
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस मंे श्रीराम की कथा संवादों के माध्यम से प्रस्तुत की हैं। महर्षि भरद्वाज का अतिशय प्रेम देखकर ही याज्ञवल्क्य मुनि ने कथा सुनाई। इसी प्रकार कागभुशुंडि जी ने गरुड़ जी के बारे मंे जब समझ लिया कि ये श्रीराम की कथा सुनने के अधिकारी हैं, तभी श्रीराम की पावन कथा सुनायी थी और उनके सभी प्रश्नों का उत्तर भी दिया। उन्होंने अपने बारे मंे भी कुछ नहीं छिपाया। इन्हीं संदर्भों का उल्लेख करते हुए भगवान शंकर पार्वती जी से कहते हें कि तुम्हारे मन मंे अतिशय प्रीति देखकर ही मैंने श्रीराम की कथा सुनाई है। इस कथा को धूर्त, हठी, ब्राह्मणों से द्रोह करने वाले को नहीं सुनाना चाहिए और जिन्हें सत्संगति प्यारी है वही इस कथा के अधिकारी हैं। यही प्रसंग यहां बताया गया है।
सोकुल धन्य उमा सुनु जगत पूज्य सुपुनीत।
श्री रघुबीर परायन जेहिं नर उपज बिनीत।
मति अनुरूप कथा मैं भाषी, जद्यपि प्रथम गुप्त करि राखी।
तव मन प्रीति देखि अधिकाई, तब मैं रघुपति कथा सुनाई।
यह न कहिअ सठही हठ सीलहि, जो मन लाइ न सुन हरि लीलहि।
कहिअ न लोभिहि क्रोधिहि कामिहि, जो न भजइ सचराचर स्वामिहि।
द्विज द्रोहिहि न सुनाइअ कबहूँ, सुरपति सरिस होइ नृप जबहँू।
राम कथा के तेइ अधिकारी, जिन्ह कंे सतसंगति अति प्यारी।
गुरपद प्रीति नीति रत जेई, द्विज सेवक अधिकारी तेई।
ता कहँ यह विशेष सुखदाई, जाहि प्रानप्रिय श्री रघुराई।
शंकर जी पार्वती जी से कहते हैं कि हे उमा सुनो, वह कुल धन्य है संसार भर के लिए पूज्य है और परम पवित्र है, जिसमंे श्री रघुबीर परायण (अनन्य राम भक्त) विनम्र पुरुष उत्पन्न हो। मैंने अपनी बुद्धि के अनुसार यह कथा कही। यद्यपि पहले इसको छिपाकर रखा था जब तुम्हारे मन मंे श्रीराम के प्रति प्रेम की अधिकता देखी, तब मैंने श्री रघुनाथ जी की यह कथा तुमको सुना दी। यह कथा उन लोगों से नहीं कहनी चाहिए जो शठ (धूर्त) हों, हठी स्वभाव के हों और श्री हरि की लीला को मन लगाकर न सुनते हों। लोभी, क्रोधी और कामी को, जो चराचर के स्वामी श्रीराम जी को नहीं भजते, यह कथा कभी नहीं कहनी चाहिए। ब्राह्मणों के द्रोही को, यदि वह देवराज (इन्द्र) के समान ऐश्वर्यवान राजा भी हो, तब भी यह कथा कभी न सुनानी चाहिए। श्रीराम की कथा के अधिकारी वे ही हैं जिनको सत्संगति अत्यंत प्रिय है। जिनकी गुरु के चरणों मंे प्रीति है, जो नीति परायण हैं
और ब्राह्मणों के सेवक हैं, वे ही
इसके अधिकारी हैं और उसको तो यह कथा बहुत ही सुखकारी है, जिसको श्री रघुनाथ जी प्राण के समान
प्यारे हैं।
रामचरन रति जो चह अथवा पद निर्बान।
भाव सहित सो यह कथा करउ श्रवन पुट पान।
राम कथा गिरिजा मैं बरनी, कलि मल समनि मनोमल हरनी।
संसृति रोग सजीवन मूरी, रामकथा गावहिं श्रुति सूरी।
एहि महँ रुचिर सप्त सोपाना, रघुपति भगति केर पंथाना।
अति हरि कृपा जाहि पर होई, पाउँ देइ एहिं मारग सोई।
मन कामना सिद्धि नर पावा, जे यह कथा कपट तजि गावा।
कहहिं सुनहिं अनुमोदन करहीं, ते गोपद इव भव निधि तरहीं।
सुनि सब कथा हृदय अति भाई, गिरिजा बोली गिरा सुहाई।
नाथ कृपाॅ मम गत संदेहा, राम चरन उपजेउ नव नेहा।
मैं कृतकृत्य भइउँ अब तव प्रसाद बिस्वेस।
उपजी राम भगति दृढ़, बीते सकल कलेस।
शंकर जी पार्वती जी को सम्पूर्ण कथा सुनाने के बाद कहते हैं कि जो श्रीराम जी के चरणों मंे प्रेम चाहता हो या मोक्ष पद चाहता हो, वह इस कथा रूपी अमृत को प्रेम पूर्वक अपने कान रूपी दोने से पी ले। हे गिरिजे, मैंने कलियुग के पापों का नाश करने वाली और मन के मल को दूर करने वाली राम कथा का वर्णन किया है। यह राम जी की कथा संसृति अर्थात् संसार मंे जन्म-मरण-रूपी रोग के नाश के लिए संजीवनी जड़ी है, वेद और विद्वान पुरुष ऐसा कहते हैं। इस श्रीराम कथा मंे सात सुन्दर सीढ़ियां हैं अर्थात् सात अध्याय मंे यह सुनाई गयी है और ये सातों अध्याय श्री रघुनाथ जी की भक्ति को प्राप्त करने के मार्ग हैं। श्री हरि की जिन पर अत्यंत कृपा होती है, वही इस मार्ग पर पैर रखता है। शंकर जी कहते हैं कि जो कपट छोड़कर यह कथा गाते हैं, वे मनुष्य अपने मन की कामना की सिद्धि पा लेते हैं, जो इसे कहते-सुनते और अनुमोदन अर्थात प्रशंसा करते हैं, वे संसार रूपी समुद्र को गौ के खुर से बने हुए गड्ढे के समान पार कर जाते हैं।
याज्ञवल्क्य जी ने भरद्वाज जी को शिव-पार्वती के संवाद के रूप मंे कथा सुनाई थी। उन्हांेने पहले शिवजी के प्रति भरद्वाज जी का प्रेम देखा और भगवान शिव के साथ सती जी के भ्रमण की कथा सुनाते हुए सती के मोह का प्रसंग सुनाया था, जबकि भरद्वाज जी ने उनसे पूछा था-
रामु कवन प्रभु पूछउँ तोही, कहिअ बुझाइ कृपानिधि मोही।
एक राम अवधेश कुमारा, तिन्ह के चरित विदित संसारा।
नारि बिरह दुखु लहेउ अपारा, भयउ रोषु रन रावनु मारा।
इसलिए सवाल उठता है कि याज्ञवल्क्य जी ने श्रीराम की कथा न सुनाकर शिवजी की कथा क्यों सुनाई? इसका उत्तर भी याज्ञवल्क्य जी ने दे दिया। शंकर जी की कथा सुनने के बाद भी जब भरद्वाज जी का श्रीराम की कथा सुनने के लिए प्रेम बना रहा, तब याज्ञवल्क्य जी ने कहा कि
प्रथमहि मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।
सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार।
यही बात शंकर जी ने पार्वती जी को भी कथा के अंत मंे बतायी है कि श्रीराम की कथा हर एक को नहीं सुनानी चाहिए। याज्ञवल्क्य जी ने भरद्वाज से कहा भगवान शिव से सब कथा सुनकर पार्वती जी के हृदय को बहुत ही प्रिय लगा और वे
सुंदर वाणी मंे बोलीं- स्वामी की कृपा से मेरा संदेह जाता रहा और श्रीराम जी के चरणों मंे नवीन प्रेम उत्पन्न हो गया। हे विश्वनाथ, आपकी कृपा से अब मैं कृतार्थ हो गयी
मुझमंे दृढ़ राम भक्ति उत्पन्न हो गयी और मेरे सम्पूर्ण क्लेश बीत गये हैं अर्थात् नष्ट हो गये और मैं परम प्रसन्न हूँ। -क्रमशः (हिफी)