
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कागभुशुंडि जी ने गरुड़ जी को प्रभु श्रीराम की भक्ति के बारे में बताया और कहा कि इसके बिना जीवन के क्लेश नहीं दूर होते हैं। भगवान भाव के वश में हैं। यह सुनकर गरुड़ जी को बहुत अच्छा लगा और वे बार-बार काग भुशुंडि जी के चरणों पर गिरकर उन्हें प्रणाम करने लगे और उनको श्रीराम जी के समान समझकर प्रेम बढ़ाया। काग भुशुंडि जी केी अनेक प्रकार से प्रशंसा करके गरुड़ जी ने विनय पूर्वक कहा कि हे स्वामी आपने यह शरीर जिस प्रकार पाया, इस रहस्य को जानने की उत्सुकता है। काग भुशुंडि जी इस रहस्य को बताते हैं। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
सुनि भुशुंडि के बचन सुहाए, हरषित खगपति पंख फुलाए।
नयन नीर मन अति हरषाना, श्री रघुपति प्रताप उर आना।
पाछिल मोह समुझि पछिताना, ब्रह्म अनादि मनुज करि माना।
पुनि पुनि काग चरन सिरु नावा, जानि राम सम प्रेम बढ़ावा।
गुर बिनु भवनिधि तरइ न कोई, जौं विरंचि संकर सम होई।
संसय सर्प ग्रसेउ मोहि ताता, दुखद लहरि कुतर्क बहुब्राता।
तव सरूप गारुड़ि रघुनायक, मोहि जिआयउ जनसुखदायक।
तव प्रसाद मम मोह नसाना, राम रहस्य अनूपम जाना।
ताहि प्रसंसि बिबिध विधि सीस नाइ कर जोरि।
बचन बिनीत सप्रेम मृदु बोलेउ गरुड़ बहोरि।
प्रभु अपने अबिबेक ते बूझउँ स्वामी तोहि।
कृपासिंधु सादर कहहु जानि दास निज मोहि।
काग भुशुंडि जी के सुंदर बचन सुनकर पक्षीराज गरुड़ ने हरषित होकर अपने पंख फुलाए। उनके नेत्रों में आनंद के आंसुओं का जल भर आया और मन अत्यंत हर्षित हो गया। उन्होंने श्री रघुनाथ जी का प्रताप हृदय मंे
धारण किया। वे अपने पिछले मोह को स्मरण करके पछताने लगे कि मैंने अनादि ब्रह्म को मनुष्य करके माना। गरुड़ जी ने बार-बार काग भुशुंडि जी के चरणों में सिर नवाया और उन्हें श्रीराम जी के ही समान जानकर प्रेम बढ़ाया। वे सोचने लगे कि गुरु के बिना कोई भव सागर नहीं पार कर सकता, चाहे वह ब्रह्मा जी और शंकर जी के समान ही क्यों न हो। गरुड़ जी ने कहा कि हे तात, मुझे संदेह रूपी सर्प ने डंस लिया था और सांप के डंसने पर जैसे विष चढ़ने से लहरें आती हैं वैसे ही बहुत से कुतर्क रूपी दुख देने वाली लहरें आ रही थीं। आप (काग भुशुंडि जी) विष उतारने वाले गारूड़ी के माध्यम से भक्तों को सुख देने वाले श्री रघुनाथ जी ने मुझे बचा लिया। आपकी कृपा से मेरा मोह नष्ट हो गया और मैंने श्री रघुनाथ जी का अनुपम रहस्य जाना। इस प्रकार काग भुशुंडि जी की बहुत प्रकार से प्रशंसा करके, सिर नवाकर और हाथ जोड़कर फिर गरुड़ जी प्रेम पूर्वक विनम्र और कोमल बचन बोले- हे प्रभो, हे स्वामी, मैं अपने अविवेक के कारण पूछता हूं। हे कृपा के समुद्र, मुझे अपना ही दास समझकर विचार पूर्वक मेरे प्रश्न का उत्तर दीजिए।
तुम सर्वग्य तग्य तम पारा, सुमति सुसील सरल आचारा।
ग्यान बिरति बिग्यान निवासा, रघुनायक के तुम्ह प्रिय दासा।
कारन कवन देह यह पाई, तात सकल मोहि कहहु बुझाई।
रामचरित सर सुंदर स्वामी, पायहु कहां कहहु नभ गामी।
नाथ सुना मैं अस सिव पाहीं, महा प्रलयहुं नास तव नाहीं।
मुधा बचन नहिं ईस्वर कहहीं, सोउ मोरे मन संसय अहईं।
अग जग जीव नाग नर देवा, नाथ सकल जगु काल कलेवा।
अंड कटाह अमित लयकारी, कालु सदा दुरति क्रम भारी।
तुम्हहि न व्यापत काल अति कराल कारन कवन मोहि सो कहहु कृपाल ग्यान प्रभाव कि जोग बल।
गरुड़ जी कहते हैं कि आप सब कुछ जानने वाले हैं, तत्व के ज्ञाता हैं अंधकार (माया) से परे, उत्तम बुद्धि से युक्त, सुशील, सरल आचरण वाले, ज्ञान, वैराग्य और विज्ञान के धाम और श्री रघुनायक जी के प्रिय दास हैं। आपने यह कौए (काक) का शरीर किस कारण पाया। हे तात यह समझाकर मुझसे कहिए। हे स्वामी, हे आकाशगामी, यह सुन्दर रामचरित मानस आपने कहां पाया, उसे भी बताइए। हे नाथ, मैंने शिवजी से ऐसा सुना है कि महाप्रलय में भी आपका नाश नहीं होता और ईश्वर (शिवजी) कभी मिथ्या वचन कहते नहीं। यह भी मेरे मन में एक संदेह है क्योंकि हे नाथ, नाग, मनुष्य, देवता आदि चर-अचर जीव तथा यह सारा जगत काल (मृत्यु) का कलेवा (नाश्ता) है। असंख्य ब्रह्माण्डों का नाश करने वाला काल सदा और अनिवार्य है- ऐसा अत्यंत भयंकर काल भी आपको नहीं व्यापता अर्थात् आप पर उसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता। इसका क्या कारण है, हे कुपालु कहिए कि यह ज्ञान का प्रभाव है अथवा योग का बल है?
प्रभु तव आश्रम आएं मोर मोह भ्रम भाग।
कारन कवन सो नाथ सब कहहु सहित अनुराग।
गरुड़ गिरा सुनि हरषेउ कागा, बोलेउ उमा परम अनुरागा।
धन्य धन्य तव मति उरगारी, प्रस्न तुम्हारि मोहि अति प्यारी।
सुनि तव प्रस्न सप्रेम सुहाई, बहुत जनम कै सुधि मोहि आई।
सब निज कथा कहउं मैं गाई, तात सुनहु सादर मन लाई।
जप तप मख सम दम ब्रतदाना, विरति विवेक जोग विग्याना।
सब कर फल रघुपति पद प्रेमा, तेहि बिनु कोउ न पावइ छेमा।
एहि तन राम भगति मैं पाई, ताते मोहि ममता अधिकाई।
जेहिं ते कछु निज स्वारथ होई, तेहि पर ममता कर सब कोई।
गरुड़ जी कागभुशुंडि जी से कहते हैं कि हे प्रभु, आपके आश्रम में आते ही मेरा मोह और भ्रम भाग गया, इसका क्या कारण है। हे नाथ, यह सब प्रेम सहित कहिए।
शंकर जी पार्वती जी को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि हे उमा, गरुड़ जी की इस प्रकार बिनय युक्त वाणी सुनकर कागभुशुंडि जी हर्षित हुए और परम प्रेम से बोले- हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी, आपकी बुद्धि धन्य है, धन्य है? आपके प्रश्न मुझे बहुत ही प्यारे लगे। आपके प्रेम से भरे सुन्दर प्रश्न सुनकर मुझे अपने बहुत से जन्मों की याद आ गयी। मैं अपनी सब कथा विस्तार से कहता हूं, हे तात आदर सहित मन लगाकर सुनिए अनेक जप, तप, यज्ञ, शम, दम, व्रत, दान, वैराग्य, विवेक, योग विज्ञान आदि सबका फल श्री रघुनाथ जी के चरणों में प्रेम होना है। इसके बिना कोई कल्याण नहीं पा सकता। मैंने इसी शरीर से श्रीराम की भक्ति प्राप्त की है। इसी से इस पर मेरी ममता अधिक है। उन्होंने कहा कि हे गरुड़ जी जिसमें अपना कुछ स्वार्थ होता है, उस पर सभी कोई प्रेम करते हैं। -क्रमशः (हिफी)