अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

तब ते मोहि न व्यापी माया

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी ने अपने मोह की कथा सुनाने के बाद गरूड़ जी से कहा कि इसके बाद प्रभु की माया मुझे कभी नहीं लगी। भगवान ने मुझे बहुत प्रकार से ज्ञान दिया और फिर वही शिशु लीला करने लगे। उन्होंनें कहा कि यह गुप्त चरित्र था, जो अब तक मैंने किसी से नहीं कहा था। हे पक्षीराज, मैं अपना अनुभव बताता हूं कि प्रभु श्री राम के भजन के बिना कष्ट दूर नहीं होता। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो काग भुशुंडि जी प्रभु के अमृत के समान बचन सुन रहे हैं –
प्रभुवचनामृत सुनि न अघाऊॅ, तनु पुलकित मन अति हरषाऊँ,
सो सुख जानइ मन अरू काना, नहिं रसना पहिं जाहि बखाना,
प्रभु सोभा सुख जानहिं नयना, कहि किमि सकहिं तिन्हहि नहिं बयना,
बहुविधि मोहि प्रबोधि सुख देई, लगे करन सिसु कौतुक तेई।
सजल नयन कछु मुख करि रूखा, चितइमातु लागी अति भूखा,
देखि मातु आतुर उठि धाई, कहि मृदु बचन लिए उर लाई,
गोद राखि कराव पय पाना, रघुपति चरित ललित कर गाना
जेहि सुख लागि पुरारि असुभ वेषकृत सिव सुखद।
अवधपुरी नर नारि तेहि सुख महु संतत मगन।
सोई सुख लवलेस जिन्ह बारक सपने हुं लहेउ।
ते नहिं गनहिं खगेस व्रहम सुखहिं सज्जन सुमति।
कागभुशुंडि जी कहते है कि हे पक्षीराज गरूड़, प्रभु के वचनामृत सुनकर मैं तृप्त ही नहीं होता था। मेरा शरीर पुलकित था और मन में मैं अत्यंत ही हर्षित हो रहा था। वह सुख मन और कान ही जानते हैं, जीभ से उनका बखान नहीं किया जा सकता। प्रभु की शोभा का वह सुख नेत्र ही जानते हैं, पर वे उसे बता नहीं सकते क्योंकि नेत्रों के पास वाणी नहीं होती। इस प्रकार प्रभु ने मुझे बहुत प्रकार से समझाकर और सुख देकर फिर वही बालकों के ख्ेाल करने लगे। नेत्रों में जल भरकर और मुख को सूखा सा बनाकर उन्होंने अपनी माता कौशल्या जी की तरफ देखा और मुखाकृति तथा चितवन से माता को समझा दिया कि उन्हें बहुत भूख लगी है। यह देख कर माता तुरंत उठकर दौड़ी और कोमल बचन कहकर उन्होंने श्री राम जी को छाती से लगा लिया। वे गोद में लेकर उन्हें दूध पिलाने लगीं और श्री रघुनाथ जी की ललित लीलाएं गाने लगीं। जिस सुख के लिए सबको सुख देने वाले कल्याण रूप त्रिपुरारि शिवजी ने अशुभ वेश धारण किया, उस सुख में अवधपुरी के नर नारी निरंतर निमग्न रहते हैं। उस सुख का लवलेश मात्र जिन्होंने एक बार स्वप्न में भी प्राप्त कर लिया, हे पक्षीराज सुंदर बुद्धि वाले सजन पुरूष उसके सामने ब्रह्म सुख को भी कुछ नहीं गिनते हैं।
मैं पुनि अवध रहेउँ कछु काला, देखेउँ बाल विनोद रसाला।
राम प्रसाद भगति बर पायउँ, प्रभुपद बंदि निजाश्रम आयउँ।
तब ते मोहि न ब्यापी माया, जब ते रघुनायक अपनाया।
यह सब गुप्त चरित मैं गावा, हरि माया जिमि मोहि नचावा।
निज अनुभव अब कहउँ खगेसा, बिनु हरिभजन न जाहिं कलेसा।
राम कृपा बिनु सुनु खगराई, जानि न जाइ राम प्रभुताई।
जाने बिनु न होइ परतीती, बिनु परतीति होइ नहिं प्रीती।
प्रीति बिना नहिं भगति दिढ़ाई, जिमि खगपति जल कै चिकनाई।
बिनु गुरू होई कि ग्यान ग्यान कि होइ विराग बिनु, गावहिं वेद पुरान सुख किलहिअ हरि भगति बिनु।
कागभुशुंडि जी गरूड़ जी को बता रहे हैं कि मैं इसके बाद अवधपुरी में कुछ समय तक रहा और वहां श्री राम जी की रसीली बाल लीलाएं देखीं। श्री राम जी की कृपा से मैंने भक्ति का वरदान पाया। इसके बाद प्रभु के चरणों की बंदना करके मैं अपने आश्रम में लौट आया। इस प्रकार जब से श्री रघुनाथ जी ने मुझे अपनाया, तब से मुझे माया कभी नहीं ब्यापी। श्री हरि की माया ने जैसे मुझे नचाया वह सब गुप्त चरित्र मैंने तुम्हें सुना दिया है।
हे पक्षीराज गरूड़, अब मैं आपसे अपना निजी अनुभव कहता हूं। वह यह है कि भगवान के भजन बिना क्लेश दूर नहीं होते। हे पक्षीराज सुनिए, श्री राम जी की कृपा के बिना उनकी प्रभुता नहीं जानी जाती, प्रभुता जाने बिंना उनपर विश्वास नहीं जमता, विश्वास के बिना प्रीति नहीं होती और प्रीति बिना भक्ति ऐसे ही दृढ़ नहीं होती जैसे हे पक्षीराज जल में चिकनाई एक स्थान पर ठहर नहीं पाती। कागभुशुंडि जी कहते हैं कि गुरू के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? अथवा बैराग्य के बिना कहीं ज्ञान हो सकता है? इसी तरह वेद और पुराण कहते हैं कि श्री हरि की भक्ति के बिना क्या सुख मिल सकता है?
कोउ विश्राम कि पाव तात सहज संतोष बिनु
चलैकि जल बिनुनाव कोटि जतन पचि पचि मरिअ।
बिनु संतोष न काम नसाहीं, काम अछत सुख सपनेहुं नाहीं।
राम भजन बिनु मिटहिं कि कामा, थल विहीन तरू कबहुं किजामा।
बिनु विग्यान कि समता आवइ, कोउ अवकास कि नभ बिनु पावइ।
श्रद्धा बिना धर्म नहिं होई, बिनु महि गंध कि पावइ कोई।
बिनु तप तेज कि कर विस्तारा, जल बिनु रस कि होइ संसारा।
सील कि मिल बिनु बुध सेवकाई, जिमि बिनु तेज न रूप गोसाई।
निज सुख बिनु मन होइ कि धीरा, परस कि होई विहीन समीरा।
कवनिउ सिद्धि कि बिनु विस्वासा, बिनु हरिभजन न भव भयनासा।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे तात, स्वाभाविक संतोष के बिना क्या कोई शांति पा सकता है। चाहे करोड़ों उपाय करके पच-पच मरिए, फिर भी क्या कभी जल के बिना नाव चल सकती है? संतोष के बिना कामना का नाश नहीं होता है और कामनाओं के रहते स्वप्न में भी सुख नहीं मिलता और श्री राम के भजन के बिना कामनाएं कहीं मिट सकती हैं। धरती के बिना भी कहीं पेड़ उग सकते हैं? विज्ञान (तत्वज्ञान) के बिना क्या सम भाव आ सकता है, आकाश के बिना क्या कोई अवकाश (पोल) पा सकता है। श्रद्धा के बिना धर्म का आचरण नहीं होता और पृथ्वी तत्व के बिना कोई गंध नहीं पा सकता। तप के बिना क्या तेज फैल सकता है? जल तत्व के बिना संसार में क्या रस हो सकता है। पंडित जनों की सेवा के बिना क्या शील सदाचार प्राप्त हो सकता है। हे गोसाई, बिना तेज तत्व के रूप नहीं मिलता। अत्मानंद के बिना क्या मन स्थिर हो सकता है। वायु तत्व के बिना क्या स्पर्श हो सकता है? क्या विश्वास के बिना कोई सिद्धि प्राप्त कर सकता हैं? इसी तरह हरि के भजन बिना जन्म-मृत्यु का भय दूर नहीं होता। (क्रमशः) (हिफी)

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