अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

मोह सकल ब्याधिन्ह कर मूला

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी ने गरुड़ को सात प्रश्नों के उत्तर दिये। सबसे दुर्लभ शरीर, सबसे बड़ा पाप, सबसे बड़ा पुण्य, सबसे बड़ा सुख और सबसे बड़ा दुख बताया। इसके बाद संत और असंतों के बारे में भी बिस्तार से समझाया। अंत में उन्होंने मानस रोग बताए। इस प्रसंग में मानस रोग और साथ ही प्रभु श्रीराम की भक्ति के बारे में फिर से चर्चा की। अभी तो कागभुशुंडि जी मानस रोगों की चर्चा कर रहे हैं-
मोह सकल व्याधिन्ह कर मूला, तिन्ह ते पुनि उपजहिं बहुसूला।
काम वात कफ लोभ अपारा, क्रोध पित्त नित छाती जारा।
प्रीति करहिं जौं तीनिउ भाई, उपजइ सन्यपात दुखदाई।
विषय मनोरथ दुर्गम नाना, ते सब सूल नाम को जाना।
ममता दादु कंडु इरषाई, हरष विषाद गरह बहुताई।
पर सुख देखि जरनि सोइ छई, कुष्ट दुष्टता मन कुटिलई।
अहंकार अति दुखद डमरुआ, दंभ कपट मदमान नेहरुआ।
तृष्ना उदरवृद्धि अति भारी, त्रिबिधि ईषना तरुन तिजारी।
जुग बिधि ज्वर मत्सर अविवेका, कहँ लगि कहौं कुरोग अनेका।
एक ब्याधि बस नर मरहिं, ए असाधि बहु व्याधि।
पीड़हिं संतत जीव कहुँ सो किमि लहै समाधि।
कागभुशुंडि जी गरुड़ को मानस रोगों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि मोह अर्थात् अज्ञान ही सभी रोगों की जड़ है। उन व्याधियों से फिर और बहुत से शूल उत्पन्न होते हैं। काम वात है, लोभ अपार कफ है और क्रोध पित्त हैं (ध्यान रहे कि होम्योपैथी में वात, कफ और पित्त को ही सभी बीमारियों का लक्षण माना जाता है)। पित्त सदैव छाती को जलाता रहता है। यदि कहीं ये तीनों भाई (वात, कफ और पित्त) आपस में मिल जाएं तो दुखदायक सन्निपात रोग उत्पन्न होता है। कठिनता से प्राप्त (पूर्ण) होने वाले जो विषयों के मनोरथ हंै, वह ही सब शूल (कष्टदायक रोग) हैं, उनके नाम कौन जान सकता है क्योंकि वे अपार हैं। ममता दाद है, ईष्र्या (डाह) खुजली है, हर्ष-विषाद गले के रोगों की अधिकता अर्थात् गलगंड, कण्ठमाला या घेंघा आदि रोग हैं। पराये सुख को देखकर जो जलन होती है वही क्षय (टीवी) है। दुष्टता और मन की कुटिलता ही कोढ़ है। अहंकार अत्यंत दुख देने वाला डमरू अर्थात् गांठ का रोग है। दम्भ, कपट, मद और मान नहरुआ अर्थात् नसों के रोग हैं। तृष्णा बड़ी भारी उदर वृद्धि अर्थात् जलोदर है। तीन प्रकार की इच्छाएं (पुत्र, धन और मान) ही तिजारी हैं। मत्सर और अविवेक दो प्रकार के ज्वर हैं। इस प्रकार अनेक बुरे रोग हैं जिन्हें कहां तक कहूं? एक ही रोग के वश होकर मनुष्य मर जाते हैं, फिर ये तो बहुत से
असाध्य रोग हैं। ये जीव को निरंतर कष्ट देते रहते हैं। ऐसी दशा में मनुष्य
समाधि अर्थात् शांति को कैसे प्राप्त कर सकता है?
नेम धर्म आचार तप ग्यान जग्य जप दान।
भेषज पुनि कोटिन्ह नहिं रोग जाहिं हरिजान।
एहि विधि सकल जीव जग रोगी, सोक हरष भय प्रीति वियोगी।
मानस रोग कछुक मैं गाए, हहिं सबके लखि बिरलेन्ह पाए।
जाने ते छीजहिं कछु पापी, नास न पावहिं जन परितापी।
विषय कुपथ्य पाइ अंकुरे, मुनिहु हृदयं का नर बापुरे।
राम कृपा नासहिं सब रोगा, जौं एहि भांति बनै संजोगा।
सदगुर वैद बचन विस्वासा, संजम यह न विषय कै आसा।
रघुपति भगति सजीवन मूरी, अनूपान श्रद्धा मति पूरी।
एहि विधि भलेहि सो रोग नसाहीं, नाहिं त जतन कोटि नहिं जाहीं।
जानिअ तब मन बिरुज गोसाईं, जब उर बल बिराग अधिकाई।
सुमति छुधा बाढ़इ नित नई, विषय आस दुर्बलता गई।
बिमल ग्यान जल जब सो नहाई, तब रह राम भगति उर छाई।
सिव अज सुक सनकादिक नारद, जे मुनि ब्रह्म विचार बिसारद।
सब कर मत खगनायक एहा, करिअ राम पद पंकज नेहा।
श्रुति पुरान सब ग्रंथ कहाहीं, रघुपति भगति बिना सुख नाहीं।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि नियम, धर्म, उत्तम आचरण, तप, ज्ञान, यज्ञ, जप, दान तथा और भी करोड़ों औषधियां हैं लेकिन हे गरुड़ जी, उनसे ये रोग नहीं जाते हैं। इस प्रकार जगत में समस्त जीव रोगी हैं जो शोक, हर्ष, भय, प्रीति और वियोग के दुख से और भी दुखी हैं। मैंने ये थोड़े से मानस रोग कहे हैं। ये रोग हैं तो सबको लेकिन इन्हें कोई बिरला ही जान पाता है। प्राणियों को जलाने वाले ये पापी रोग जान लिये जाने से कुछ क्षीण अवश्य हो जाते हैं लेकिन पूरी तरह नष्ट नहीं होते हैं। विषय रूपी कुपथ्य (अनाप-शनाप खान पान) पाकर वे मुनियों के हृदय में भी अंकुरित हो उठते हैं फिर सामान्य मनुष्य की बात ही क्या है? यदि श्रीरामजी की कृपा से ऐसा संयोग बने तो ये सभी रोग नष्ट हो जाएं। सदगुरू रूपी वैद्य के वचनों में विश्वास हो, विषयों की आशा न करें और संयम (परहेज) से रहें। श्री रघुनाथ जी की भक्ति संजीवनी जड़ी है। श्रद्धा से पूर्ण बुद्धि ही अनुपान (दवा के साथ लिये जाने वाले शहद आदि पदार्थ) हैं। इस प्रकार का संयोग बने तो वे रोग भले ही नष्ट हो जाएं, नहीं तो करोड़ों प्रयत्नों से नहीं जाते हैं। हे गोसाईं, मन को निःरोग हुआ तभी जानना चाहिए जब हृदय में वैराग्य का बल बढ़ जाए, उत्तम बुद्धि रूपी भूख नित नयी बढ़ती रहे और विषयों की आशा रूपी दुर्बलता मिट जाए। इस प्रकार सब रोगों से छूट कर जब मनुष्य निर्मल ज्ञान रूपी जल में स्नान कर लेता है, तब उसके हृदय में राम भक्ति छा जाती है। शिवजी, ब्रह्माजी, शुकदेव जी, सनकादि और नारद आदि ब्रह्म बिचारों में परम निपुण जो मुनि हैं, हे पक्षीराज, उन सबका मत यही है कि श्रीराम जी के चरण कमलों में प्रेम करना चाहिए। श्रुति (वेद) पुराण और सभी ग्रंथ कहते हैं कि श्री रघुनाथ जी की भक्ति के बिना सुख नहीं है।
कमठ पीठ जामहिं बरु बारा, बंध्या सुत बरु काहुहि मारा।
फूलहिं नभ बरु बहुविधि फूला, जीव न लह सुख हरि प्रतिकूला।
तृषा जाइ बरु मृगजल पाना, बरु जामहिं सस सीस विषाना।
अंधकार बरु रविहि नसावै, राम बिमुख न जीव सुख पावै।
हिम ते अनल प्रगट बरु होई, बिमुख राम सुख पाव न कोई।
वारि मथे घृत होइ बरु सिकता ते बरु तेल।
बिनु हरि भजन न भव तरिअ, यह सिद्धांत अपेल।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि कछुए की पीठ पर भले ही बाल उग आवें, बांझ का पुत्र भले ही किसी को मार डाले, आकाश में भले ही अनेक प्रकार के फूल खिल उठें अर्थात् सभी असंभव कार्य हो जाएं, लेकिन श्री हरि से बिमुख होकर कोई जीव सुख नहीं प्राप्त कर सकता। इसी प्रकार मृगतृष्णा के जल को पीकर भले ही प्यास बुझ जाए, खरगोश के सिर पर भले ही सींग निकल आएं,
अंधकार भले ही सूर्य का नाश कर दे लेकिन श्रीराम से विमुख होकर कोई सुख नहीं पा सकता है। बर्फ से भले ही अग्नि प्रकट हो जाए अर्थात् ये सभी अनहोनी बातें हो जाएं, फिर भी श्रीराम
से विमुख होकर कोई भी सुख नहीं
प्राप्त कर सकता। जल को मथने से
भले ही घी उत्पन्न हो जाए और बालू को पेरने से भले तेल निकल आये लेकिन श्री हरि के भजन बिना संसार रूपी समुद्र से नहीं पार हो सकते हैं, यह सिद्धांत अटल है। -क्रमशः (हिफी)

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