अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

राम भजिअ सब काज बिसारी

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

कागभुशुंडि जी गरुड़ को ज्ञान, भक्ति और मानस रोगों के बारे में बताते हुए कहते हैं कि बिना श्री हरि के भजन संसार रूपी समुद्र से नहीं पार पाया जा सकता है। उन्होंने कहा-गरुड़ जी मैंने श्री हरि का चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से तो कहीं संक्षेप में कहा है। वेदों का यही सिद्धांत है कि सब काम छोड़कर श्री राम का भजन करना चाहिए। मैं श्री रघुवीर के भजन का अधिकारी बन गया जबकि पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र माना जाता हूं लेकिन प्रभु ने मुझे सारे जगत को पवित्र करने वाला बना दिया। उनकी कृपा से ही आप जैसे संत का समागम हुआ और मैंने आपसे कुछ भी छिपाया नहीं हालंाकि श्रीराम का चरित्र तो ऐसे समुद्र की तरह है जिसकी कोई थाह नहीं पा सकता। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
मसकहिं करइ बिरंचि प्रभु अजहि मसक ते हीन।
अस विचारि तजि संसय, रामहिं भजहिं प्रबीन।
विनिश्चितं वदामि ते न अन्यथा वचांसि मे।
हरिं नरा भजन्ति येऽति दुस्तरं तरन्ति ते।
कागभुशुंडि जी गरुड़ से कहते हैं कि प्रभु मच्छर को ब्रह्मा कर सकते हैं और ब्रह्मा को मच्छर से भी तुच्छ बना सकते हैं। ऐसा विचार कर चतुर पुरुष सब संदेह त्याग कर श्रीराम जी को ही भजते हैं। मैं आपसे भलीभांति निश्चित किया हुआ सिद्धांत कहता हूं- मेरे वचन अन्यथा (मिथ्या) नहीं हैं कि जो मनुष्य श्री हरि का भजन करते हैं, वे अत्यंत दुस्तर संसार सागर को सहज ही पार कर जाते हैं।
कहेउँ नाथ हरि चरित अनूपा, ब्यास समास स्वमति अनुरूपा।
श्रुति सिद्धांत इहइ उरगारी, राम भजिअ सब काज बिसारी।
प्रभु रघुपति तजि सेइअ काही, मोहि से सठ पर ममता जाही।
तुम्ह विग्यान रूप नहिं मोहा, नाथ कीन्हि मो पर अति छोहा।
पूंछिहु राम कथा अति पावनि, सुक सनकादि संभु मन भावनि।
सत संगति दुर्लभ संसारा, निमिष दंड भरि एकउ बारा।
देखु गरुड़ निज हृदय विचारी, मैं रघुवीर भजन
अधिकारी।
सकुनाधम सब भांति अपावन, प्रभु मोहि कीन्ह बिदित जग पावन।
कागभुशुंडि जी गरुड़ से कहते हैं कि हे नाथ, मैंने श्री हरि का अनुपम चरित्र अपनी बुद्धि के अनुसार कहीं विस्तार से और कहीं संक्षेप में कहा है सर्पों के शत्रु गरुड़ जी, श्रुतियों (वेदों) का यही सिद्धांत है कि सब काम भुलाकर (छोड़कर) श्रीराम जी का भजन करना चाहिए। प्रभु श्री रामजी को छोड़कर और किसका सेवन (भजन) किया जाए, जिनका मुझ जैसे मूर्ख पर भी ममत्व (स्नेह) है। हे नाथ, आप तो विज्ञान स्वरूप हैं, आपको मोह नहीं है, आपने तो मुझ पर बड़ी कृपा की है, जो आपने मुझसे शुकदेव जी, सनकादि और शिवजी के मन को प्रिय लगने वाली अति पवित्र राम कथा पूछी। संसार में घड़ी भर का अथवा पल भर का एक बार का भी सत्संग दुर्लभ है। हे गरुड़ जी, अपने हृदय मे विचार कर देखिए, क्या मैं भी श्री रामजी के भजन का अधिकारी हूं? पक्षियों में सबसे नीच और सब प्रकार से अपवित्र हूं लेकिन ऐसा होने पर भी प्रभु ने मुझे सारे जगत को पवित्र करने वाला प्रसिद्ध कर दिया अर्थात प्रभु ने मुझको जगत प्रसिद्ध पावन कर दिया है।
आजु धन्य मैं धन्य अति जद्यपि सब विधि हीन।
निज जन जानि राम मोहि संत समागम दीन।
नाथ जथामति भाषेउँ, राखेउँ नहिं कछु गोइ।
चरित सिंधु रघुनायक, थाह कि पावइ कोइ।
कागभुशुंडि जी कहते हैं कि सब प्रकार से हीन (नीच) हूं तो भी आज मैं धन्य हूं, अत्यंत धन्य हूं जो श्रीराम जी ने मुझे अपना दास (निज जन) जानकर संत समागम अर्थात् आपसे मेरी भेंट कराई।
हे नाथ, मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार कहा, कुछ भी छिपाकर नहीं रखा फिर भी श्री रघुबीर के चरित्र समुद्र के समान हैं, क्या उनकी कोई थाह पा सकता है?
सुमिरि राम के गुन गन नाना, पुनि पुनि हरष भुसुंडि सुजाना।
महिमा निगम नेति करि गाई, अतुलित बल प्रताप प्रभुताई।
सिव अज पूज्य चरन रघुराई, मो पर कृपा परम मृदुलाई।
अस सुभाउ कहुँ सुनउँ न देखउँ, केहि खगेस रघुपति सम लेखउँ।
साधक सिद्ध विमुक्त उदासी, कवि कोबिद कृतग्य संन्यासी।
जोगी सूर सुतापस ग्यानी, धर्म निरत पंडित विग्यानी।
तरहिं न बिनु सेए मम स्वामी, राम नमामि नमामि नमामी।
सरन गएं मो से अघरासी, होहिं सुद्ध नमामि अविनासी।
जासु नाम भव भेषज, हरन घोर ़़त्रय सूल।
सो कृपाल मोहि तो पर सदा हरउ अनुकूल।
सुजान कागभुशुंडि जी श्री रामचन्द्र जी के बहुत से गुण समूहों का स्मरण करके बार-बार हर्षित हो रहे हैं, जिनकी महिमा वेदों ने नेति-नेति कहकर गायी है, जिनका बल, प्रताप और प्रभुत्व (सामथ्र्य) अतुलनीय है। जिन श्री रघुनाथ जी के चरण श्री शिवजी और ब्रह्मा जी द्वारा पूज्य हैं, उनकी मुझ पर कृपा होना उनकी परम कोमलता है। किसी का ऐसा स्वभाव कहीं न सुनता हूं, न देखता हूं। अतः हे पक्षीराज गरुड़ जी, मैं श्री रघुनायक के समान किसे समझूं? साधक, सिद्ध, जीवनमुक्त, उदासीन, विरक्त, कवि, विद्वान, कर्म (रहस्य) के ज्ञाता, संन्यासी, योगी, शूरवीर, बड़े तपस्वी, ज्ञानी, धर्मपरायण, पंडित और विज्ञानी- ये कोई भी मेरे स्वामी श्रीरामजी का सेवन (भजन) किये बिना नहीं तर सकते। मैं उन्हीं
श्रीराम जी को बार-बार नमस्कार करता हूं, जिनकी शरण जाने पर मुझ जैसे पापराशि भी शुद्ध (पापरहित) हो जाते हैं। उन अविनाशी श्रीराम जी को मैं नमस्कार करता हूं।
जिनका नाम जन्म और मरण रूपी रोग की अचूक औषध (दवा) और तीनों भयंकर पीड़ाओं (आधि दैविक, आधि भौतिक और आध्यात्मिक
दुखों) को हरने वाला है, वे कृपालु श्रीराम जी मुझ पर और आप पर प्रसन्न रहें।
सुनि भुसुंडि के वचन सुभ देखि राम पद नेह।
बोलेउ प्रेम सहित गिरा गरुड़ विगत संदेह।
कागभुशुंडि जी के मंगलमय बचन सुनकर और श्रीराम जी के चरणों में उनका अतिशय प्रेम देखकर संदेह से भलीभांति छूटे हुए गरुड़ जी प्रेम सहित बचन बोले। -क्रमशः (हिफी)

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