
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
कागभुशुंडि जी ने गरुड़ जी को कलियुग के बारे में विस्तार से बताया कि लोग किस तरह अधर्म की राह पर चलने लगते हैं लेकिन भगवान ने कलियुग के लोगों को भवसागर पार करने के लिए रास्ता भी आसान कर दिया है। सतयुग, त्रेता और द्वापर में जहां बहुत कठिन साधना करनी पड़ती है, वहीं कलियुग में सिर्फ हरि गुणगान से ही मुक्ति मिल जाती है। इसलिए यदि मनुष्य भगवान पर विश्वास करें तो कलियुग के समान दूसरा कोई युग ही नहीं है। ऐसे कलियुग में कागभुशुंडि जी कितने ही वर्षों तक रहे। यही प्रसंग यहां बताया गया है- अभी तो कागभुशुंडि जी कलियुग के बारे में ही बता रहे हैं-
कलिजुग जोग न जग्य न ग्याना, एक अधार राम गुनगाना।
सब भरोस तजि जो भज रामहि, प्रेम समेत गाव गुन ग्रामहि।
सोइ भव तर कछु संसय नाहीं, नाम प्रताप प्रगट कलिमाहीं।
कलिकर एक पुनीत प्रतापा, मानस पुन्य होहिं नहिं पापा।
कलिजुग सम जुग आन नहिं जौं नर कर विस्वास।
गाइ राम गुन गन बिमल भव तर बिनहिं प्रयास।
प्रगट चारि पद धर्म के कलि महुं एक प्रधान।
जेन केन विधि दीन्हें दान करइ कल्यान।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि कलियुग में न तो योग और यज्ञ है और न ज्ञान ही है। श्री रामजी का गुणगान ही एकमात्र आधार है। अतएव सारे भरोसे त्यागकर जो श्रीराम जी को भजता है और प्रेम सहित उनके गुण समूहों को गाता है, वही भव सागर से तर जाता है, इसमें कुछ भी संदेह नहीं। नाम का प्रताप कलियुग में प्रत्यक्ष है। कलियुग का एक पवित्र प्रताप (महिमा) है कि मानसिक पुण्य तो होते हैं लेकिन मानसिक पाप नहीं होते। इस प्रकार यदि मनुष्य विश्वास करे तो कलियुग के समान दूसरा युग ही नहीं है क्योंकि इस युग में श्रीराम जी के निर्मल गुण समूहों को गा-गाकर मनुष्य बिना ही किसी परिश्रम के संसार रूपी समुद्र को पार कर लेता है। धर्म के चार चरण (सत्य, दया, तप और दान) प्रसिद्ध हैं जिनमें से कलियुग में एक दान रूपी चरण ही प्रधान है, जिस किसी प्रकार से भी दान दिये जाने पर वह कल्याण ही करता है।
नित जुग धर्म होहिं सब केरे, हृदयं राम माया के प्रेरे।
सुद्ध सत्व समता विग्याना, कृत प्रभाव प्रसन्न मन जाना।
सत्व बहुत रज कछु रति कर्मा, सब विधि सुखत्रेता कर
धर्मा।
बहु रज स्वल्प सत्व कछु तामस, द्वापर धर्म हरष भय मानस।
तामस बहुत रजो गुन थोरा, कलि प्रभाव विरोध चहुँ ओरा।
बुध जुग धर्म जानि मन माहीं, तजि अधर्म रति धर्म कराहीं।
काल धर्म नहिं व्यापहिं ताही, रघुपति चरन प्रीति अति जाही।
नट कृत बिकट कपट खगराया, नट सेवकहिं न ब्यापइ माया।
हरि माया कृत दोष गुन बिनु हरि भजन न जाहिं।
भजिअ राम तजि काम सब अस विचारि मन माहिं।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी। श्रीराम जी की माया से प्रेरित होकर सबके हृदय में सभी युगों के धर्म नित्य होते रहते हैं। शुद्ध, सत्व गुण, समता, विज्ञान और मन का प्रसन्न होना, इसे सत्य युग का ही प्रभाव जानें। सत्व गुण अधिक हो, कुछ रजोगुण हो, कर्मों में प्रीति हो सब प्रकार से सुख हो- यही त्रेता का धर्म है। रजोगुण बहुत हो, सत्व गुण बहुत ही थोड़ा हो, कुछ तमोगुण हो, मन में हर्ष और भय हो, तो यह द्वापर का धर्म है और तमोगुण बहुत हो, रजोगुण थोड़ा हो, चारो ओर वैर-विरोध हो तो यही कलियुग का प्रभाव है। पंडित लोग युगों के धर्म को मन में जानकर, अधर्म छोड़कर धर्म में प्रीति करते हैं। जिसका श्री रघुनाथ जी के चरणों में अत्यंत प्रेम है, उसको काल धर्म (युग धर्म) नहीं व्यापते। हे पक्षीराज गरुड़, नट अर्थात् बाजीगर का किया गया कपट, चरित्र (इन्द्रजाल) देखने वाले के लिए तो बड़ा बिकट (दुर्गम) होता है लेकिन उस नट के सेवक (जमूरे) को उसकी माया नहीं व्यापती। श्री हरि की माया के रचे हुए दोष और गुण श्री हरि के भजन के बिना नहीं जाते। मन में ऐसा बिचार कर और सब कामनाओं को छोड़कर अर्थात् निष्काम भाव से श्रीराम जी का भजन करना चाहिए।
तेहिं कलिकाल बरष बहु बसेउँ अवध विहगेस।
परेउ दुकाल बिपति बस तब मैं गयउँ बिदेस।
गयउँ उजेनी सुनु उरगारी, दीन मलीन दरिद्र दुखारी।
गएं काल कछु संपति पाई, तहं पुनि करउँ संभु सेवकाई।
बिप्र एक बैदिक सिव पूजा, करइ सदा तेहिकाजु न दूजा।
परम साधु परमारथ विंदक, संभु उपासक नहिं हरि निंदक।
तेहि सेवउंँ मैं कपट समेता, द्विज दयाल अति नीति निकेता।
बाहिज नम्र देखि मोहि साईं, बिप्र पढ़ाव पुत्र की नाईं।
संभु मंत्र मोहि द्विज वर दीन्हा, सुभ उपदेस विविध विधि कीन्हा।
जपऊँ मंत्र सिव मंदिर जाई, हृदय दंभ अहमिति अधिकाई।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे पक्षीराज, उस कलिकाल में मैं बहुत वर्षों तक अयोध्या में रहा। एक बार वहां अकाल पड़ा तो विपत्ति का मारा विदेस चला गया। विदेस का मतलब अपना घर छोड़कर बाहर जाना माना जाता था। हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी सुनिए, मैं दीन, मलीन (उदास) दरिद्र और दुखी होकर उज्जैन गया। कुछ समय बीतने पर वहां मुझे कुछ सम्पत्ति मिली और मैं वहीं भगवान शंकर की आराधना करने लगा। वहीं पर एक ब्राह्मण वेद विधि से सदा शंकर जी की पूजा करते थे उन्हें और कोई काम नहीं था। वे परम साधु और परमार्थ के ज्ञाता थे। वे शंभु के उपासक थे लेकिन श्री हरि (विष्णु) की कभी भी निंदा नहीं करते थे। मैं कपट पूर्वक उनकी सेवा करता। ब्राह्मण बड़े ही दयालु और नीति के घर थे। हे गरुड़जी, बाहर से नम्र देखकर ब्राह्मण मुझे पुत्र की भांति पढ़ाते थे। उन ब्राह्मण श्रेष्ठ ने मुझको शिवजी का मंत्र दिया और अनेक प्रकार के शुभ उपदेश भी किये। मैं शिवजी के मंदिर में जाकर मंत्र जपता लेकिन मेरे हृदय में दम्भ और अहंकार बहुत बढ़ गया था। -क्रमशः (हिफी)