अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

थोरेहि महं सब कहउं बुझाई

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

थोरेहि महं सब कहउं बुझाई, सुनहु तात मति मन चित लाई।
मैं अरू मोर तोर तैं माया, जेहिं बस कीन्हें जीव निकाया।
गो गोचर जहं लगि मन जाई, सो सब माया जानेहु भाई।
तेहिकर भेद सुनहु तुम्ह सोऊ, विद्या अपर अबिद्या दोऊ।
एक दुष्ट अतिसय दुखरूपा, जा बस जीव परा भवकूपा।
एक रचइ जग गुन बस जाकें, प्रभु प्रेरित नहिं निज बल ताकें।
ग्यान मान जहं एकउ नाहीं, देख ब्रह्म समान सब माहीं।
कहिअ तात सो परम बिरागी, तृनसम सिद्धि तीनि गुन त्यागी।
माया ईस न आपु कहुं जान कहिअ सो जीव।
बंध मोच्छप्रद सर्ब पर, माया प्रेरक सीव।

लक्ष्मण जी के सरल बचन सुनकर प्रभु श्री राम ने कहा – हे तात, मैं थोड़े ही में सब समझा कर कहे देता हूं, तुम मन, बुद्धि और चित्त लगाकर सुंनो। मैं और मेरा, तू और तेरा – यही माया है, जिसने समस्त जीवों को अपने वश में कर रखा है। इंद्रियों के विषयों को और जहां तक मन जाता है, हे भाई, उस सबको माया जानना। उसमें भी एक विद्या और दूसरी अविद्या – इन दोनों भेदों को भी तुम समझ लो। एक (अविद्या) दुष्ट (दोष युक्त) है और अत्यंत दुःख रूप है जिसके वश में होकर जीव संसार रूपी कुएं में पड़ा हुआ है और दूसरी विद्या है जिसके वश में गुण हैं और जो जगत की रचना करती है। वह प्रमु से ही प्रेरित होती है, उसके अपना बल कुछ भी नहीं है। ज्ञान के बारे में प्रभु श्री राम बताते हैं कि ज्ञान वह है जहां मान (अभिमान) आदि एक भी दोष नहीं है और जो सभी में समान रूप से ब्रह्म को देखता हैं। हे तात, उसी को परम वैराग्य वान कहिए जो सारी सिद्धियों को और तीनों गुणों को तिनके के समान त्याग चुका है। दूसरे शब्दों में कह सकते हैं कि जिसमें मान, दंभ, हिंसा, छमा, राहित्य, टेढ़ापन, आचार्य सेवा का अभाव, अपवित्रता, अस्थिरता, मन का निग्रहीत न होना, इन्द्रियों के विषय में आसक्ति, अहंकार, जन्म – मृत्यु, जरा और व्याधिमय जगत में सुखवृद्धि, स्त्री-पुत्र घर आदि में आसक्ति, ममता, इष्ट और अनिष्ट की प्राप्ति में हर्ष अथवा शोक, भक्ति का अभाव, एकांत में मन न लगना विषयी मनुष्यों के संग में प्रेम-ये 18 अवगुण न हों और नित्य अध्यात्म में स्थिति तथा तत्व ज्ञान के अर्थ अर्थात तत्व ज्ञान के द्वारा परमात्मा का नित्य दर्शन हो, वही ज्ञान कहलाता है। भगवत् गीता में भी अध्याय 13 के श्लोक 7 से 11 तक यही बात बतायी गयी है। प्रभु श्रीराम कहते हैं जो माया को, ईश्वर को और अपने स्वरूप को नहीं जानता, उसे जीव कहना चाहिए और जो कर्म के अनुसार बंधन और मोक्ष देने वाला, सबसे परे और माया का प्रेरक हैं, वह ईश्वर है।
धर्म तें विरति जोग तें ग्याना, ग्यान मोक्षप्रद बेद बखाना।
जातें बेगि द्रवउं मैं भाई, सो मम भगति भगत सुख दाई।
सो सुतंत्र अवलम्ब न आना, तेहि आधीन ग्यान विग्याना।
भगति तात अनुपम सुख मूला, मिलइ जो संत होइ अनुकूला।
भगति कि साधन कहउं बखानी, सुगम पंथ मोहि पावहिं प्रानी।
प्रथमहिं विप्रचरन अतिप्रीती, निजनिज कर्म निरत श्रुतिरीती।
एहिकर फल पुनि विषय विरागा, तब मम धर्म उपज अनुरागा।
श्रवनादिक नव भक्ति दृढ़ा हीं, ममलीला रति अति मनमाहीं।
संत चरन पंकज अति प्रेमा, मन क्रम वचन भजन दृढ़ नेमा।
गुरू पितु मातु बंधु पति देवा, सब मोहि कहं जानै दृढ़ सेवा।
ममगुन गावत पुलक सरीरा, गदगद गिरा नयन बह नीरा।
काम आदि मद दंभ न जाके, तात निरंतर बस मैं ताकें।
वचन कर्म मन मोरि गति भजनु करहिं निःकाम
तिन्ह के हृदय कमल महुं करउं सदा विश्राम।
प्रभु श्री राम कहते हैं धर्म के आचरण से बैराग्य और योग से ज्ञान होता है तथा ज्ञान मोक्ष को देने वाला है – ऐसा वेदों ने वर्णन किया है और हे भाई जिससे मैं शीघ्र प्रसन्न होता हूं, वह मेरी भक्ति है जो भक्तों को सुख देने वाली है। वह भक्ति स्वतंत्र है, उसको ज्ञान-विज्ञान आदि किसी दूसरे साधन का सहारा नहीं हैं। ज्ञान और विज्ञान तो उसके अधीन हैं। हे तात, भक्ति अनुपम और सुख की मूल है और वह तभी मिलती है जब संत अनुकूल होते हैं। अब मैं भक्ति के साधन विम्तार से कहता हूं- यह सुगम मार्ग है जिससे जीव मुझको सहज ही पा जाते है। पहले तो ब्राह्मणों के चरणों में अत्यंत प्रेम हो और वेदों की रीति के अनुसार अपने-अपने कर्मों में लगा हो। इसका फल, फिर विषयों से बैराग्य होगा और तब मेरे धर्म (भगवतधर्म) में प्रेम उत्पन्न होगा। इसके बाद श्रवण आदि नौ प्रकार की भक्तियां सुदृढ़ होंगी और मन में मेरी लीलाओं के प्रति अत्यंत प्रेम होगा। प्रभु श्री राम कहते हैं कि जिसका संतों के चरण कमलों में अत्यंत प्रेम हो। मन, वचन और कर्म से भजन का दृढ़नियम हो और जो मुझको ही गुरू, पिता माता, भाई, पति और देवता सबकुछ जाने और सेवा में दृढ़ रहें मेरा गुण गाते समय जिसका शरीर पुलकित हो जाए, वाणी गद् गद् हो जाए और प्रेम के आंसू बहने लगें और काम, मद और दंभ आदि जिसमें नहीं, हे भाई, मैं सदा उसके वश में रहता हूं। जिनको कर्म, वचन और मन से मेरी ही गति है और जो निष्काम भाव से मेरा भजन करते हैं उनके हृदय कमल में मैं सदा विश्राम किया करता हूं। (क्रमशः) (हिफी)

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