अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

मनक्रम बचन लबार तेइ बकता कलिकाल महुँ

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

आज से लगभग चार सौ साल पहले गोस्वामी तुलसीदास ने कलियुग का जो वर्णन कागभुशुंडि जी के
माध्यम से किया था, वह आज स्पष्ट रूप से दिखाई पड़ रहा है। कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को कलियुग के गुण बता रहे हैं, और कहते हैं कि जो मन, वचन और कर्म से झूठ बकने वाले हैं, वही कलियुग में सबसे बड़े वक्ता माने जाते हैं। सभी वर्गों का कैसा आचरण कलियुग में हो जाता है, यही इस प्रसंग में बताया गया है-
सोइ सयान जो परधन हारी, जो कर दंभ सो बड़ आचारी।
जो कह झूंठ मसखरी जाना, कलिजुग सोइ गुनवंत बखाना।
निराचार जो श्रुति पथ त्यागी, कलिजुग सोइ ग्यानी सो बिरागी।
जाकें नख अरु जटा विसाला, सोइ तापस प्रसिद्ध कलिकाला।
असुभ बेष भूषन धरें, भच्छाभच्छ जे खाहिं।
तेइ जोगी तेइ सिद्ध नर पूज्य ते कलिजुग माहिं।
जे अपकारी चार तिन्ह कर गौरव मान्य तेइ।
मनक्रम वचन लबार तेइ वकता कलिकाल महुँ।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, जो किसी प्रकार से दूसरे का धन हरण कर ले, वही बुद्धिमान है, जो दम्भ करता है, वहीं बड़ा आचारी है जो झूठ बोलता है और हंसी-दिल्लगी करना जानता है, कलियुग में वही गुणवान कहा जाता है। जो आचारहीन हैं और वेद मार्ग को छोड़े हुए हैं कलियुग में वही ज्ञानी और वही वैराग्यवान है, जिसके बड़े-बड़े नाखून और लम्बी-लम्बी जटाएं हैं, वही कलियुग में प्रसिद्ध तपस्वी है, जो अमंगल वेश और अमंगल आभूषण धारण करते हैं और भक्ष्य-अभक्ष्य अर्थात् खाने योग्य और न खाने योग्य सब कुछ खा लेते हैं, वही योगी हैं और वे ही सिद्ध कहे जाते हैं। ऐसे ही मनुष्य कलियुग में पूज्य माने जाते हैं जिनके आचरण दूसरों का अपकार अर्थात् अहित करने वाले होते हैं, उन्हीं का बड़ा गौरव होता है और वे ही सम्मान के योग्य समझे जाते हैं। इसके अलावा जो मन, बचन और कर्म से लबार (झूठे) होते हैं वे ही कलियुग में बहुत अच्छे वक्ता (भाषण करने वाले) होते हैं।
नारि बिबस नट सकल गोसाईं, नाचहिं नर मर्कट की नाईं।
सूद्र द्विजन्ह उपदेसहिं ग्याना, मेलि जनेऊँ लेहिं कुदाना।
सब नर काम लोभ रत क्रोधी, देव विप्र श्रुति संत विरोधी।
गुन मंदिर सुंदर पति त्यागी, भजहिं नारि पर पुरुष अभागी।
सौभागिनीं बिभूषन हीना, विधवन्ह के सिंगार नबीना।
गुर सिष बधिर अंध का लेखा, एक न सुनइ एक नहिं देखा।
हरइ सिष्य धन सोक न हरई, सो गुर घोर नरक महुँ परई।
मातु पिता बालकन्हि बोलावहिं, उदर भरै सोइ धर्म सिखावहिं।
ब्रह्म ग्यान बिनु नारि नर कहहिं न दूसरि बात।
कौड़ी लागि लोभ बस करहिं बिप्र गुर घात।
बादहिं सूद्र द्विजन्ह सन हम तुम्ह ते कछु धाटि।
जानइ ब्रह्म सो बिप्रवर आंखि देखावहिं डाटि।
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी से कहते हैं कि हे गोसाईं, कलियुग मंे सभी मनुष्य स्त्रियों के विशेष वश में हंै और बाजीगर के बंदर की तरह स्त्रियों के नचाने पर नाचते हैं। ब्राह्मणों को शूद्र ज्ञानोपदेश करते हैं और गले में जनेऊ पहनकर कुत्सित दान लेते हैं। सभी पुरुष काम और लोभ में तत्पर और क्रोधी होते हैं। देवता, ब्राह्मण, वेद और संतों के विरोधी होते हैं। अभागिनी स्त्रियां गुणों के धाम सुंदर पति को छोड़कर पर पुरुष का सेवन करती हैं। सुहागिनी स्त्रियों को तो आभूषण पहनने को नहीं मिलते हैं लेकिन विधवाएं नित्य नये श्रृंगार करती हैं। गुरु और शिष्य में बहरे और अंधे जैसा संबंध रहता है। एक अर्थात् शिष्य गुरु के उपदेश को सुनता नहीं है और दूसरा गुरु देखता नहीं अर्थात् उसे ज्ञान की दृष्टि नहीं मिलती। इस प्रकार जो गुरु शिष्य का धन हरण करता है, पर शोक नहीं दूर कर पाता वह घोर नर्क में पड़ता है। कलियुग में माता-पिता बालकों को वही धर्म सिखाते हैं, जिससे पेट भरे। स्त्री-पुरुष ब्रह्म ज्ञान के बिना कोई बात नहंी करते लेकिन वे लोभवश कौड़ियों अर्थात् बहुत कम पैसों के लिए ब्राह्मण और गुरु की हत्या तक कर डालते हैं। शूद्र ब्राह्मणों से विवाद करते हैं और कहते हैं कि हम क्या तुमसे कुछ कम हैं? जो ब्रह्म को जानता है, वही श्रेष्ठ ब्राह्मण है, ऐसा कहकर शूद्र ब्राह्मणों को डांटते हुए आंखें दिखाते हैं।
पर त्रिय लंपट कपट सयाने, मोह द्रोह ममता लपटाने।
तेइ अभेदबादी ग्यानी नर, देखा मैं चरित्र कलिजुग कर।
आपु गए अरु तिन्हहूं घालहिं, जे कहुँ सत मारग प्रतिपालहिं।
कल्प कल्प भरि एक एक नरका, परहिं जे दूषहिं श्रुति करि तरका।
जे बरनाधम तेलि कुम्हारा, स्वपच किरात कोल कलवारा।
नारि मुईं गृह संपति नासी, मूड़ मुड़ाइ होहिं संन्यासी।
ते बिप्रन्ह सन आपु पुजावहिं, उभय लोक निज हाथ नसावहिं।
बिप्र निरच्छर लोलुप कामी, निराचार सठ बृषली स्वामी।
सूद्र करहिं जप तप व्रत दाना, बैठि बरासन कहहिं पुराना।
सब नर कल्पित करहिं अचारा, जाइ न बरनि अनीति अपारा।
भए बरनसंकर कलि भिन्न सेतु सब लोग।
करहिं पाप पावहिं दुख भय रुज सोक बियोग।
श्रुति संमत हरिभक्ति पथ संजुत बिरति विवेक।
तेहिं न चलहिं नर मोहबस कल्पहिं पंथ अनेक।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि मैंने कलियुग का जो चरित्र देखा, उसमें जो परायी स्त्री में आसक्त, कपट करने में चतुर और मोह, द्रोह व ममता में लिपटे हुए हैं, वे ही मनुष्य अभेदवादी (ब्रह्म और जीव को एक बताने वाले) ज्ञानी हैं। वे स्वयं तो नष्ट हुए ही रहते हैं, जो कहीं सन्मार्ग का प्रतिपालन करते हैं, उनको भी वे नष्ट कर देते हैं। जो तर्क करके वेदों की निंदा करते हैं, वे लोग कल्प, कल्पभर एक-एक नर्क में पड़े रहते हैं। तेली, कुम्हार, चाण्डाल, भील, कोल और कलवार आदि जो वर्ण में नीचे हैं, वे स्त्री के मरने पर अथवा घर की संपत्ति नष्ट होने पर सिर मुंड़ाकर संन्यासी हो जाते हैं। वे अपने को ब्राह्मणों से पूजवाते हैं और अपने ही हाथों अपने दोनों लोक नष्ट करते हैं। ब्राह्मण भी बिना पढ़े-लिखे, लोभी, कामी, आचारहीन, मूर्ख और नीची जाति की व्यभिचारिणी स्त्रियों के स्वामी बन जाते हैं। शूद्र नाना प्रकार के जप, तप और व्रत करते हैं तथा ऊंचे आसन (व्यास गद्दी) पर बैठकर पुराण सुनाते हैं। सब मनुष्य मनमाना आचरण करते हैं। अपार अनीति का वर्णन नहीं किया जा सकता। कलियुग में सब लोग वर्णसंकर और मर्यादा से गिर गये होते हैं। वे पाप करते हैं और उसके फलस्वरूप दुख, भय, रोग, शोक और प्रिय वस्तु का वियोग पाते हैं। वेदसम्मत तथा वैराग्य और ज्ञान से युक्त जो हरिभक्ति का मार्ग है, मोहवश मनुष्य उस पर नहीं चलते और अनेक नये-नये पंथों की कल्पना करते हैं। -क्रमशः (हिफी)

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