
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
गरुड़ जी ने जब भक्ति और ज्ञान के विषय में कागभुशुंडि जी से समझ लिया, तब उन्होंने विनय पूर्वक सात प्रश्न पूछे थे। इनमें पहला प्रश्न था कि संसार में सबसे दुर्लभ शरीर कौन है? कागभुशंुडि जी ने बताया था कि लाखों योनियों में जीव भ्रमण करता रहता है। इसलिए गरुड़ जी ने यह सवाल पूछा। इसके अलावा गरुड़ जी ने यह भी पूछा कि सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा दुख क्या है? संत-असंत, पुण्य-पाप और मानस रोगों के बारे में भी गरुड़ जी ने जानने की इच्छा प्रकट की। कागभुशुंडि जी ने इन सभी प्रश्नों का उत्तर दिया। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
प्रथमहि कहहु नाथ मति
धीरा, सब ते दुर्लभ कवन सरीरा।
बड़ दुख कवन कवन सुख भारी, सोउ संछेपहि कहहु विचारी।
संत असंत मरम तुम्ह जानहु, तिन्हकर सहज सुभाव बखानउ।
कवन पुन्य श्रुति विदित बिसाला, कहहु कवन अध परम कराला।
मानस रोग कहहु समुझाई, तुम्ह सर्वग्य कृपा अधिकाई।
गरुड़ जी ने कागभुशुंडि से कहा कि हे नाथ, हे धीर बुद्धि, पहले तो यह बताइए कि सबसे दुर्लभ कौन सा शरीर है? फिर बिचार कर संक्षेप में यह बताइए कि सबसे बड़ा दुख कौन है और सबसे बड़ा सुख कौन है? संत और असंत का मर्म (भेद) भी आप जानते हैं, उनके सहज स्वभाव का वर्णन कीजिए, फिर यह कहिए कि श्रुतियों में प्रसिद्ध सबसे महान पुण्य कौन है और सबसे बड़ा भयंकर पाप कौन है? इसके बाद मानस रोगों को समझाकर कहिए। आप सर्वज्ञ हैं और मुझ पर आपकी कृपा भी बहुत है, इसलिए मेरे प्रश्नों का समाधान करिए।
तात सुनहु सादर अति प्रीती, मैं संछेप कहउँ यह नीती।
नर तन सम नहिं कवनिउ देही, जीव चराचर जाँचत तेही।
नरक स्वर्ग अपवर्ग निसेनी, ग्यान विराग भगति सुभ देनी।
सो तनु धरि हरि भजहिं न जे नर, होहिं विषय रत मंद मंद तर।
कांच किरिच बदलें ते लेहीं, कर ते डारि परस मनि देहीं।
नहिं दरिद्र सम दुख जग माहीं, संत मिलन सम सुख जग नाहीं।
पर उपकार वचन मन काया, संत सहज सुभाउ खगराया।
संत सहहिं दुख परहित लागी, पर दुख हेतु असंत अभागी।
भूर्ज तरू सम संत कृपाला, परहित निति सह विपति बिसाला।
सन इव खल पर बंधन करई, खाल कढ़ाइ विपति सहि मरई।
खल बिनु स्वारथ पर अपकारी, अहि मूषक इव सुनु उरगारी।
पर संपदा बिनासि नसाहीं, जिमि ससि हति हिम उपल विलाहीं।
दुष्ट उदय जग आरति हेतू, जथा प्रसिद्ध अधम ग्रह केतू।
संत उदय संतत सुखकारी, बिस्व सुखद जिमि इंदु
तमारी।
परम धर्म श्रुति बिदित अहिंसा, पर निंदा सम अघ न गरीसा।
कागभुशुंडि जी गरुड़ से कहते हैं कि हे तात अत्यंत आदर और प्रेम के साथ सुनिए, मैं इन प्रश्नों के उत्तर (नीति) संक्षेप में कहता हूं। मनुष्य शरीर के समान कोई शरीर नहीं है। चर-अचर सभी जीव इसी शरीर की याचना करते हैं। यह मनुष्य शरीर नरक, स्वर्ग और मोक्ष की सीढ़ी है तथा कल्याणकारी ज्ञान, वैराग्य और भक्ति को देने वाला है। ऐसे मनुष्य शरीर को धारण करके भी जो लोग श्री हरि का भजन नहीं करते और नीच से नीच विषयों में अनुरक्त रहते हैं, वे पारस मणि को हाथ से फंेक देते हैं और बदले में कांच के टुकड़े ले लेते हैं। इसके बाद दूसरे व अन्य प्रश्नों का उत्तर देते हुए कागभुशुंडि जी कहते हैं कि जगत में दरिद्रता के समान कोई दुख नहीं है तथा संतों के मिलन के समान जगत में कोई सुख नहीं है और हे पक्षीराज, मन, बचन और शरीर से परोपकार करना, यह संतों का सहज स्वभाव है। संत दूसरों की भलाई के लिए दुख सहते हैं और अभागे असंत दूसरों को दुख पहुंचाने के लिए। कृपालु संत भोज के वृक्ष के समान दूसरों के हित के लिए भारी विपत्ति सहते हैं। इसका तात्पर्य है कि भोज वृक्ष की छाल पर पहले लिखा जाता था, इसलिए यहां कहा गया कि दूसरे के हित के लिए भोज वृक्ष अपनी खाल तक उधड़वा लेते हैं लेकिन दुष्ट लोग सनई (एक प्रकार का पौधा जिससे सुतली रस्सी बनाते हैं) की भांति दूसरों को बांधते हैं और उन्हें बांधने के लिए अपनी खाल खिंचवाकर विपत्ति सहकर मर जाते हैं। हे सर्पों के शत्रु गरुड़ जी सुनिए, दुष्ट बिना किसी स्वार्थ के सांप और चूहे के समान अकारण ही दूसरों का अपकार करते हैं। वे परायी सम्पत्ति का नाश करके स्वयं भी नष्ट हो जाते है जैसे खेती का नाश करके ओले भी नष्ट हो जाते हैं। दुष्ट का अभ्युदय (उन्नति) प्रसिद्ध अधम ग्रह केतु के उदय की भांति जगत के दुख के लिए ही होता है जबकि संतों का अभ्युदय सदा ही सुखकर होता है जैसे चन्द्रमा और सूर्य का उदय विश्व भर के लिए सुखदायक है। वेदों में अहिंसा को परम धर्म माना गया है और पर निंदा के समान भारी पाप नहीं है।
हर गुर निंदक दादुर होई, जन्म सहस्त्र पाव तन सोई।
द्विज निंदक बहु नरक भोग करि, जग जनमइ बायस सरीर
धरि।
सुर श्रुति निंदक जो अभिमानी, रौरव नरक परहिं ते प्रानी।
होहिं उलूक संत निंदा रत, मोह निसा प्रिय ग्यान भानुगत।
सब कै निंदा जे जड़ करहीं, ते चमगादुर होइ अवतरहीं।
सुनहु तात अब मानस रोगा, जिन्ह ते दुख पावहिं सब लोगा।
पर निंदा को सबसे बड़ा पाप बताते हुए कागभुशुंडि जी कहते हैं कि शंकर जी और गुरु जी की निंदा करने वाला मनुष्य अगले जन्म में मेढक होता है और वह हजार जन्मों तक वही मेढक का शरीर पाता है। ब्राह्मणों की निंदा करने वाला व्यक्ति बहुत से नरक भोग कर फिर जगत में कौए का शरीर धारण करके जन्म लेता है। जो अभिमानी जीव देवताओं और वेदों की निंदा करते हैं, वे रौरव नरक में पड़ते हैं। संतों की निंदा में लगे लोग उल्लू होते हैं, जिन्हंे मोह रूपी रात्रि प्रिय होती है और ज्ञान रूपी सूर्य जिनके लिए बीत गया (अस्त हो गया) रहता है। जो मूर्ख मनुष्य सबकी निंदा करते हैं, वे चमगादड़ होकर जन्म लेते हैं। हे तात अब मानस रोग सुनिए, जिनसे सब लोग दुख पाया करते हैं। -क्रमशः (हिफी)