अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

देखेउँ बहु ब्रह्माण्ड निकाया

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

काग भुशुंडि जी पक्षीराज गरुड़ को अपने मोह की कथा सुना रहे हैं। राजा दशरथ के आंगन में वे प्रभु श्रीराम के शिशु रूप से क्रीड़ा कर रहे थे। इसी बीच उन्हें मोह हो गया कि ये तो
साधारण बच्चे की तरह व्यवहार कर रहे हैं। कागभुशुंडि जी के मन में इतना मोह आते ही भगवान ने अपनी भुजा उन्हें पकड़ने के लिए आगे बढ़ाई और कागभुशुंडि जी जहां तक उड़ सकते थे, वहां तक उन्हें वह भुजा अपने पीछे दिखी, तब वे थक गये और फिर से अयोध्या वापस आ गये। प्रभु श्रीराम उन्हें देखकर मुस्कराए और उनके हंसते ही कागभुशुंडि जी प्रभु के उदर (पेट) के अंदर चले गये। वहां कागभुशुंडि जी ने तमाम ब्रह्माण्ड देखे। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी भाग-भाग कर थक गये हैं-
मूदेउँ नयन त्रसित जब भइऊँ, पुनि चितवत कोसलपुर गयऊँ।
मोहि बिलोकि राम मुसुकाहीं, बिहँसत तुरत गयउँ मुख माही।
उदर माझ सुनु अंडज राया, देखेउँ वहु ब्रह्माण्ड निकाया।
अति बिचित्र तहं लोक अनेका, रचना अधिक एक ते एक।
कोटिन्ह चतुरानन गौरीसा, अगनित उडगन रबि रजनीसा।
अगनित लोकपाल जम काला, अगनित भूधर भूमि बिसाला।
सागर सरि सर बिपिन अपारा, नाना भांति सृष्टि बिस्तारा।
सुर मुनि सिद्ध नाग नर किन्नर, चारि प्रकार जीव सचराचर।
जो नहिं देखा नहिं सुना जो मनहूँ न समाइ।
सो सब अद्भुत देखेउँ बरनि कवनि बिधि जाइ।
एक एक ब्रह्माण्ड महुँ रहउँ बरस सत एक।
एहि विधि देखत फिरउँ मैं अंड कटाह अनेक।
काग भुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, जब मैं उड़ते-उड़ते और अपने पीछे श्रीराम की भुजा को देखकर भयभीत हो गया तो मैंने आंखें बंद कर लीं, फिर आंखें खोल कर देखा तो मैंने अपने को उसी अयोध्या में मौजूद पाया। मुझे देखते ही श्रीराम जी मुस्कराने लगे। हँसते हुए उनका जब मुख खुला तो मैं सीधे उनके मुख में अनायास प्रवेश कर गया। हे पक्षीराज सुनिए, मैंने श्रीराम के उदर (पेट) में बहुत से ब्रह्माण्डों के समूह देखे। वहां उन ब्रह्माण्डों में अनेक प्रकार के लोक थे अर्थात् ब्रह्माण्डों में भी ब्रह्माण्ड समाये हुए थे। उनकी रचना एक से बढ़कर एक थी। वहां करोड़ों ब्रह्माजी और शिवजी, अनगिनत तारागण, सूर्य और चन्द्रमा, अनगिनत लोकपाल, यम और काल, अनगिनत विशाल पर्वत और भूमि, असंख्य समुद्र, नदी, तालाब और वन तथा और भी नाना प्रकार की सृष्टि का विस्तार देखा। देवता, मुनि, सिद्ध, नाग, मनुष्य किन्नर तथा चारों प्रकार के जड़ और चेतन जीव देखें। हे गरुड़ जी, मैंने जो कभी न देखा था, न सुना था और जो मन में भी नहीं आ सकता था अर्थात् जिसकी कभी कल्पना भी मैंने नहीं की होगी, वही सब अद्भुत सृष्टि मैंने उस बालक के पेट में देखी। इसका वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं एक-एक ब्रह्माण्ड में एक-एक सौ वर्ष तक रहा, इस प्रकार मैं अनेक ब्रह्माण्ड देखता रहा।
लोक लोक प्रति भिन्न विधाता, भिन्न विष्नु सिव मनु दिसि त्राता।
नर गंधर्ब भूत बेताला, किन्नर निसिचर पसु खग व्याला।
देव दनुज गन नाना जाती, सकल जीव तहँ आनहिं भांती।
महि सरि सागर सर गिरि नाना, सब प्रपंच तहं आनइ आना।
अंडकोस प्रति प्रति निज रूपा, देखेउँ जिनस अनेक अनूपा।
अवधपुरी प्रति भुवन निनारी, सरजू भिन्न भिन्न नर नारी।
दसरथ कौसल्या सुनु ताता, विविध रूप भरतादिक भ्राता।
प्रति ब्रह्माण्ड राम अवतारा, देखउँ बालबिनोद अपारा।
भिन्न भिन्न मैं दीख सबु अति बिचित्र हरिजान।
अगनित भुवन फिरेउँ प्रभु राम न देखेउँ आन।
सोइ सिसुपन सोइ सोभा, सोइ कृपाल रघुवीर।
भुवन भुवन देखत फिरउँ प्रेरित मोह सरीर।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, प्रत्येक लोक में ब्रह्मा जी भिन्न थे। भिन्न-भिन्न विष्णु, शिव, मनु, दिक्पाल, मनुष्य, गंधर्व, भूत, बैताल, किन्नर, राक्षस, पशु-पक्षी, सर्प तथा नाना जाति के देवता एवं दैत्यगण थे। सभी जीव वहां दूसरे ही प्रकार के थे। अनेक पृथ्वी, नदी, समुद्र, तालाब, पर्वत तथा सब प्रकार की सृष्टि वहां दूसरे ही प्रकार की थी। कागभुशुंडि कहते हैं कि प्रत्येक ब्रह्माण्ड में मैंने अपना रूप देखा तथा अनेक अनुपम वस्तुएं देखीं। प्रत्येक भुवन में न्यारी ही अयोध्या, अलग प्रकार की सरयू नदी और भिन्न प्रकार के नर-नारी थे। हे तात (गरुड़ जी) सुनिये, वहां राजा दशरथ, माता कौशल्या जी और भरत जी आदि भाई भी भिन्न-भिन्न रूपों के थे। मैं प्रत्येक ब्रह्माण्ड में राम जी का अवतार और उनकी बाल लीलाएं देखते फिर रहा था।
हे विष्णु जी के वाहन गरुड़ जी, मैंने उन ब्रह्माण्डों में सभी कुछ भिन्न-भिन्न और अत्यंत विचित्र देखा। मैं अनगिनत ब्रह्माण्डों में घूमता रहा। लेकिन प्रभु श्री रामचन्द्र जी को मैंने दूसरी तरह का नहीं देखा। सभी जगह उनका वही शिशुपन, वही शोभा और वही कृपालु श्री रघुबीर। इस प्रकार मोह रूपी पवन की प्रेरणा से मैं भुवन-भुवन में फिरता था।
भ्रमत मोहि ब्रह्माण्ड अनेका, बीते मनहुँ कल्पसत एका।
फिरत फिरत निज आश्रम आयउँ, तहं पुनि रहि कछु काल गवाँयउंँ।
निज प्रभु जन्म अवध सुनि पायउँ, निर्भर प्रेम हरषि उठि धायउँ।
देखउँ जन्म महोत्सव जाई, जेहि विधि प्रथम कहा मैं गाई।
राम उदर देखेउँ जग नाना, देखत बनइ न जाइ बखाना।
तहँ पुनि देखेउँ राम सुजाना, माया पति कृपाल भगवाना।
करउँ बिचार बहोरि बहोरी, मोह कलिल व्यापित मति
मोरी।
उभय धरी महं मैं सब देखा, भयउँ भ्रमित मन मोह विसेषा।
देखि कृपाल विकल मोहि बिहंसे तब रघुबीर।
बिहँसतहीं मुख बाहेर आयउँ सुनु मतिधीर।
अनेक ब्रह्माण्डों में भटकते हुए मानो एक सौ कल्प बीत गये। इसके बाद घूमता-घामता मैं अपने आश्रम में आया और कुछ समय तक वहां रहकर बिताया। इसके बाद जब अपने प्रभु का अवतार अवधपुरी में होने का समाचार पाया तब प्रेम से परिपूर्ण होकर मैं हर्षपूर्वक उठकर दौड़ा। वहां जाकर मैंने जन्म महोत्सव देखा, जिस प्रकार मैं पहले वर्णन कर चुका हूं। श्री रामचन्द्र जी के पेट में मैंने बहुत से जगत (संसार) देखें, जो देखते ही बनते थे, वर्णन नहीं किये जा सकते। वहां फिर मैंने सुजान, माया के स्वामी कृपालु भगवान श्रीराम को देखा। मन में विशेष मोह होने से मैं अब तक थक गया था। मुझे व्याकुल देखकर कृपालु श्री रघुबीर शिशु रूप में ही हंस दिये। हे धीर बुद्धि गरुड़ जी, सुनिए, बालक श्रीराम के हंसते ही मैं उनके मुख से बाहर आ गया। -क्रमशः (हिफी)

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