अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

देव न बरषहिं धरनी बए न जामहिं धान

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को कलियुग के बारे में बता रहे हैं। राजा से प्रजा तक का आचरण धर्म के विपरीत हो जाता है। सभी स्वारथ में डूबे हैं तो पर्यावरण की रक्षा कौन करें? इसलिए बार-बार अकाल पड़ता है। बारिश कभी बहुत ज्यादा होती है तो कभी बिल्कुल नहीं होती। इसलिए कोई भी फसल बोई जाती है तो उगती नहीं है। अनाज के लिए सभी लोग दुखी हो जाते हैं। साधु-संन्यासियों का आचरण भी बदल जाता है-
बहु दाम संवारहिं धाम जती, विषया हरिलीन्हि न रहि विरती।
तपसी धनवंत दरिद्र गृही, कलि कौतुक तात न जात कही।
कुलवंति निकारहिं नारि सती, गृह आनहिं चेरि निबेरि गती।
सुत मानहिं मातु पिता तबलौं, अबलानन दीख नहीं जब लौं।
ससुरारि पिआरि लगी जब तें, रिपुरूप कुटुंब भए तब तें।
नृप पाप परायन धर्म नहीं, करि दंड विडंब प्रजा नितहीं।
धनवंत कुलीन मलीन अपी, द्विज चिन्ह जनेउ उधार तपी।
नहिं मान पुरान न बेदहिं जो, हरि सेवक संत सही कलि सो।
कवि वृंद उदार दुनी न सुनी, गुन दूषक ब्रात न कोपि गुनी।
कलि बारहिं बार दुकाल परै, बिनु अन्न दुखी सब लोग मरै।
सुनु खगेस कलि कपट हठ दंभ द्वेष पाषंड।
मान मोह मारादि मद व्यापि रहे ब्रह्माण्ड।
तामस धर्म करहिं नर जप तप व्रत मख दान।
देव न बरषहिं धरनी, बए न जामहिं धान।
कागभुशंुडि जी कहते हैं- हे गरुड़ जी कलियुग में संन्यासी बहुत धन लगाकर घर सजाते हैं। उनमें वैराग्य नहीं रह गया, उसे विषयों ने हर लिया है। तपस्वी धनवान हो गये और गृहस्थ दरिद्र। हे तात, कलियुग की लीला कुछ कही नहीं जाती। कुलवंती और सती स्त्री को पुरुष घर से निकाल देते हैं और अच्छी चाल को छोड़कर घर में दासी को लाकर रखते हैं। पुत्र अपने माता-पिता को तभी तक मानते हैं, जब तक स्त्री का मुख नहीं दिखाई पड़ता। जब से ससुराल प्यारी लगने लगी, तब से परिवार के लोग (कुटुम्बी) शत्रु के समान हो जाते हैं। राजा लोग पाप परायण हो गये हैं उनमें धर्म नहीं रहा। वे प्रजा को नित्य ही बिना अपराध के दंड देकर उसकी दुर्दशा किया करते हैं। धनी लोग मलिन (नीच जाति के) होने के बावजूद कुलीन माने जाते हैं। ब्राह्मण (द्विज) का चिह्न जनेऊ मात्र रह गया है और नंगे बदन रहना तपस्वी का चिह्न है। जो वेदों और पुराणों को नहीं मानते, कलियुग में वे ही हरिभक्त और सच्चे संत कहलाते हैं कवियों के तो झुंड हो गये पर दुनिया में उदार कवियों को आश्रयदाता नहीं सुनायी पड़ते। गुण में दोष लगाने वाले तो बहुत हैं, पर गुणी कोई भी नहीं है। कलियुग में बार-बार अकाल पड़ते हैं। अन्न के बिना सब लोग दुखी होकर मरते हैं अर्थात् कलियुग में लोग भूख से मरते हैं। हे पक्षीराज, गरुड़ जी सुनिए, कलियुग में कपट, हठ (दुराग्रह), दंभ, द्वैष, पाखण्ड, मान, मोह और काम आदि ब्रह्माण्ड भर में व्याप्त हो गये हैं। मनुष्य जप, तप, यज्ञ, व्रत और दान आदि धर्म तामसी भाव से करने लगा। देवता (इन्द्र) पृथ्वी पर जल नहीं बरसाते और बोया हुआ अन्न उगता नहीं।
अबला कच भूषन भूरि छुधा,
धनहीन दुखी ममता बहुधा।
सुख चाहहिं मूढ़ न धर्मरता, मति थोरि कठोरि न कोमलता।
नर पीड़ित रोग न भोग कहीं, अभिमान विरोध अकारन ही।
लघु जीवन संबतु पंचदसा, कलपांत न नास गुमानु असा।
कलिकाल बिहाल किए मनुजा, नहिं मानत क्वौ अनुजा तनुजा।
नहिं तोष बिचार न सीतलता, सब जाति कुजाति भए मगता।
इरिषा परुषाच्छर लोलुपता, भरि पूरि रही समता विगता।
सब लोग वियोग बिसोक हुए, बरनाश्रम धर्म अचार गए।
दम दान दया नहिं जानपनी, जड़ता परबंचनताति धनी।
तनु पोषक नारि नरा सगरे, परनिंदक जे जग मो बगरे।
सुनु ब्यालारि काल कलि मल अवगुन आगार।
गुनउ बहुत कलिजुग कर बिनु प्रयास निस्तार।
कलियुग में स्त्रियों के बल ही आभूषण हैं अर्थात् उनके शरीर पर अन्य कोई आभूषण नहीं रह गया और उनको भूख बहुत लगती है अर्थात् वे सदा अतृप्त ही रहती हैं। वे धनहीन और बहुत प्रकार की ममता होने के कारण दुखी रहती है। वे मूर्ख सुख चाहती हैं पर धर्म में उनका प्रेम नही है। बुद्धि थोड़ी है और कठोर है। उनमें कोमलता नहीं है। मनुष्य रोगों से पीड़ित है भोग (सुख) कहीं नहीं रह गया है। बिना ही कारण अभिमान और विरोध करते हैं। दस-पांच वर्ष का थोड़ा सा जीवन है लेकिन घमंड ऐसा है मानों कल्पांत (प्रलय होने) में भी उनका नाश नहीं होगा। कलिकाल ने मनुष्य को अस्त-व्यस्त कर डाला है। कोई बहिन-बेटी का भी विचार नहीं करता। लोगों में न संतोष है, न विवेक है और न शीतलता है। जाति, कुजाति सभी लोग भीख मांगने वाले हो गये हैं। ईष्र्या (डाह) कड़वे बचन और लालच भरपूर हो रहे हैं, समता चली गयी। सब लोग वियोग और विशेष शोक से भरे पड़े हैं। वर्णाश्रम धर्म के आचरण नष्ट हो गये हैं। इन्द्रियों का दमन, दान, दया और समझदारी किसी में नहीं रह गयी है। मूर्खता और दूसरों को ठगना बहुत अधिक बढ़ गया है। स्त्री-पुरुष सभी शरीर के पालन-पोषण में ही लगे रहते हैं जो परायी निंदा करने वाले हैं, संसार में वही फैले हैं अर्थात् बहुत ज्यादा हो गये हैं।
हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी, सुनिए, कलिकाल पाप और अवगुणों का घर हैं लेकिन कलियुग में एक गुण भी बड़ा है कि इसमें बिना ही परिश्रम भव बंधन से छुटकारा मिल जाता है।
कृतजुग त्रेताँ द्वापर पूजा मख अरुजोग।
जो गति होइ सो कलि हरि नाम से पावहिं लोग।
कृत जुग सब जोगी विग्यानी, करि हरि ध्यान तरहिं भव प्रानी।
त्रेता विविध जग्य नर करहीं, प्रभुहिं समर्पि कर्म भव तरहीं।
द्वापर करि रघुपति पद पूजा, नर भव तरहिं उपाय न दूजा।
कलिजुग केवल हरिगुन गाहा, गावत नर पावहिं भव थाहा।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि गरुड़ जी सतयुग, त्रेता और द्वापर में जो गति पूजा, यज्ञ और योग से प्राप्त होती है, वही गति कलियुग में लोग केवल भगवान का नाम लेने से पा जाते हैं। सतयुग में सब योगी और विज्ञानी होते हैं। हरि का ध्यान धर के सब प्राणी भव सागर से तर जाते हैं। त्रेता में मनुष्य अनेक प्रकार के यज्ञ करते हैं और सभी कर्म प्रभु को समर्पित करके भव
सागर से पार हो जाते हैं। द्वापर में
श्री रघुनाथ जी के चरणों की पूजा करके मनुष्य संसार से तर जाते हैं, दूसरा कोई उपाय नहीं है और कलियुग में तो केवल श्री हरि की गुण-गाथाओं का गान करके ही मनुष्य भवसागर
की थाह पा जाते हैं अर्थात् तर
जाते हैं। -क्रमशः (हिफी)

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