अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सुनहु तात यह अकथ कहानी

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को ज्ञान और भक्ति के बारे में बता रहे हैं। उन्होंने बताया कि ज्ञान, वैराग्य, योग, विज्ञान आदि पुरुष वर्ग हैं और माया, भक्ति आदि सब स्त्री वर्ग में हैं। विरक्त और धैर्यवान लोग माया से बच जाते हैं लेकिन बाकी सभी को माया अपने प्रभाव में ले लेती है। भक्ति भी स्त्री के रूप में है और एक स्त्री दूसरी स्त्री पर मोहित नहीं होती। इसके साथ ही भक्ति श्री रघुबीर को विशेष रूप से प्यारी है। इससे माया उससे डरती रहती है। कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे तात, यह अकथ कहानी है, जो समझते ही बनती है इसका वर्णन करना मुश्किल होता है। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
इहां न पच्छपात कछु राखउँ, वेद पुरान संत मत भाषउँ।
मोह न नारि नारि के रूपा, पन्न गारि यह रीति अनूपा।
माया भगति सुनहु तुम्ह दोऊ, नारि वर्ग जानइ सब कोऊ।
पुनि रघुबीरहि भगति पिआरी, माया खलु नर्तकी बिचारी।
भगतिहि सानुकूल रघुराया, ताते तेहि डरपति अति माया।
राम भगति निरुपम निरुपाधी, बसइ जासु उर सदा अबाधी।
तेहि बिलोकि माया सकुचाई, करि न सकइ कछु निज प्रभुताई।
अस बिचारि जे मुनि विग्यानी, जाचहिं भगति सदा सुख खानी।
रह रहस्य रघुनाथ कर बेगि न जानइ कोइ।
जो जानइ रघुपति कृपाँ सपनेहुँ मोह न होइ।
कागभुशंुडि जी कहते हैं कि हे गरुड़ जी, यहां मैं कोई पक्षपात नहीं कर रहा हूँ। वेद पुराण और संतों का मत (सिद्धांत) ही कहता हूं। यह अनुपम विलक्षण रीति है कि एक स्त्री के रूप पर दूसरी स्त्री मोहित नहीं होती है। हे गरुड़ जी आप सुनिये कि माया और भक्ति दोनों ही स्त्री वर्ग की हैं। यह बात सब कोई जानते हैं। इसके साथ ही श्री रघुबीर को भक्ति प्यारी है। माया बेचारी तो निश्चय ही नाचने वाली स्त्री मात्र है। श्री रघुनाथ जी भक्ति के विशेष अनुकूल रहते हैं, इसी से माया भक्ति से अत्यंत डरती रहती है। जिसके हृदय में उपमा रहित और उपाधि रहित (बिशुद्ध) राम भक्ति सदैव बिना किसी बाधा के रहती है, उसे देखकर माया सकुचा जाती है। उस पर वह अपनी प्रभुता कुछ भी नहीं दिखा पाती है। ऐसा विचार कर ही जो विज्ञानी मुनि हैं, वे भी सब सुखों की खान भक्ति की ही याचना करते हैं। श्री रघुनाथ का यह रहस्य जल्दी कोई भी नहीं जान पाता है। श्री रघुनाथ जी की कृपा से जो इसे जान पाता है, उसे स्वप्न में भी कभी मोह नहीं होता है।
औरउ ग्यान भगति कर भेद सुनहु सुप्रवीन।
जो सुनि होइ राम पद प्रीति सदा अविछीन।
सुनहु तात यह अकथ कहानी, समुझत बनइ न जाइ बखानी।
ईस्वर अंस जीव अविनासी, चेतन अमल सहज सुखरासी।
सो माया बस भयउ गोसाईं,
बंध्यो कीर मरकट की नाईं।
जड़ चेतनहिं गं्रथि परि गई, जदपि मृषा छूटत कठिनई।
तब ते जीव भयउ संसारी, छूट न ग्रंथि न होइ सुखारी।
श्रुति पुरान बहु कहेउ उपाई, छूट न अधिक अधिक अरुझाई।
जीव हृदय तम मोह बिसेषी, ग्रंथि छूट किमि जाइ न देखी।
अस संजोग ईस जब करई, तबहुँ कदाचित सो निरुअरई।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे सुचतुर गरुड़ जी, ज्ञान और भक्ति का और भी भेद सुनिए, जिसके सुनने से श्री रामचन्द्र जी के चरणों में सदा एक तार (अविच्छिन्न) प्रेम हो जाता है। हे तात, यह अकथनीय कहानी है, उसे सुनिए। यह समझते ही बनती है, कही नहीं जा सकती। जीव ईश्वर का अंश है, इसलिए वह अविनाशी, चेतन निर्मल और स्वभाव से ही सुख की राशि है। हे गोसाईं, वह (जीव) माया के वश होकर तोते और वानर की भांति अपने आप ही बंध गया है। इस प्रकार जड़ और चेतन में ग्रंथि पड़ गयी। यद्यपि यह गांठ झूठ मूठ की है लेकिन उसके छूटने में बड़ी कठिनता है, तभी से जीव संसारी अर्थात् जन्मने और मरने वाला हो गया है। अब न तो वह गांठ छूटती है और न वह सुखी होता है। वेदों और पुराणों ने बहुत से उपाय बताए हैं लेकिन गांठ छूट ही नहीं रही है बल्कि और अधिक उलझती जाती है क्योंकि जीव के हृदय में अज्ञान रूपी अंधकार विशेष रूप से छा गया है इससे गांठ दिखाई ही नहीं पड़ती तो वह छूटेगी कैसे? जब कभी ईश्वर ऐसा संयोग करता है जैसा कि आगे कहा गया है, तभी कदाचित वह गांठ छूट पाती है।
सात्विक श्रद्धा धेनु सुहाई, जौं हरि कृपा हृदयं बस आई।
जप तप ब्रत जम नियम अपारा, जे श्रुति कह सुभधर्म अचारा।
तेइ तृन हरित चरइ जब गाई, भाव बच्छ सिसु पाइ पेन्हाई।
नोइ निवृत्ति पात्र बिस्वासा, निर्मल मन अहीर निज दासा।
परम धर्ममय पय दुहि भाई,
अवटै अनल अकाम बनाई।
तोष मरुत तब छमाँ जुड़ावै,
धृति सम जावनु देइ जमावै।
मुदिता मथै बिचार मथानी, दम अधार रजु सत्य सुबानी।
तब मथि काढ़ि लेइ नवनीता, बिमल विराग, सुभग सुपनीता।
जोग अगिनि करि प्रगट तब कर्म सुभासुभ लाइ बुद्धि सिरावै ग्यान
धृत ममता मल जरि जाइ।
तब विज्ञान रूपिनी बुद्धि बिसद घृत पाइ।
चित्त दिया भरि धरै दृढ़ समता दिअटि बनाइ।
तीनि अवस्था तीनि गुन तेहिं कपास ते काढ़ि।
तूल तुरीय संवारि पुनि बाती करै सुगाढ़ि।
एहि बिधि लेसै दीप तेजरासि विग्यानमय।
जातहिं तासु समीप जरहिं मदादिक सलभ सब।
वह गांठ कैसे दिखेगी और छूटेगी, इसके लिए हृदय में उजाला करना पड़ेगा। यह उजाला कैसे होगा, इसके बारे में कागभुशुंडि जी बताते हैं कि श्री हरि की कृपा से यदि सात्विक श्रद्धा रूपी गाय हृदय रूपी घर में आकर बस जाए, असंख्य जप, तप, व्रत, यम, नियमादि शुभ धर्म और आचार, जो श्रुतियों ने कहे हैं, उन्हीं धर्म के आचरण रूपी हरे तिनके (घास) को जब वह गाय चरे और आस्तिक भाव रूपी बछड़े को पाकर वह पेन्हावे अर्थात् दूध देने को तैयार हो जाए। निवृत्ति (सांसारिक विषयों और प्रपंच से हटना) नोई (गाय को दुहते समय पिछले पैर में बांधने की रस्सी) बनाई जाए, बिश्वास दूध दुहने का बर्तन हो, निर्मल (निष्पाप) मन, जो स्वयं अपना दास है अर्थात् अपने वश में है, दुहने वाला अहीर हो। हे भाई, इस प्रकार से परम धर्ममय दूध दुहकर उसे निष्काम भाव रूपी अग्नि पर भलीभांति औटावें अर्थात् पकाएं, फिर क्षमा और संतोष रूपी हवा से उसे ठण्डा करें और धैर्य तथा शम (मन का निग्रह) रूपी जामन देकर उसे जमा दें। इस प्रकार बने दही को मुदिता (प्रसन्नता) रूपी कमोरी (बर्तन) में तत्व विचाररूपी मथानी से दम (इन्द्रिय दमन) के आधार पर दमरूपी खंभे आदि के सहारे सत्य और सुन्दर वाणी रूपी रस्सी लगाकर मथ लें। मथकर उसमें से निर्मल सुंदर और अत्यंत पवित्र वैराग्य रूपी मक्खन निकाल लें। इसके बाद योग रूपी अग्नि प्रकट करके उसमें समस्त शुभाशुभ कर्म रूपी ईंधन लगाएं अर्थात् कर्मों को योग रूपी अग्नि में भस्म कर दें। जब वैराग्यरूपी मक्खन का ममतारूपी मल जल जाए तब बचे हुए ज्ञान रूपी घी को निश्चय रूपी बुद्धि से ठंडा करें। तब विज्ञान रूपिणी बुद्धि उस ज्ञान रूपी निर्मल घी को पाकर उससे चित्त रूपी दिये (दीपक को भरकर, समता की दीवट (जहां दीपक रखते हैं) उस पर उसे दृढ़तापूर्वक जमाकर रखे। जागृति, सुसुप्त और स्वप्न ये तीनों अवस्थाएं और सत्व, रज और तम तीनों गुणों रूपी कपास से तुरीयावस्था वाली रुई को निकाल कर फिर उसे संवार कर उसकी सुंदर कड़ी बत्ती बना लें इस प्रकार तेज की राशि विज्ञानमय दीपक को जलावें, जिसके समीप जाते ही मद-मोह आदि सभी पतंगे जल जाएं। -क्रमशः (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button