अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयं राखि रघुवीर

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

गरुड़ जी ने काग भुशुंडि जी से प्रभु श्रीराम की पावन कथा सुनी और उनके मन में जो भी प्रश्न उत्पन्न हुए, उन सबका उनको विस्तार से उत्तर मिल गया। उन्होंने ज्ञान, भक्ति और मानस रोगों के बारे में भी जानकारी प्राप्त कर ली। इस प्रकार गरुड़ परम प्रसन्न होकर कागभुशुंडि जी की तरह-तरह से प्रशंसा करते हुए बैकुंठ को चले गये। यही प्रसंग यहां पर बताया गया है।
मैं कृतकृत्य भयउं तव बानी, सुनि रघुवीर भगति रस सानी।
रामचरन नूतन रति भई, माया जनित विपति सब गई।
मोह जलधि बोहित तुम्ह भए, मो कहं नाथ विविध सुख दए।
मोपहि होइ न प्रति उपकारा, वंदउं तव पद बारहिं बारा।
पूरन काम राम अनुरागी, तुम्ह सम तात न कोउ बड़ भागी।
संत विटप सरिता गिरि
धरनी, परहित हेतु सबन्ह कै करनी।
संत हृदय नवनीत समाना, कहा कविन्ह परि कहै न जाना।
निज परिताप द्रवइ नवनीता, पर दुख द्रवहिं संत सु पुनीता।
जीवन जन्म सुफल मम भयऊ, तव प्रसाद संसय सब गयऊ।
जानेहु सदा मोहि निज किंकर, पुनि-पुनि उमा कहइ विहंग वर।
तासु चरन सिरु नाइ करि प्रेम सहित मतिधीर।
गयउ गरुड़ बैकुंठ तब हृदयं राखि रघुवीर।
भगवान शंकर पार्वती जी को गरुड़ और कागभुंशुंडि जी के मिलन का प्रसंग सुनाते हुए कहते हैं कि कागभुशुंडि से ज्ञान एवं भक्ति की बातंे सुनकर गरुड़ कहने लगे कि श्री रघुवीर के भक्ति रस से सनी हुई आपकी वाणी सुनकर मैं आपका ऋणी हो गया हूं। पूरी तरह से संतुष्ट हो गया। श्रीराम जी के चरणों में मेरी नवीन प्रीति हो गयी है और माया से उत्पन्न सारी विपत्ति चली गयी है। मोह रूपी समुद्र में डूबते हुए मेरे लिए आप जहाज बन गये। हे नाथ, आपने मुझे बहुत प्रकार से सुख दिये अर्थात परम सुखी कर दिया। मुझसे इसका प्रत्युपकार (उपकार के बदले में उपकार) नहीं हो सकता। मैं तो आपके चरणों की बार-बार वंदना ही करता हूं। आप पूर्ण काम हैं और रामचन्द्र जी के प्रेमी हैं। हे तात, आपके समान कोई बड़ भागी नहीं है। संत, वृक्ष, नदी, पर्वत और पृथ्वी-इन सबकी क्रिया पराये हित के लिए ही होती है। संतों का हृदय मक्खन के समान होता है, ऐसा कवियों ने कहा है लेकिन उन्होंने भी असली बात कहना नहीं जाना। क्योंकि मक्खन तो अपने को ताप मिलने से पिघलता है और परम पवित्र संत तो दूसरों के दुख से पिघल जाता है। मेरा जीवन और जन्म सफल हो गया आपकी कृपा से सब संदेह चला गया। मुझे सदा अपना सेवक (दास) ही जानिएगा। शंकर जी पार्वती से कहते हैं हे उमा पक्षी श्रेष्ठ गरुड़ जी बार-बार ऐसा कह रहे हैं। इसके बाद उन भुशुंडि जी के चरणों में प्रेम सहित सिर नवाकर और हृदय में श्री रघुवीर को धारण करके धीर बुद्धि गरुड़ जी तब बैकुण्ठ को चले गये।
गिरिजा संत समागम सम न लाभ कछु आन।
बिनु हरि कृपा न होइ सो गावहिं वेद पुरान।
कहेउं परम पुनीत इतिहासा, सुनत श्रवन छूटहिं भव पासा।
प्रनत कल्पतरु करुना पुंजा, उपजइ प्रीति राम पद कंजा।
मन क्रम बचन जनित अघ जाईं, सुनहिं जे कथा श्रवन मन लाई।
तीर्थाटन साधन समुदाई, जोग विराग ग्यान निपुनाई।
नाना कर्म धर्म ब्रत दाना, संजम दम जप तप मख नाना।
भूत दया द्विज गुर सेवकाई, विद्या विनय विवेक बड़ाई।
जहं लगि साधन वेद बखानी, सब कर फल हरि भगति भवानी।
सो रघुनाथ भगति श्रुति गाई, राम कृपा काहूं एक पाई।
शंकर जी कहते हैं कि हे पार्वती, संत समागम के समान दूसरा कोई लाभ नहीं है लेकिन यह संत समागम बिना हरि के नहीं हो सकता, ऐसा वेद और पुराण गाते हैं। मैंने यह परम पवित्र इतिहास कहा, जिसे कानों से सुनते ही संसार के बंधन छूट जाते हैं और शरणागतों को उनकी इच्छा के अनुसार फल देने वाले कल्पवृक्ष तथा दया के समूह श्रीराम जी के चरण कमलांे में प्रेम उत्पन्न होता है। जो कान और मन लगाकर इस कथा को सुनते है उनके मन, वचन और कर्म (शरीर) से उत्पन्न सभी पाप नष्ट हो जाते हैं। तीर्थ यात्रा आदि बहुत से साधन, योग, वैराग्य और ज्ञान में निपुणता, अनेक प्रकार के कर्म, धर्म, व्रत और दान, अनेक संयम, दम, जप, तप और यज्ञ, प्राणियों पर दया, ब्राह्मण और गुरु की सेवा, विद्या, विनय और विवेक की बड़ाई आदि जहां तक वेदों ने साधन बताये हैं, हे भवानी, उन सबका फल श्री हरि की भक्ति ही है। श्रुतियों (वेदों) में गायी हुई वह श्री रघुनाथ जी की भक्ति श्रीराम जी की कृपा से किसी एक (विरले) ने ही पायी है।
मुनि दुर्लभ हरि भगति नर पावहिं विनहिं प्रयास।
जे यह कथा निरंतर सुनहिं मानि विस्वास।
सोइ सर्वग्य गुनी सोइ ग्याता, सोइ महि मंडित पंडित दाता।
धर्म परायन सोइ कुल त्राता, रामचरन जाकर मन राता।
नीति निपुन सोइ परम सयाना श्रुति सिद्धांत नीक तेहिं जाना।
सोइ कवि कोविद सोइ
रनधीरा, जो छल छाड़ि भजहि रघुवीरा।
धन्य देस सो जहं सुरसरी,
धन्य नारि पतिव्रत अनुसरी।
धन्य सो भूपु नीति जो करई, धन्य सो द्विज निज धर्म न टरई।
सो धन धन्य प्रथम गति जाकी, धन्य पुन्यरत मति सोइ पाकी।
धन्य घरी सोइ जब सत्संगा, धन्य जन्म द्विज भगति अभंगा।
शंकर जी कहते हैं कि हे पार्वती जो मनुष्य विश्वास मानकर यह कथा निरंतर सुनते हैं, वे बिना ही परिश्रम उस मुनि दुर्लभ भक्ति को प्राप्त कर लेते हैं। जिसका मन श्रीराम जी के चरणों में अनुरक्त है वही सर्वज्ञ (सब कुछ जानने वाला) है वही गुणी है, वही ज्ञानी है, वही पृथ्वी का भूषण, पंडित और दानी है वही धर्म परायण है और वही कुल का रक्षक है। जो छल छोड़कर श्री रघुवीर का भजन करता है वही नीति में निपुण है वही परम बुद्धिमान है। उसी ने वेदों के सिद्धांत को भलीभांति जाना है, वही कवि है, वही विद्वान तथा वही रणधीर है। वह देश धन्य है जहां श्री गंगा जी हैं, वह स्त्री धन्य है जो पतिव्रत धर्म का पालन करती है। वह राजा धन्य है जो न्याय करता है और वह ब्राह्मण धन्य है जो अपने धर्म से नहीं डिगता। वह धन
धन्य है जिसकी पहली गति अर्थात दान देने की होती है। (जो धन दान देने में व्यय हो) धन की तीन गतियां होती हैं-दान, भोग और नाश। दान उत्तम है, भोग मध्यम और नाश नीच गति है जो पुरुष न दान देता है और न भोगता है उसके धन की तीसरी गति ही होती है। शंकर जी कहते हैं इसलिए धन की प्रथम गति ही सही है, इसके साथ वह बुद्धि धन्य और परिपक्व है जो पुण्य में लगी हो, वह घड़ी धन्य है जब सत्संग हो और वही जन्म धन्य है जिसमें विप्रजनों के प्रति अखंड भक्ति हो। -क्रमशः (हिफी)

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