
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
उमा राम गुन गूढ़, पंडित मुनि पावहिं बिरति।
पावहिं मोह बिमूढ़ जे, हरि विमुख न धर्मरति।
पुरनर भरत प्रीति मैं गाई, मति अनरूप अनूप सुहाई।
अब प्रभु चरित सुनहु अति पावन, करत जे बन सुरनर मुनि भावन।
एक बार चुनि कुसुम सुहाए, निज कर भूषन राम बनाए।
सीतहि पहिराए प्रभु सादर, बैठे फटिक सिला पर सुंदर।
सुरपति सुत धरि बायस भेषा, सठ चाहत रघुपति बल देखा।
जिमि पिपीलिका सागर थाहा, महामंद मति पावन चाहा।
सीता चरन चोंच हति भागा, मूढ़ मंद मति कारन कागा।
चला रूधिर रघुनायक जाना, सींक धनुष सायक संघाना।
अति कृपाल रघुनायक सदा दीन पर नेह।
ता सन आइ कीन्ह छलु मूरख अवगुन गेह।
भगवान शिव पार्वती जी को प्रभु श्रीराम की कथा सुना रहे हैं। वे कहते हैं हे पार्वती श्रीरामजी के गुण गूढ़ हैं, पंडित और मुनि उन्हें समझकर वैराग्य प्राप्त करते हैं लेकिन जो भगवान से विमुख हैं और जिनका धर्म में प्रेम नहीं है वे महामूढ़ (मूर्ख) श्रीराम के गुण सुनकर मोह ग्रस्त हो जाते हैं। इसी तरह की एक कथा आगे भगवान शिव पार्वती जी को सुनाते हुए कहते हैं कि अयोध्या के लोगों और भरत जी के अनुपम और सुंदर पे्रम को मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार सुनाया है, अब देवता, मनुष्य और मुनियांे के मन को अच्छे लगने वाले प्रभु श्रीरामचन्द्र जी के अत्यंत पवित्र चरित्र सुनो, जो वे वन में कर रहे हैं। शंकर जी कहते हैं कि एक बार सुंदर फूल चुनकर श्रीराम ने अपने हाथों से भांति-भांति के गहने बनाए और सुंदर स्फटिक शिला पर बैठे हुए प्रभु ने आदर के साथ वे गहने सीता जी को पहना दिये। उसी समय देवराज इन्द्र का मूर्ख पुत्र जयंत कौए का रूप धरकर श्रीरामचन्द्र जी का बल देखना चहता है, जैसे महान मंद बुद्धि चींटी समुद्र की थाह पाना चाहती हो। वह मूढ़ (मूर्ख) मंद बुद्धि कारण से कौआ बना हुआ जयंत सीता जी के चरणों में चोंच मारकर भागा, जब रक्त बहने लगा तब रघुनाथ जी ने जाना और धनुष पर सींक (सरकंडे) का वाण चढ़ाकर उसकी तरफ चला दिया। शंकर जी कहते हैं कि वह रघुनाथ जो अत्यंत ही कृपालु हैं और जिनका दीनों पर सदैव प्रेम रहता है, उनके साथ अवगुणों के घर, मूर्ख जयंत ने छल किया।
प्रेरित मंत्र ब्रह्मसर धावा, चला भाजि बायस भय पावा।
धरि निज रूप गयउ पितु पाहीं, राम विमुख राखा तेहि नाहीं।
भा निरास उपजी मन त्रासा, जथा चक्र भय रिषि दुर्बासा।
ब्रह्म धाम सिवपुर सब लोका, फिरा श्रमित व्याकुल भय सोका।
काहूं बैठन कहा न ओही, राखि को सकइ राम कर द्रोही।
मातु मृत्यु पितु समन समाना, सुधा होइ विष सुनु हरिजाना।
मित्र करइ सत रिपु कै करनी, ता कहं बिबुध नदी बैतरनी।
सब जगु ताहि अनलहु ते ताता, जो रघुबीर विमुख सुनु भ्राता।
नारद देखा विकल जयंता, लागि दया कोमल चित संता।
पठवा तुरत राम पहिं ताही, कहेसि पुकारि प्रनत हित पाही।
भगवान शंकर और पार्वती जी के बीच हुए इस संवाद को काग भुशुण्डि जी गरूण जी को भी सुना रहे हैं। कागभुशुंडि जी गरुण से कहते हैं कि मंत्र से प्रेरित होकर वह ब्रह्म बाण दौड़ा। कौआ भयभीत होकर भागा। अपना असली रूप धारण कर पिता इन्द्र के पास गया लेकिन श्रीराम जी का
विरोधी जानकर इन्द्र ने उसको अपने पास नहीं रहने दिया, तब वह निराश हो गया, उसके मन में भय उत्पन्न हो गया, जैसे दुर्बासा ऋषि को चक्र से भय हुआ था। वह ब्रह्मलोक, शिवलोक आदि समस्त लोकों से थका हुआ और भय व शोक से व्याकुल होकर भाग रहा था। उसको शरण देने की तो बात ही दूर किसी ने बैठने तक के लिए नहीं कहा, श्रीराम जी के द्रोही को कौन रख सकता है। काग भुशुण्डि जी कहते हैं हे गरूण सुनिए, उसके लिए माता मृत्यु के समान, पिता यमराज के समान और अमृत विष के समान हो जाता है, मित्र सैकड़ों शत्रुओं के समान करनी करने लगता है। देव नदी गंगा जी उसके लिए वैतरणी (यमपुर की नदी) हो जाती है, हे भाई (गरूण) सुनिए जो श्री रघुनाथ जी के विमुख होता है समस्त जगत उसके लिए आग से भी अधिक गरम (जलाने वाला) हो जाता है। उस समय व्याकुल जयंत को महामुनि
नारद ने देखा तो उन्हें दया आ गयी क्योंकि संतों का हृदय बड़ा कोमल होता है। नारद जी ने उसकी दशा को समझकर उसे प्रभु श्रीराम के पास ही भेज दिया। उसने वहां पहुंचकर पुकारा हे शरणागत के हितकारी मेरी रक्षा कीजिए। -क्रमशः (हिफी)