अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

रामचरित मानस तब भाषा

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

गरुड़ जी ने कागभुशुंडि जी से पूछा था कि यह जो प्रभु श्रीराम का चरित्र आपने मुझे सुनाया है, उसे कहां से पाया था, उसी का जवाब देते हुए कागभुशुंडि जी ने पूर्व जन्म की कथा सुनाई और कहा कि जब लोमश मुनि ने श्राप दिया तो में कौआ बनकर बिना कोई विषाद किये वहां से उड़ चला। इसके बाद लोमश मुनि की बुद्धि को भगवान राम ने प्रेरित किया और मुनि ने कागभुशुंडि जी को पुनः बुलाकर प्रभु श्रीराम की कथा सुनाई। शंकर जी ने पार्वती जी को भी यह प्रसंग सुनाया था और बताया कि श्री रामचन्द्र जी के चरणों में जिनका प्रेम होता है, वे क्रोध से रहित होते हैं और सभी को राममय ही देखते हैं। कागभुशुंडि जी को लोमश मुिन ने यह वरदान भी दिया था कि तुम्ह जहां निवास करोगे, वहां कभी अज्ञान, मोह आदि नहीं ठहर सकेंगे। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
उमा जे राम चरन रत विगत काम मद क्रोध।
निज प्रभुमय देखहिं जगत केहि सन करहिं विरोध।
भगवान शंकर पार्वती जी को यह प्रसंग सुनाते हुए कहते हैं कि हे पार्वती, जो श्रीराम जी के चरणों के प्रेमी और काम, क्रोध, अभिमान से रहित हैं, वे जगत को अपने प्रभु से भरा हुआ अर्थात् सभी को ईश्वर का स्वरूप मानते हुए आचरण करते हैं, तब किसी से बैर करने का प्रश्न ही नहीं उठता। इसीलिए कागभुशुंडि को जब लोमश मुनि ने कौआ बनने का श्राप दिया, तब वे हर्षित होकर ही चले थे।
सुनु खगेस नहि कछु रिषि दूषन, उर प्रेरक रघुवंस विभूषन।
कृपा सिंधु मुनि मति करि भोरी, लीन्ही प्रेम परिच्छा मोरी।
मन बच क्रम मोहि निज जन जाना, मुनि मति पुनि फेरी भगवाना।
रिषि मम महत सीलता देखी, राम चरन विस्वास बिसेषी।
अति बिसमय पुनि पुनि पछिताई, सादर मुनि मोहि लीन्ह बोलाई।
मम परितोष बिविधि विधि कीन्हा, हरषित राम मंत्र तब दीन्हा।
बालक रूप राम कर ध्याना, कहेउ मोहि मुनि कृपा निधाना।
सुंदर सुखद मोहि अति भावा, सो प्रथमहि मैं तुम्हहि सुनावा।
मुनि मोहि कछुक काल तहँ राखा, रामचरित मानस तब भाषा।
सादर मोहि यह कथा सुनाई, पुनि बोले मुनि गिरा सुहाई।
राम चरित सर गुप्त सुहावा, संभु प्रसाद तात मैं पावा।
तोहि निज भगत राम कर जानी, ताते मैं सब कहेउँ बखानी।
राम भगति जिन्ह के उर नाहीं, कबहुँ न तात कहिअ तिन्ह पाहीं।
मुनि मोहि विविध भांति समुझावा, मैं सप्रेम मुनि पद सिरु नावा।
निज कर कमल परसि मम सीसा, हरषित आसिष दीन्ह मुनीसा।
राम भगति अविरल उर तोरे, बसिहि सदा प्रसाद अब मोरे।
सदा राम प्रिय होहु तुम्ह सुभ गुन भवन अमान।
काम रूप इच्छा मरन ग्यान बिराग निधान।
जेहिं आश्रम तुम्ह बसब पुनि सुमिरत श्री भगवंत।
ब्यापिहि तहँ न अविद्या जोजन एक प्रजंत।
कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि हे पक्षीराज गरुड़ जी सुनिए कि मुनि लोमश ने मुझे जो श्राप दिया, उसमें उनका कोई दोष नहीं था। रघुवंश के विभूषण श्रीराम जी ही सबके हृदय मंे प्रेरणा करने वाले हैं। उन्हीं कृपा सागर श्रीराम ने मुनि की बुद्धि को भोली करके (भुलावा देकर) मेरे प्रेम की परीक्षा ली थी। मन, वचन और कर्म से जब प्रभु ने मुझे अपना सेवक (दास) जान लिया, तब भगवान ने ही मुनि की बुद्धि फिर से पलट दी। ऋषि ने मेरा महान पुरुषों सा स्वभाव अर्थात् मेरा धैर्य, क्रोध न करना और विनय आदि देखी और श्रीराम के चरणों में मेरा विशेष विश्वास देखा, तब मुनि ने बहुत दुख के साथ बार-बार पछता कर मुझे आदर पूर्वक बुला लिया। उन्होंने अनेक प्रकार से मेरा संतोष किया और तब हर्षित होकर मुझे राम मंत्र दिया। कृपानिधान मुनि ने मुझे बालक रूप श्रीराम जी का ध्यान (ध्यान विधि) बतलाया। सुन्दर और सुख देने वाला यह ध्यान मुझे बहुत ही अच्छा लगा। वही ध्यान मैं तुम्हें पहले ही सुना चुका हूं। मुनि ने कुछ समय तक मुझे वहीं रखा, तब उन्होंने रामचरित मानस का वर्णन किया। आदर पूर्वक मुझे यह कथा सुनाकर फिर मुनि मुझसे सुन्दर शब्दों में बोले- हे तात, यह सुन्दर और गुप्त रामचरित मानस मैंने शिव जी की कृपा से पाया था। श्रीराम जी का निज भक्त जानकर तुम्हें सब चरित्र बिस्तार से सुनाया है। हे तात, जिनके हृदय में श्रीराम जी की भक्ति नहीं है, उनके सामने इसे कभी भी नहीं कहना चाहिए। मुनि ने मुझे बहुत प्रकार से समझाया, तब मैंने प्रेम के साथ मुनि के चरणों में सिर नवाया। मुनीश्वर ने अपने कर-कमलों से मेरा सिर स्पर्श किया और हर्षित होकर आशीर्वाद दिया कि अब मेरी कृपा से तेरे हृदय में सदा प्रगाढ़ राम भक्ति बसेगी। तुम सदैव श्री रामजी को प्रिय होगे और कल्याण रूप गुणों के धाम, मानरहित इच्छानुसार रूप धारण करने वाले इच्छा मृत्यु में समर्थ अर्थात् तुम्हारी मृत्यु तुम्हारी इच्छा के अनुसार ही होगी, तुम ज्ञान एवं बैराग्य के भंडार होंगे। तुम जिस आश्रम में निवास करोगे, भगवान का स्मरण करते हुए जहां भी रहोगे, वहां से एक योजन अर्थात् चार कोस तक अविद्या अर्थात् माया-मोह का कोई प्रभाव नहीं रहेगा।
काल कर्म गुन दोष सुभाऊ, कछु दुख तुम्हहि न व्यापिहि काऊ।
राम रहस्य ललित बिधि नाना, गुप्त प्रगट इतिहास पुराना।
बिनु श्रम तुम्ह जानब सब सोऊ, नित नव नेह राम पद होऊ।
जो इच्छा करिहहु मन माहीं, हरि प्रसाद कछु दुर्लभ नहीं।
सुनि मुनि आसिष सुनु मतिधीरा, ब्रह्म गिरा भइ गगन गंभीरा।
एवमस्तु तव बच मुनि ग्यानी, यह मम भगत कर्म मन बानी।
सुनि नभ गिरा हरष मोहि भयऊ, प्रेम मगन सब संसय गयऊ करि बिनती मुनि आयसु पाई, पद सरोज पुनि पुनि सिरु नाई।
हरष सहित एहि आश्रम आयउँ, प्रभु प्रसाद दुर्लभ बर पायउँ।
इहांँ बसत मोहि सुनु खगईसा, बीते कलप सात अरु बीसा।
कागभुशुंडि जी से मुनि लोमश ने यह भी कहा कि हे तात, काल, कर्म, गुण दोष और स्वभाव से उत्पन्न कुछ भी दुख तुम्हें नहीं होगा। अनेक प्रकार के सुंदर श्रीराम जी के रहस्य (गुप्त मर्म के चरित्र और गुण), इतिहास और पुराणों में वर्णित किये गये हैं, तुम उन सबको भी बिना ही परिश्रम के जान जाओगे। श्रीराम जी के चरणों में तुम्हारा नित्य नया प्रेम होगा। अपने मन में तुम जो भी इच्छा करोगे, श्री हरि की कृपा से उसकी पूर्ति में कोई बाधा नहीं आएगी। हे धीरबुद्धि गरुड़ जी, सुनिए। मुनि का आशीर्वाद सुनकर आकाश में ब्रह्मवाणी हुई कि हे ज्ञानी मुनि, तुम्हारा बचन सत्य होगा। यह कर्म और बचन, मन से मेरा भक्त है। आकाशवाणी सुनकर मुझे बड़ा हर्ष हुआ। मैं प्रेम में मग्न हो गया और मेरा सब संदेह जाता रहा। इसके बाद मुनि की विनती करके, आज्ञा पाकर और उनके चरण कमलों में बार-बार सिर नवाकर मैं हर्ष सहित इस आश्रम में आ गया। प्रभु श्रीराम की कृपा से मैंने दुर्लभ वर पाया। हे पक्षीराज, मुझे यहां निवास करते हुए 27 कल्प बीत गये हैं। -क्रमशः (हिफी)

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