
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कागभुशुंडि जी को प्रभु श्रीराम ने उदर मध्य करोड़ों ब्रह्माण्ड दिखाये और सौ-सौ वर्ष तक वे उन ब्रह्माण्डों में विचरण भी करते रहे। बाद में उन्हें पता चला कि यह सब दो घड़ी के अंदर हो गया है। वे जिस बालक को सामान्य मनुष्य समझ रहे थे उसकी प्रभुताई देखकर हैरान रह गये और यह कहते हुए कि मेरी रक्षा करो-मेरी रक्षा करो, कागभुशुंडि जी शिशुरूपी भगवान राम के चरणों पर गिर पड़े। भगवान ने जब उन्हें बहुत व्याकुल देखा तो अपनी माया को खींच लिया और कागभुशुंडि जी के सिर पर अपना कृपा पूर्ण हाथ रख दिया। यह लीला भी इसी क्रिया से शुरू हुई थी। प्रभु कागभुशुंडि को पकडना चाहते थे और वे भाग रहे थे। कागभुशुंडि जी ने तब प्रभु की बहुत प्रकार से विनती की और भगवान ने उनसे वर मांगने को कहा। प्रभु ने रिद्धि-सिद्धि, मोक्ष आदि का जिक्र किया लेकिन काग भुशुंडि जी प्रभु के अनन्य भक्त थे, इसलिए उन्होंने वह भक्ति मांगी जो बहुत ही दुर्लभ होती है। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी शिशुरूपी भगवान के मुख से बाहर निकले हैं-
सोइ लरिकाईं मों सन करन लगे पुनि राम।
कोटि भांति समुझावउँ मनु न लहइ विश्राम।
देखि चरित यह सो प्रभुताई, समुझत देह दसा बिसराई।
धरनि परेउं मुख आव न बाता, त्राहि त्राहि आरत जन त्राता।
प्रेमाकुल प्रभु मोहि विलोकी, निज माया प्रभुता तब रोकी।
कर सरोज प्रभु मम सिर
धरेऊ, दीन दयाल सकल दुख हरेऊ।
कीन्ह राम मोहि विगत विमोहा, सेवक सुखद कृपा संदोहा।
प्रभुता प्रथम विचारि बिचारी, मन महँ होइ हरष अति भारी।
सजल नयन पुलकित कर जोरी, कीहिन्उँ बहु विधि विनय बहोरी।
सुनि सप्रेम मम बानी देखि दीन निज दास।
बचन सुखद गंभीर मृदु बोले रमा निवास।
कागभसुंडि मागु बर अति प्रसन्न मोहि जानि।
अनिमादिक सिधि अपर रिधि मोच्छ सकल सुखखानि।
शिशुरूपी भगवान राम के मुख से बाहर निकलते ही कागभुशुंडि जी देखते हैं कि श्रीराम उनके साथ वही लड़कपन फिर से करने लगे। मैं करोड़ों अर्थात् असंख्य प्रकार से मन को समझाता था पर वह शांति नहीं पाता था। वह (बाल) चरित्र देखकर और पेट के अंदर देखी हुई उस प्रभुता का स्मरण करके मैं अपने शरीर की सुध बुध भूल गया और यह कहते हुए कि हे आर्तजनों के रक्षक, मेरी रक्षा कीजिए, मेरी रक्षा कीजिए, मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा। मेरे मुख से कोई बात ही नहीं निकल रही थी। इसके बाद प्रभु ने मुझे प्रेम विह्वल देखकर अपनी माया की प्रभुता को रोक दिया। प्रभु ने अपना कर-कमल मेरे सिर पर रखा और इस प्रकार दीनदयाल ने मेरा सारा दुख हर लिया। सेवकों को सुख देने वाले, कृपा के समूह श्रीराम जी ने मुझे मोह से सर्वथा रहित कर दिया। उनकी पहले वाली प्रभुता को विचार-विचार कर मेरे मन में बहुत हर्ष हुआ था। प्रभु की भक्त वत्सलता देखकर मेरे हृदय में बहुत ही प्रेम उत्पन्न हुआ, फिर मैंने आनंद से नेत्रों में जल भरकर, पुलकित होकर और हाथ जोड़कर प्रभु की बहुत प्रकार से विनती की। मेरी प्रेम से भरी वाणी सुनकर और अपने दास (सेवक) को दीन देखकर रमा निवास श्रीराम जी सुख देने वाले गंभीर और कोमल बचन बोले- हे कागभुशुंडि, तू, मुझे अत्यंत प्रसन्न जानकर वरदान मांग। अणिमा आदि सिद्धियां, दूसरी रिद्धियां तथा सम्पूर्ण सुखों की खान मोक्ष मांग ले।
ग्यान विवेक विरति विग्याना, मुनि दुर्लभ गुन जे जग नाना।
आजु देउँ सब संसय नाहीं, मागु जो तोहि भावमन माहीं।
सुनि प्रभु बचन अधिक अनुरागेउँ, मन अनुमान करन तब लागेउंँ।
प्रभु कह देन सकल सुख सही, भगति आपनी देन न कही।
भगति हीन गुन सब सुख ऐसे, लवन बिना बहु विंजन जैसे।
भजन हीन सुख कवने काजा, अस विचारि बोलेउँ खगराजा।
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि प्रभु ने प्रसन्न होकर कहा कि तुम ज्ञान, विवेक, वैराग्य, विज्ञान (तत्व ज्ञान) और वे अनेक गुण, जो जगत में मुनियों के लिए भी दुर्लभ हैं, वे सब आज मैं तुझे दूंगा, इसमें संदेह नहीं। तेरे मन में जो अच्छा लगे, वही मांग ले।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, प्रभु के वचन सुनकर मैं बहुत ही प्रेम में भर गया। लेकिन मन में अनुमान करने लगा कि प्रभु ने सभी सुख तो देने की बात कही है लेकिन अपनी भक्ति देने की बात नहीं कही है। भक्ति से रहित सब गुण और सब सुख वैसे ही फीके हैं जैसे नमक के बिना व्यंजन (भोजन)। भजन से रहित सुख किस काम का है। हे पक्षिराज ऐसा सोचकर मैं भगवान से विनय करने लगा-
जौं प्रभु होइ प्रसन्न वर देहू, मो पर करहु कृपा अरु नेहू।
मन भावत वर मांगउँ स्वामी, तुम्ह उदार उर अन्तरजामी।
अविरल भगति विसुद्ध तव श्रुति पुरान जो गाव।
जेहि खोजत जोगीस मुनि प्रभु प्रसाद कोउ पाव।
भगत कल्पतरु प्रनत हित कृपा सिंधु सुख धाम।
सोइ निज भगति मोहि प्रभु देहु दयाकरि राम।
एवमस्तु कहि रघुकुल नायक, बोले बचन परम सुखदायक।
सुनु बायस तैं सहज सयाना, काहे न मागसि अस बरदाना।
सब सुख खानि भगति तैं मांगी, नहिं जगकोउ तोहि सम बड़ भागी।
जो मुनि कोटि जतन नहिं लहहीं, जे जप जोग अनल तन दहहीं।
रीझेउँ देखि तोरि चतुराई, मागेहु भगति मोहि अति भाई।
सुनु बिहंग प्रसाद अब मोरे, सब सुभ गुन बसिहहिं उर तोरे।
हे प्रभु, यदि आप प्रसन्न होकर मुझे वर देते हैं और मुझ पर कृपा तथा स्नेह करते हैं तो हे स्वामी, मैं अपना मनचाहा वर मांगता हूं। आप उदार हैं और हृदय के भीतर की बात जानने वाले हैं। आपकी जिस अविरल एवं विशुद्ध अर्थात् अनन्य निष्काम भक्ति, जिसे वेद-पुराणों में गाया गया है, जिसे योगेश्वर मुनि खोजते रहते हैं और प्रभु की कृपा से कोई एक पाता है। हे भक्तों के मनचाहे फल देने वाले कल्पवृक्ष, हे शरणागत के हितकारी, कृपा सागर, हे सुखधाम श्रीराम जी, दया करके मुझे अपनी वही भक्ति दीजिए। प्रभु श्रीराम ने कहा- ऐसा ही हो (एवमस्तु रघुवंश के स्वामी) परम सुख देने वाले प्रभु बोले- हे काक, सुन, तू स्वभाव से ही चतुर (सयाना) है, ऐसा वरदान कैसे न मांगता। तूने सब सुखों की खान भक्ति मांग ली है। जगत में तेरे समान बड़ भागी कोई नहीं है वे मुनि जो जप-तप की योग अग्नि से शरीर जलाते हैं और करोड़ों यत्न करने पर भी भक्ति नहीं पाते हैं। वही भक्ति तूने मांगी है। तेरी चतुरता देखकर मैं रीझ गया हूं। यह चतुरता मुझे बहुत अच्छी लगी। हे पक्षी, सुन, मेरी कृपा से अब समस्त शुभ गुण तेरे हृदय में निवास करेंगे। -क्रमशः (हिफी)