अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी अब अपनी कथा सुना रहे हैं कि उज्जैनी में किस तरह वे अभिमान सहित शिव की पूजा करते थे और दूसरे देवों की निंदा करते। उनके ब्राह्मण गुरु भी शंकर जी की पूजा करते थे लेकिन हरि (विष्णु) की निंदा कभी नहीं करते थे। इसलिए जब उनके विप्र गुरु ने शंकर जी को भगवान विष्णु का सेवक कह दिया तो शूद्र रूप में जन्मे कागभुशुंडि का हृदय जल उठा। इसी अभिमान में एक बार जब वे मंदिर में शंकर जी की पूजा कर रहे थे तो गुरु के आगमन को जानकर भी उन्होंने उनका सम्मान न करते हुए प्रणाम नहीं किया। यह देखकर शंकर जी क्रोधित हुए और कागभुशुंडि को श्राप दे दिया। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी पहले जन्म के अपने स्वभाव को बता रहे हैं-
मैं खलमल संकुल मति नीच जाति बस मोह।
हरिजन द्विज देखें जरउँ करउँ विष्नु कर द्रोह।
गुर नित मोहि प्रबोध दुखित देखि आचरन मम।
मोहि उपजइ अति क्रोध दंभिहि नीति की भावई।
एक बार गुर लीन्ह बोलाई, मोहि नीति बहु भांति सिखाई।
सिव सेवा कर फल सुत सोई, अविरल भगति राम पद होई।
रामहिं भजहिं तात सिव
धाता, नर पावँर कै केतिक बाता।
जासु चरन अज सिव अनुरागी, तासु द्रोह सुख चहसि अभागी।
हर कहुं हरि सेवक गुर कहेऊ, सुनि खगनाथ हृदय मम दहेऊ।
अधम जाति मैं विद्या पाएं, भयउँ जथा अहि दूध पिआएं।
मानी कुटिल कुभाग्य कुजाती, गुर कर द्रोह करउँ दिनु राती।
अति दयाल गुर स्वल्प न क्रोधा, पुनि पुनि मोहि सिखाव सुबोधा।
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी से अपने पूर्व जन्म की कथा सुनाते हुए कहते हैं मैं दुष्ट, नीच जाति और पापमयी मलिन बुद्धि वाला मोहवश श्री हरि के भक्तों और ब्राह्मणों को देखकर जल उठता था और विष्णु भगवान से द्रोह करता था। गुरु जी मेरे आचरण देखकर दुखी थे और मुझे नित्य ही भलीभांति समझाते, पर मैं कुछ भी नहीं समझता उल्टे मुझे अत्यन्त क्रोध उत्पन्न होता क्योंकि दंभी को कभी भी नीति अच्छी नहीं लगती। एक बार गुरु ने मुझे बुलाया और बहुत प्रकार से परमार्थ (नीति) की शिक्षा दी- हे पुत्र, शिवजी की सेवा का फल यही है कि श्रीराम जी के चरणों में प्रगाढ़ भक्ति हो। हे तात शिवजी और ब्रह्माजी भी श्रीराम जी को भजते हैं, फिर नीच मनुष्य की तो बात ही क्या है? ब्रह्माजी और शिवजी जिनके चरणों के प्रेमी हैं अरे अभागे, उनसे द्रोह करके तू सुख चाहता है? गुरु जी ने शिवजी को हरि का सेवक कहा, यह सुनकर हे पक्षीराज, मेरा हृदय जल उठा। नीच जाति का मैं विद्या पाकर ऐसा हो गया जैसा दूध पिलाने से सांप। अभिमानी, कुटिल, दुर्भाग्य और कुजाति मैं दिन-रात गुरु जी से द्रोह करता। गुरु जी अत्यन्त दयालु थे, उनको थोड़ा सा भी क्रोध नहीं आता था। मेरे द्रोह करने पर भी वे मुझे उत्तम ज्ञान की ही शिक्षा देते।
जेहि ते नीच बड़ाई पावा, सो प्रथमहि हति ताहि नसावा।
धूम अनल संभव सुनुभाई, तेहि बुझाव धन पदवी पाई।
रजमग परी निरादर रहई, सब कर पद प्रहार नित सहई।
मरुत उड़ाव प्रथम तेहि भरई, पुनि नृप नयन किरीटन्हि परई।
सुनु खगपति अस समुझि प्रसंगा, बुध नहिं करहिं अधम कर संगा।
कवि कोविद गावहिं असि नीती, खल सन कलह न भल नहिं प्रीती।
उदासीन नित रहिअ गोसाईं, खल परिहरिअ स्वान की नाई।
मैं खल हृदयं कपट कुटिलाई, गुरहित कहइ न मोहि सोहाई।
एक बार हर मंदिर जपत रहेउँ सिव नाम।
गुर आयउ अभिमान तें उठि नहिं कीन्ह प्रनाम।
सो दयाल नहि कहेउ कछु उर न रोष लवलेस।
अति अघ गुर अपमानता सहि नहिं सके महेस।
कागभुशुंडि जी गरुड़ को नीच व्यक्ति का स्वभाव बता रहे हैं। वे कहते हैं कि नीच व्यक्ति जिससे बड़प्पन पाता है, वह सबसे पहले उसी को मारकर उसी का नाश करता है। हे भाई सुनिए, आग से उत्पन्न हुआ धुआं मेघ की पदवी पाकर उसी अग्नि को बुझा देता है।
धूल रास्ते में निरादर से पड़ी रहती है और सदैव राहगीरों के लातों की मार सहती रहती है।
लेकिन जब पवन उसे उड़ाता अर्थात् ऊंचे उठाता है तो सबसे पहले वह उसी पवन को धूल से भर देती है और फिर राजाओं के नेत्र और उनके मुकुट तक में पड़ती है। हे पक्षीराज गरुड़ सुनिए, ऐसी बात समझ कर बुद्धिमान लोग अधम (नीच) का साथ नहीं करते। कवि और पंडित ऐसी नीति कहते हैं कि दुष्ट से न झगड़ा ही ठीक है और न मित्रता। हे, गोसाईं, नीच से तो सदा उदासीन ही रहना चाहिए। दुष्ट को कुत्ते की तरह दूर से ही त्याग देना चाहिए। मैं दुष्ट था, हृदय में कपट और कुटिलता भरी थी, इसलिए मेरे गुरु यद्यपि मेरे हित की बात कहते थे लेकिन वह मुझे अच्छी नहीं लगती थी। एक दिन मैं शिव जी के मंदिर में शिवनाम जप रहा था, उसी समय गुरु जी वहां आए लेकिन अभिमान के चलते मैंने गुरु को उठकर प्रणाम नहीं किया। गुरु जी दयालु थे। मेरा दोष देखकर भी उन्होंने कुछ नहीं कहा। उनके हृदय में लेशमात्र को क्रोध नहीं हुआ लेकिन गुरु का अपमान बहुत बड़ा पाप है, यह देखकर महादेव जी सहन नहीं कर सके।
मंदिर माझ भई नभ बानी, रे हतभाग्य अग्य अभिमानी।
जद्यपि तव गुर कें नहिं क्रोधा, अति कृपाल चित सम्यक बोधा।
तदपि साप सठ दैहउँ तोही, नीति विरोध सोहाइ न मोही।
जौं नहिं दंड करौं खल तोरा, भ्रष्ट होइ श्रुति मारग मोरा।
जे सठ गुर सन इरिषा करहीं, रौरव नरक कोटि जुग परहीं।
त्रिजग जोनि पुनि धरहिं सरीरा, अयुत जन्म भरि पावहिं पीरा।
बैठि रहेसि अजगर इव पापी, सर्प होहि खल मल मति व्यापी।
महा विटप कोटर महुं जाई, रहु अधमाधम अधगति पाई।
शंकर जी क्रोधित हुए तो मंदिर के मध्य आकाशवाणी हुई कि अरे हतभाग्य, मूर्ख, अभिमानी, यद्यपि तेरे गुरु को
क्रोध नहीं है, वे अत्यंत कृपालु चित्त के हैं और उन्हें यथार्थ ज्ञान है, तो भी हे मूर्ख तुझको मैं श्राप दूंगा। नीति का विरोध मुझे अच्छा नहीं लगता। अरे दुष्ट, अगर मैं तुझे दण्ड नहीं देता हूं तो मेरा वेदमार्ग ही भ्रष्ट हो जाएगा। जो मूर्ख गुरु से ईष्र्या करते हैं वे करोड़ों युगों तक रौरव नरक में पड़े रहते हैं, फिर वहां से निकलकर तिर्यक (पशु-पक्षी आदि) योनियों में शरीर
धारण करते हैं और दस हजार जन्मों तक दुख पाते रहते हैं। अरे पापी, तू गुरु के सामने अजगर की भांति बैठा रहा। रे दुष्ट, तेरी बुद्धि पाप से
ढंक गयी है, इसलिए तू सर्प हो जा और अरे अधम से अधम, इस सर्प की नीची गति (अधोगति) को पाकर
किसी बड़े भारी पेड़ के खोखले में जाकर रह। -क्रमशः (हिफी)

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