
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
नमामि भक्त वत्सलं, कृपालु शील कोमलं।
भजामि ते पदाम्बुजं, अकामिनां स्वधामदं।
निकाम श्याम सुन्दरं, भवांबुनाथ मंदरं।
प्रफुल्ल कंज लोचनं, मदादि दोष मोचनं।
प्रलंब बाहु विक्रमं, प्रभोऽप्रमेय वैभवं।
निषंग चाप सायकं, धरं त्रिलोक नायकं।
दिनेश वंश मंडनं, महेश चाप खंडनं।
मुनीन्द्र संत रंजनं, सुरारि वृंद भंजनं।
मनोज वैरि वंदितं, अजादि दंव सेवितं।
बिशुद्ध बोध बिग्रहं, समस्त दूषणा पहं।
नमामि इंदिरापति, सुखाकरं सतां गतिं।
भजे सशक्ति सानुजं, शची पति प्रियानुजं।
त्व दंध्रि मूल ये नराः, भजंति हीन मत्सराः।
पतंति नो भवार्ण वे, वितर्क वीचि संकुले।
विविक्त वासिनः सदा, भजंति मुक्त ये मुदा।
निरस्य इंद्रिया दिकं, प्रयांति ते गतिं स्वकं।
तमेकम द्भुतं प्रभंुं, निरीह मीश्वर विभुं।
जगद्् गुरुं च शाश्वतं, तुरीय मेव केवलं।
भजामि भाव वल्लभं, कुयोगिनां सुदुर्लभं।
स्वभक्त कल्प पादपं, समं सुसेव्य मन्वहं।
अनूप रूप भूपतिं, नतोअऽमुर्विजा पतिं।
प्रसीद में नमामि ते, पदाब्ज भक्ति देहि मे।
अत्रि मुनि कहते हैं- हे भक्त वत्सल, हे कृपालु, हे कोमल स्वभाव वाले, मैं आपको नमस्कार करता हूं। निष्काम पुरुषों को अपना परम धाम देने वाले आपके चरण कमलों को मैं भजता हूं। आप नितांत सुन्दर, श्याम शरीर, संसार रूपी समुद्र के मंथन के लिए मंदराचल रूप, फूले हुए कमल के समान नेत्र वाले और मद आदि दोषों को छुड़ाने वाले हैं हे प्रभो आपकी लम्बी भुजाओं का पराक्रम और आपका ऐश्वर्य बुद्धि से परे है। आप तरकस और धनुष वाण धारा करने वाले तीनों लोकों के स्वामी, सूर्यवंश के भूषण महादेव जी के
धनुष को तोड़ने वाले, मुनिराजों और संतों को आनंद देने वाले तथा देवताओं के शत्रु असुरों का नाश करने वाले हैं। आप कामदेव जी के शत्रु महादेव जी द्वारा वंदित, ब्रह्मा आदि देवताओं से संबित, विशुद्ध ज्ञानमय विग्रह और समस्त दोषों को नष्ट करने वाले हैं। हे लक्ष्मीपते, हे सुखों की खान और सत्पुरुषों की एकमात्र गति। मैं आपको नमस्कार करता हूं। हे शचीपति इन्द्र के प्रिय छोटे भाई (वावन जी) स्वरूपा शक्ति सीताजी और छोटे भाई लक्ष्मण जी सहित आपको मैं भजता हूं। जो मनुष्य मत्सर (डाह) रहित होकर आपके चरण कमलों का सेवन करते हैं, वे तर्क-वितर्क रूपी तरंगों से पूर्ण समुद्र में नहीं गिरते, जो एकान्तवासी पुरुष मुक्ति के लिए, इन्द्रियों का निग्रह करके प्रसन्नता पूर्वक आपका भजन करते हैं, वे अपनी गति (स्वरूपा) को प्राप्त होते हैं। उनको जो एक अद्वितीय अद्भंुत, प्रभु सर्व समर्थ, इच्छा रहित ईश्वर, व्यापक, जगतगुरु सनातन, तीनों गुणों से सर्वथा परे और केवल अपने स्वरूप में स्थित है तथा जो भावप्रिय कुयोगियों (विषयी पुरुषों) के लिए अत्यंत दुर्लभ, अपने भक्तों के लिए कल्पवृक्ष, पक्षपात रहित और सदा सुख पूर्वक सेवन करने योग्य हैं, मैं निरंतर उन्हें भजता हूं। हे अनुपम सुंदर, हे पृथ्वी पति, हे जानकी नाथ, मैं आपको प्रणाम करता हूं। मुझ पर प्रसन्न होइए। मैं आपको नमस्कार करता हूं। मुझे अपने चरण कमलों की भक्ति दीजिए।
पठंति ये स्तवंइदं, नरादरेण ते पदं।
व्रजंति नात्र संशयं, त्वदीय भक्ति संयुता।
अत्रि जी के माध्यम से गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो मनुष्य इस स्तुति को आदर पूर्वक पढ़ेंगे, वे आपकी भक्ति से युक्त होकर आपके परम पद को प्राप्त होंगे, इसमें कोई संदेह नहीं है। -क्रमशः (हिफी)