अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

श्री मद बक्र न कीन्ह केहि

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

गरुड़ जी ने जब काग भुशुंडि से श्रीराम की कथा सुन ली तब कहा कि मेरे अंदर जो मोह पैदा हुआ था वह हितकर साबित हुआ और मुझे संुदर कथा सुनने को मिली। यह सुनकर काग भुशुंडि जी बहुत हर्षित हुए शंकर जी पार्वती से कहते हैं कि सुंदर बुद्धि वाले कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन गोपनीय रहस्य भी प्रकट कर देते हैं। मोह तो ज्ञानी, तपस्वी और श्रेष्ठ मुनियों को भी अपने वश में कर लेता है, उसी तरह जैसे लक्ष्मी का घमंड किसकों नहीं होता और बड़प्पन पाकर लोग किसी की सुनते नहीं हैं। गुण और अवगुण तो सभी में पाए जाते हैं। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो गरुड़ जी काग भुशुंडि जी की तारीफ कर रहे हैं-
सुनतेउं किमि हरि कथा सुहाई, अति विचित्र बहुबिधि तुम्ह गाई।
निगमागम पुरान मत एहा, कहहिं सिद्ध मुनि नहिं संदेहा।
संत विसुद्ध मिलहिं परि तेही, चितवहिं राम कृपा करि जेही।
राम कृपा तव दरसन भयऊ, तव प्रसाद सब संसय गयऊ।
सुनि बिहंगपति बानी सहित विनय अनुराग।
पुलक गात लोचन सजल मन हरषेउ अति काग।
श्रोता सुमति सुसील सुचि कथा रसिक हरिदास।
पाइ उमा अति गोप्यमपि सज्जन करहिं प्रकास।
गरुड़ जी कहते हैं कि यदि आप नहीं मिलते तो मैं कैसे यह सुंदर हरिकथा सुनता जो आपने बहुत प्रकार से गायी है। वेद, शास्त्र और पुराणांे का यही मत है। सिद्ध और मुनि भी यही कहते हैं। इसमें संदेह नहीं कि शुद्ध संत उसी को मिलते हैं जिसे श्रीराम जी कृपा करके देखते हैं। श्रीराम जी की कृपा से मुझे आपके दर्शन हुए और आपकी कृपा से मेरा संदेह चला गया। पक्षीराज गरुड़ की विनय और प्रेमयुक्त वाणी सुनकर काग भुशुंडि जी का शरीर पुलकित हो गया। उनके नेत्रों मेें जल भर आया और वे मन में अत्यंत हर्षित हुए।
भगवान शंकर पार्वती से कहते हैं कि हे उमा, सुंदर बुद्धि वाले, सुशील पवित्र कथा के प्रेमी और हरि के सेवक श्रोता को पाकर सज्जन अत्यंत गोपनीय रहस्य को भी प्रकट कर देते हैं। काग भुशुंडि ने भी इसी प्रकार के रहस्य गरुड़ जी के सामने प्रकट कर दिये। यह प्रसंग आगे बताया जाएगा। अभी तो काग भुशुंडि जी गरुड़ को मोह और माया के बारे में बता रहे हैं।
बोलेउ काक भसुंड बहोरी, नभगनाथ पर प्रीति न थोरी।
सब विधि नाथ पूज्य तुम्ह मेरे, कृपा पात्र रघुनायक केरे।
तुम्हहि न संसय मोह न माया, मो पर नाथ कीन्हि तुम्ह दाया।
पठइ मोह मिस खगपति तोही, रघुपति दीन्हि बड़ाई मोही।
तुम्ह निज मोह कही खगसाईं, सो नहिं कछु आचरज गोसाईं।
नारद भव विरंचि सनकादी, जे मुनि नायक आतमबादी।
मोह न अंध कीन्ह केहि केही, को जग काम नचाव न जेही।
तृष्नां केहि न कीन्ह बौराहा, केहि कर हृदय क्रोध नहिं दाहा।
ग्यानी तापस सूर कवि कोविद गुन आगार।
केहि कै लोभ विडंबना कीन्हि न एहिं संसार।
श्री मद बक्र न कीन्ह केहि प्रभुता बधिर न काहि।
मृगलोचनि के नैन सर को अस लाग न जाहि।
काग भुशुंडि जी ने कहा हे पक्षीराज आप पर रघुनायक जी का प्रेम बहुत अधिक है। आप सब प्रकार से मेरे पूज्य हैं और श्री रघुनायक जी के कृपा पात्र हैं। आपको न तो संदेह है और न मोह अथवा माया ही है। हे नाथ, आपने तो मुझ पर दया की है। हे पक्षीराज, मोह के बहाने श्री रघुनाथ जी ने आपको यहां भेजकर मुझे बड़ाई दी है। हे पक्षियों के स्वामी आपने अपना मोह कहा सो हे गोसाईं यह कुछ आश्चर्य नहीं है। नारद जी, शिव जी, ब्रह्मा जी और सनकादि जो आत्मबल के मर्मज्ञ और उसका उपदेश करने वाले श्रेष्ठ मुनि है, उनमें भी किस किसको मोह ने अंधा अर्थात विवेक शून्य नहीं किया? जगत में ऐसा कौन है जिसे काम ने नचाया न हो? तृष्णा ने किसको मतवाला नहीं बनाया? और क्रोध ने किसका हृदय नहीं जलाया? इस संसार में ऐसा कौन ज्ञानी तपस्वी, शूरवीर, कवि, विद्वान और गुणों का धाम है, जिसकी मोह ने मिट्टी न पलीद कर दी हो अर्थात विडम्बना की स्थिति में न डाला हो। लक्ष्मी (धन) के घमंड में कौन टेढ़ा नहीं हो जाता और प्रभुता ने किसको बहरा नहीं कर दिया अर्थात वह दूसरे की बात नहीं सुनता। ऐसा कौन है जिसे मृगनयनी (हिरण के नेत्रों के समान सुंदर नवयुवती) के नयन वाण नहीं लगे हों?
गुन कृत सन्यपात नहिं केही, कोउ न मान मद तजेउ निबेही।
जोबन ज्वर केहि नहिं बलकावा, ममता केहिकर जस न नसावा।
मच्छर काहि कलंक न लावा, काहि न सोक समीर डोलावा।
चिंता सांपिनि को नहिं खाया, कोजग जाहि न व्यापी माया।
कीट मनोरथ दारु सरीरा, जेहि न लाग घुन को अस धीरा।
सुत वित लोक ईषना तीनी, केहि कै मति इन्ह कृत न मलीनी।
यह सब माया कर परिवारा, प्रबल अमित को बरनै पारा।
सिव चतुरानन जाहि डेराहीं, अपर जीव केहि लेखे माहीं।
व्यापि रहेउ संसार महुं माया कटक प्रचंड।
सेनापति कामादि भट, दंभ कपट पाषंड।
सो दासी रघुवीर कै समुझें मिथ्या सोपि।
छूट न राम कृपा बिनु नाथ कहउं पद रोपि।
काग भुशुंडि जी गरुड़ से कहते हैं कि रज, तम आदि गुणों का किया हुआ सन्निपात किसे नहीं हुआ? ऐसा कोई नहीं है जिसे मान और मद ने अछूता छोड़ा हो। जवानी (यौवन) के ज्वर ने किसे आपे से बाहर नहीं किया? ममता ने किसके यश का नाश नहीं किया? मत्सर (डाह) ने किसको कलंक नहीं लगाया? शोक रूपी पवन ने किसे नहीं हिला दिया? चिंता रूपी सांपिन ने किसे नहीं खा डाला? जगत में ऐसा कौन है जिसे माया न व्यापी हो। हमारा शरीर लकड़ी के समान है और हमारी इच्छाएं (मनोरथ) कीड़ा के समान हैं। ऐसा
धैर्यवान कौन है जिसके शरीर में यह घुन (कीड़ा) न लगा हो? पुत्र की, धन की और लोक प्रतिष्ठा की-इन तीन प्रबल इच्छाओं ने किसकी बुद्धि को मलिन नहीं कर दिया? इस प्रकार यह सब माया का बड़ा बलवान परिवार है। यह अपार है। इसका वर्णन कौन कर सकता है? शिव जी और ब्रह्मा जी भी जिससे डरते हैं तब दूसरे जीव किस गिनती में हैं? माया की प्रचण्ड सेना संसार भर में फैली हुई है। कामादि अर्थात काम, क्रोध और लोभ उसके सेनापति है और दम्भ, कपट व पाखण्ड योद्धा है। वह माया श्री रघुवीर जी की दासी है। यद्यपि समझ लेने पर वह मिथ्या ही है लेकिन वह श्रीराम जी की कृपा के बिना छूटती नहीं है। हे नाथ (गरुड़ जी) मैं यह बात पैर रोपकर अर्थात प्रतिज्ञा करके कह रहा हूं। -क्रमशः (हिफी)

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