अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

ग्यानहि भगतिहि अंतर केता

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी गरुड़ जी से बता रहे हैं कि उन्होंने किस प्रकार से कौए का शरीर पाया और उसी शरीर से उन्होंने रामचरित मानस सुना। इसके बाद वे नीलगिरि के आश्रम में आये और रघुपति का गुणगान करते रहते हैं जिसे तमाम पक्षी सुनते हैं। इस तरह से 27 कल्प बीत चुके हैं और जब-जब अयोध्या में श्रीराम अवतार लेते हैं तो उनकी बाललीला देखने मैं अयोध्या जाता हूं। गरुड़ जी इस कथा को सुनकर बहुत खुश हुए और कहा एक प्रश्न मेरे मन में उठता है कि वेद-पुराण मुनीश्वर सभी कहते हैं कि ज्ञान सबसे श्रेष्ठ है और मुनि लोमश वही ज्ञान आपको देना चाहते थे लेकिन आपने उसे नहीं लिया, इसका क्या कारण था? तब कागभुशुंडि जी ने ज्ञान और भक्ति के बारे में गरुड़ जी को बताया। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि अपने आश्रम में कब आए और क्या किया-
करउँ सदा रघुपति गुन गाना, सादर सुनहिं विहंग सुजाना।
जब जब अवधपुरी रघुबीरा, धरहिं भगत हित मनुज सरीरा।
पुनि उर राखि रामसिसुरूपा, निज आश्रम आवउँ खग भूपा।
कथा सकल मैं तुम्हहि सुनाई, काग देह जेहिं कारन पाई।
कहिउँ तात सब प्रस्न तुम्हारी, राम भगति महिमा अति भारी।
ताते यह तन मोहि प्रिय भयउ राम पद नेह।
निज प्रभु दरसन पायउँ गए सकल संदेह।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि 27 कल्पों से मैं इसी आश्रम में रह रहा हूं और मैं यहां सदैव श्री रघुनाथ जी के गुणों का गान किया करता हूँ और चतुर पक्षी उसे ध्यानपूर्वक सुनते हैं। अयोध्यापुरी में जब जब श्री रघुबीर भक्तों के हित के लिए मनुष्य शरीर
धारण करते हैं, तब-तब मैं जाकर श्रीराम जी की नगरी में रहता हूं और प्रभु की शिशुलीला को देखकर सुख प्राप्त करता हूं। फिर हे पक्षीराज, श्रीराम जी के शिशुरूप को हृदय मंे रखकर मैं अपने आश्रम में आ जाता हूँ। कागभुशुंडि जी ने कहा कि मैंने जिस कारण कौए की देह पायी, वह सारी कथा आपको सुना दी है और हे तात, आपके सभी प्रश्नों का उत्तर भी दिया कि इस आश्रम में क्यों माया-मोह नहीं रहता, अज्ञान नहीं फटकता और मेरी मृत्यु कभी नहीं होती। उन्होंने कहा, देखो तो राम भक्ति की महिमा कितनी भारी है। मुझे अपना कौए का शरीर इसीलिए प्यारा है, क्योंकि इसी शरीर से मुझे श्रीराम के चरणों में प्रेम प्राप्त हुआ। इसी शरीर से मैंने अपने प्रभु के दर्शन पाए और मेरे सब संदेह जाते रहे।
भगति पच्छ हठ करि रहेउँ दीन्हि महारिषि साप।
मुनि दुर्लभ बर पायउँ देखहु भजन प्रताप।
जे असि भगति जानि परिहरहीं, केवल ग्यान हेतु श्रम करहीं।
ते जड़ कामधेनु गृहं त्यागी, खोजत आकुफिरहिं पय लागी।
सुनु खगेस हरि भगति बिहाई, जे सुख चाहहिं आन उपाई।
ते सठ महासिंधु बिनु तरनी, पैरि पार चाहहिं जड़ करनी।
सुनि भुसुंडि के बचन भवानी, बोलेउ गरुड़ हरषि मृदुबानी।
तव प्रसाद प्रभु मम उर माहीं, संसय सोक मोह भ्रम नाहीं।
सुनेउँ पुनीत राम गुन ग्रामा, तुम्हारी कृपां लहेउँ विश्रामा।
एक बात प्रभु पूँछउँ तोही, कहहु बुझाइ, कृपानिधि मोही।
कहहिं संत मुनि वेद पुराना, नहिं कछु दुर्लभ ग्यान समाना।
सोइ मुनि तुम्ह सन कहेउ गोसाईं, नहिं आदरेहु भगति की र्नाइं।
ग्यानहि भगतिहि अंतर केता, सकल कहहु प्रभु कृपा निकेता।
सुनि उरगारि बचन सुख माना, सादर बोलेउ काग सुजाना।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि मैं हठ करके भक्ति पक्ष पर अड़ा रहा, जिससे महर्षि लोमश ने मुझे श्राम दिया लेकिन उसका फल यह हुआ कि जो मुनियों को भी दुर्लभ है, वह वरदान मैंने पाया, भजन का प्रताप तो देखिए। जो भक्ति की ऐसी महिमा जानकर भी उसे छोड़ देते हैं और केवल ज्ञान के लिए श्रम (साधन) करते हैं, वे मूर्ख घर पर खड़ी हुई कामधेनु को छोड़कर दूध के लिए मदार के पेड़ को खोजते फिरते हैं। हे पक्षीराज सुनिए, जो लोग श्री हरि की भक्ति को छोड़कर दूसरे उपायों से सुख चाहते हैं, वे मूर्ख और जड़ करनी वाले हैं। बिना ही जहाज के तैरकर महासमुद्र के पार जाना चाहते हैं।
शंकर जी पार्वती जी को कागभुशुंडि और गरुड़ का संवाद सुनाते हुए कहते हैं कि हे भवानी, कागभुशुंडि के बचन सुनकर गरुड़ बहुत हर्षित हुए और कोमल वाणी में बोले- हे प्रभो, आपके प्रसाद से मेरे हृदय में अब संदेह, शोक, मोह और भ्रम कुछ भी नहीं रह गया है। मैंने आपकी कृपा से श्री रामचन्द्र जी के गुण समूहों को सुना और शांति प्राप्त की। हे प्रभो, अब मैं आपसे एक बात और पूछता हूं। हे कृपासागर, मुझे समझाकर कहिए। संत, मुनि, वेद और पुराण यह कहते हैं कि ज्ञान के समान दुर्लभ और कुछ नहीं है, हे गोसाईं वही ज्ञान मुनि लोमश ने आपसे कहा था लेकिन आपने भक्ति के समान उसमें आदर नहीं किया। हे कृपा के धाम, हे प्रभो, ज्ञान और भक्ति में कितना अंतर है, यह सब मुझसे कहिए। गरुड़ जी के बचन सुनकर सुजान कागभुशुंडि जी ने सुख माना और आदर के साथ इसका जवाब दिया।
भगतिहि ग्यानहि नहिं
कछु भेदा, उभय हरहिं भव
संभव खेदा।
नाथ मुनीस कहहिं कछु अंतर, सावधान सोउ सुनु बिहंगवर।
ग्यान बिराग जोग विग्याना, ए सब पुरुष सुनहु हरिजाना।
पुरुष प्रताप प्रबल सब भांती, अबला अबल सहज जड़ जाती।
पुरुष त्यागि सक नारिहि जो विरक्त मति धीर।
न तु कामी विषयाबस बिमुख जो पद रघुबीर।
सोउ मुनि ग्यान निधान मृगनयनी बिधु मुख निरखि।
बिबस होइ हरिजान नारि विष्नु माया प्रगट।
कागभुशुंडि जी ने गरुड़ से कहा कि भक्ति और ज्ञान में कुछ भी भेद नहीं है। दोनों ही संसार से उत्पन्न क्लेशों को हरने वाले हैं। हे नाथ, मुनीश्वर इनमें कुछ अंतर बतलाते हैं। हे पक्षिश्रेष्ठ, उसे सावधान होकर सुनो। हे हरि के वाहन गरुड़ जी सुनिए, ज्ञान, बैराग्य, योग, विज्ञान- ये सभी पुरुष हैं और पुरुष का प्रताप सभी प्रकार से प्रबल होता है। अबला (माया) स्वाभाविक ही निर्बल और जाति-जन्म से ही जड़ (मूर्ख) होती है। लेकिन जो बैराग्यवान और धीर पुरुष होते हैं, वहीं स्त्री को त्याग सकते हैं और कामी पुरुष, जो विषय-वासना के वश में हैं, और श्री रघुवीर के चरणों से बिमुख हैं, वे माया रूपी स्त्री के वश में ही रहते हैं। हे ज्ञान के भंडार गरुड़ जी, मुनि भी मृगनयनी (युवती स्त्री) के चन्द्र मुख को देखकर उसके अधीन हो जाते हैं। हे गरुड़ जी साक्षात भगवान विष्णु की माया ही स्त्री के रूप में प्रकट हुई है। -क्रमशः (हिफी)

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