अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

बिघ्न अनेक करइ तब माया

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी गरुड़ जी को बता रहे हैं कि ज्ञान का मार्ग कितना कठिन है। हृदय में छाये अंधकार की वजह से ईश्वर और जीव के बीच जो गांठ पड़ गयी है, वह दिखाई नहीं पड़ता। हृदय मंे उजाला करने के लिए किस प्रकार से दीपक जलाया जाए, यह उन्होंने बताया। अब दीपक के उजाले में वह गांठ तो दिखाई पड़ने लगती है लेकिन तब माया अनेक प्रकार से विघ्न पैदा करती है। शरीर में इन्द्रियों के द्वार पर अनेक देवता बिराजमान हैं और देवता सुखों का भोग करने वाले हैं। वे इन्द्रियों के झरोखे खोल देते हैं जिससे हवा आती है और दीपक बुझ जाता है। उस दीपक को पुनः उसी प्रकार की कठिन साधना से जलाया जा सकता है। परम सयानी बुद्धि ही उस दीपक को बचा सकती है। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
सोहमस्मि इति बृत्ति अखंडा, दीप सिखा सोइ परम प्रचंडा।
आतम अनुभव सुख सुप्रकासा, तब भव मूल भेद भ्रम नासा।
प्रबल अविद्या कर परिवारा, मोह आदि तम मिटइ अपारा।
तब सोइ बुद्धि पाइ उजियारा, उर गृहँ बैठि ग्रंथि निरुआरा।
छोरन ग्रंथि पाव जौं सोई, तब यह जीव कृतारथ होई।
छोरत ग्रंथि जानि खगराया, विघ्न अनेक करइ तब माया।
रिद्धि सिद्धि प्रेरइ बहु भाई, बुद्धिहि लोभ दिखावहिं आई।
कल बल छल करि जाहिं समीपा, अंचल वात बुझावहि दीपा।
होइ बुद्धि जौं परम सयानी, तिन्ह तन चितव न अनहित जानी।
जौं तेहि विघ्न बुद्धि नहिं बाधी, तौ बहोरि सुर करहिं उपाधी।
इन्द्री द्वार झरोखा नाना, तहँ तहँ सुर बैठे करि थाना।
आवत देखहि विषय बयारी, ते हठि देहिं कपाट उधारी।
जब सो प्रभंजन उर गृह जाई, तबहि दीप बिग्यान बुझाई।
ग्रंथि न छूटि मिटा सो प्रकासा, बुद्धि विकल भइ विषय बतासा।
इन्द्रिह सुरन्ह न ग्यान सोहाई, विषय भोग पर प्रीति सदाई।
विषय समीर बुद्धि कृत भोरी, तेहि विधि दीप को बार बहोरी।
तब फिरि जीव बिबिधि बिधि पावइ संसृति क्लेस।
हरि माया अति दुस्तर तरि न जाइ बिहगेस।
कहत कठिन समुझत कठिन साधत कठिन बिबेक।
होइ घुनाच्छर न्याय जौं पुनि प्रत्यूह अनेक।
कागभुशुंडि जी गरुड़ से कहते हैं कि इस प्रकार आत्म अनुभव के सुंदर प्रकाश से वह गांठ दिखती है और चतुर बुद्धि उसे खोल देती है। तब यह अनुभव होता है कि सोऽहमास्मि अर्थात् वह ब्रह्म मैं हूं। यह तो अखंड (तैल धारा व्रत कभी न टूटने वाली) वृत्ति है, वही उस ज्ञान दीपक की परम प्रचण्ड दीप शिखा (लौ) है। आत्मानुभव के सुख का सुंदर प्रकाश जब फैलता है तब संसार के मूल भेद रूपी भ्रम का नाश हो जाता है और महान बलवती अविद्या के परिवार मोह आदि का अपार अंधकार मिट जाता है तब वही विज्ञान रूपिणी बुद्धि आत्मानुभव रूपी प्रकाश को पाकर हृदय रूपी घर में बैठकर उस जड़-चेतन की गांठ को खोलती है। यदि वह विज्ञानरूपिणी बुद्धि उस गांठ को खोल दे तो यह जीव कृतार्थ हो लेकिन हे पक्षीराज गरुड़ जी, गांठ खोलते हुए जानकर माया अनेक विघ्न करती है। हे भाई, तब माया बहुत सी रिद्धि-सिद्धियों को भेजती है जो आकर बुद्धि को लोभ दिखातीं औरवे रिद्धि-सिद्धि कल (कला), बल और छल करके समीप जाती और आॅचल की वायु से ज्ञान रूपी दीपक को बुझा देती हैं। यदि बुद्धि बहुत ही सयानी हुई तो वह उन रिद्धि-सिद्धियों को अहितकर समझकर उनकी ओर देखती ही नहीं। इस प्रकार यदि माया के विघ्नों से बुद्धि को गांठ खोलने में कोई बाधा न हुई तो फिर देवता उपाधि (विघ्न) करते हैं। इन्द्रियों के द्वार हृदयरूपी घर के अनेक झरोखे हैं। प्रत्येक झरोखे पर देवता थाना (अड्डा) जमाये हैं, ज्यों ही वे विषय रूपी हवा को आते देखते हैं, त्यों ही हठपूर्वक किंवाड़ खोल देते हैं। इस प्रकार जैसे ही वह तेज हवा हृदयरूपी घर में जाती है, त्यों ही वह विज्ञान रूपी दीपक बुझ जाता है। इस प्रकार गांठ भी नहीं छूटी और वह आत्मानुभव रूपी प्रकाश भी मिट गया। विषय रूपी हवा से बुद्धि व्याकुल हो गयी अर्थात् सारा किया कराया चैपट हो गया। इन्द्रियों और उनके देवताओं को स्वाभाविक रूप से ज्ञान अच्छा नहीं लगता क्योंकि उनकी विषय-वासना में सदा ही प्रीति रहती है और बुद्धि को भी विषय रूपी हवा ने बावला बना दिया है, तब फिर दुबारा उस ज्ञान दीपक को उसी प्रकार से कौन जलावे? इस प्रकार ज्ञान दीप के बुझ जाने पर जीव अनेक प्रकार से संसृति अर्थात् जन्म-मरण के कष्ट पाता है। हे पक्षीराज, श्री हरि की
माया अत्यंत कठिन (दुस्तर) है, उसे सहज ही में पार नहीं पाया जा
सकता। ज्ञान कहने अर्थात समझाने
में कठिन है, समझने में कठिन है
और साधने में भी कठिन है। यदि
घुणाक्षर न्याय से संयोगवश कदाचित यह ज्ञान हो भी जाए तो फिर उसे बचाये रखने में अनेक विघ्न आते हैं।
ग्यानपंथ कृपान की धारा, परत खगेस होइ नहिं बारा।
जौं निर्विघ्न पंथ निर्बहई, सो कैवल्य परम पद लहई।
अति दुर्लभ कैवल्य परम पद, संत पुरान निगम आगम बद।
राम भजत सोइ मुकुति गोसाईं, अनइच्छित आवइ बरिआई।
जिमि थल बिनु जल रहि न सकाई, कोटि भांति कोउ करै उपाई।
तथा मोच्छ सुख सुनु खगराई, रहि न सकइ हरि भगति बिहाई।
अस बिचारि हरि भगत सयाने, मुक्ति निरादर भगति लुभाने।
भगति करत बिनु जतन प्रयासा, संसृति मूल अविद्या नासा।
भोजन करिअ तृपिति हित लागी, जिमि सो असन पचवै जठरागी।
असि हरि भगति सुगम सुखदायी, को अस मूढ़ न जाहि सोहाई।
कागभुशुंडि जी ज्ञान के बारे में गरुड़ जी को समझाते हुए कह रहे हैं कि ज्ञान का मार्ग दुधारी तलवार के समान है, हे पक्षीराज इस मार्ग से गिरते देर नहीं लगती। जो इस मार्ग को निर्विघ्न पार कर जाता है, वही कैवल्य अर्थात् परम मोक्ष को प्राप्त करता है। संत-पुराण वेद और तंत्र आदि शास्त्र सभी यह कहते हैं कि कैवल्प रूप परम पद अत्यंत दुर्लभ है लेकिन हे गोसाईं वही अत्यंत दुर्लभ मुक्ति श्रीराम जी का भजन करने से बिना इच्छा किये भी जबर्दस्ती आ जाती है। जैसे स्थल के बिना जल नहीं रह सकता, चाहे कोई करोड़ों प्रकार के उपाय क्यों न करे, वैसे ही हे पक्षीराज, सुनिये, मोक्ष सुख श्री हरि की भक्ति को छोड़कर नहीं रह सकता। ऐसा बिचार कर बुद्धिमान हरिभक्त भक्ति पर मुग्ध होकर मुक्ति का तिरस्कार कर देते हैं। भक्ति करने से संसृति (जन्म-मृत्यु रूपी संसार) की जड़ अबिद्या बिना ही यत्न और
परिश्रम के अपने आप वैसे ही नष्ट हो जाती है जैसे भोजन किया तो जाता है तृप्ति के लिए और उस भोजन को जठराग्नि अपने आप (बिना हमारी चेष्टा के) पचा डालती है, ऐसी सुगम और परम सुख देने वाली हरिभक्ति जिसे न अच्छी लगे, ऐसा मूर्ख कौन हो
सकता है? -क्रमशः (हिफी)

 

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button