस्तुति सादर निज मुख कीन्हि महेस।
सुनहु तात जेहि कारन आयउं, सो सब भयउ दरस तव पायउं।
देखि परम पावन तव आश्रम, गयउ मोह संसय नाना भ्रम।
पक्षीराज गरुड़ जी ने तब बहुत ही कोमल वाणी में कहा, आप तो सदा ही कृतार्थ रूप हैं, जिनकी प्रशंसा स्वयं महादेव जी ने आदरपूर्वक की है। हे तात, सुनिए मैं जिस कारण से आया था, वह सब कार्य तो यहां आते ही पूरा हो गया, फिर आपके दर्शन भी प्राप्त हो गये। आपका परम पवित्र आश्रम देखकर ही मेरा मोह, संदेह और
अनेक प्रकार के भ्रम सब समाप्त हो गये हैं। -क्रमशः (हिफी)

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