अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

...रावन कहं मनौ चुनौती दीन्हि

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम ने अपने छोटे भाई लक्ष्मण को ज्ञान, वैराग्य, माया और भक्ति के बारे में समझाया। इसके बाद रावण की बहन शूर्पणखा पंचवटी में आयी। प्रभु श्रीराम के इशारे पर लक्ष्मण ने उसके नाक-कान काट दिये और इस प्रकार रावण को युद्ध करने की चुनौती दे दी। इसी प्रसंग में खर-दूषण से प्रभु श्रीराम का युद्ध हुआ और खर का वध करने के बाद ही उनका एक नाम खरारि पड़ा।
भगति जोग सुनि अति सुख पावा, लछिमन प्रभु चरनन्हि सिरू नावा।
एहि विधि गए कछुक दिन बीती, कहत विराग ग्यान गुन नीती।
सूपनखा रावन कै बहिनी, दुष्ट हृदय दारून जस अहिनी।
पंचवटी सो गइ एक बारा, देखि विकल भइ जुगल कुमारा।
भ्राता पिता पुत्र उरगारी, पुरूष मनोहर निरखत नारी।
होइ विकल सक मनहिं न रोंकी, जिमि रविमनि द्रव रबिहि विलोकी।
रूचिर रूप धरि प्रभु पहिं जाई, बोली बचन बहुत मुसुकाई।
तुम्ह सम पुरूष न मोसम नारी, यह संजोग विधि रचा विचारी।
मम अनुरूप पुरूष जगमाहीं, देखेउं खोजि लोक तिहुं नाहीं।
तातें अब लगि रहिउं कुमारी, मनु माना कछु तुम्हहि निहारी।
काक भुशुण्डि जी पक्षीराज गरूण को राम कथा सुनाते हुए कहते हैं कि भक्ति योग को सुनकर लक्ष्मण जी ने अत्यंत सुख पाया और उन्होंने प्रभु श्रीरामचन्द्र जी के चरणों में सिर नवाया। इस प्रकार वैराग्य, ज्ञान, गुण और नीति कहते हुए कुछ दिन बीत गये। इसी बीच शूर्पणखा नामक रावण की एक बहन, जो नागिन के समान भयानक और दुष्ट हृदय की थी, वह एक बार पंचवटी के निकट आ गयी। दोनों युवा राजकुमारों को देखकर वह वासना से पीड़ित हो गयी। कागभुशुंडि जी कहते हैं कि हे गरूण जी, शूर्पणखा जैसी राक्षसी, धर्मज्ञान शून्य कामान्ध स्त्री मनोहर पुरूष को देखकर, चाहे वह भाई, पिता, पुत्र ही क्यों न हों, विकल हो जाती है और मन को रोक नहीं पाती ठीक उसी प्रकार जैसे सूर्यकांत मणि सूर्य को देखकर पिघल जाती है। शूर्पणखा सुंदर रूप धरकर प्रभु श्रीराम के पास गयी और मुस्कराकर कहने लगी न तो तुम्हारे समान कोई पुरूष है और न मेरे समान स्त्री। विधाता ने यह जोड़ी (संयोग) बहुत विचार कर बनायी है। उसने कहा मेरे योग्य पुरूष (वर) जगत भर में नहीं है, मैंने तीनों लोकों में खोजकर देखा इसी से मैं अब तक कुमारी (अविवाहित) रही। अब तुमको देखकर कुछ मन माना है अर्थात तुम मेरे योग्य पुरूष नजर आ रहे हो।
सीतहि चितइ कही प्रभु बाता, अहइ कुआर मोर लधु भ्राता।
गइ लछिमन रिपु भगिनी जानी, प्रभु बिलोकि बोले मृदु बानी।
सुंदरि सुनु मैं उनकर दासा, पराधीन नहि तोर सुपासा।
प्रभु समर्थ कोसलपुर राजा, जो कछु करहिं उनहि सब छाजा।
सेवक सुख चह मान भिखारी, व्यसनी धन सुभ गति बिभिचारी।
लोभी जसु चह चार गुमानी, नभ दुहि दूध चहत ए प्रानी।
पुनि फिरि राम निकट सो आई, प्रभु लछिमन पहिं बहुरि पठाई।
लछिमन कहा तोहि सो बरई, जो तृन तोरि लाज परिहरई।
तव खिसिआनि राम पहिं गई, रूप भयंकर प्रगटत भई।
सीतहि सभय देखि रघुराई, कहा अनुज सन सयन बुझाई।
लछिमन अति लाघंव सो नाक कान बिनु कीन्हि।
ताके कर रावन कहं मनौ चुनौती दीन्हि।
शूर्पणखा की बातें सुनकर प्रभु श्रीराम ने सीता जी की ओर देखकर कहा कि मेरा छोटा भाई कुंआरा है। तब वह लक्ष्मण जी के पास गयी। लक्ष्मण जी उसे शत्रु की बहन समझकर और प्रभु की ओर देखकर कोमल वाणी में बोले-हे सुंदरी सुन मैं तो उनका दास हूं। मैं पराधीन हूं अतः तुम्हें सुख न होगा। प्रभु समर्थ हैं, कोशलपुर के राजा, वे जो कुछ करें, उन्हें सब अच्छा (फबता) लगता है। लक्ष्मण ने कहा सेवक सुख चाहे, भिखारी सम्मान चाहे, ब्यसनी (शराब, जुए का आदी) धन चाहे, व्यभिचारी शुभ गति चाहे, लोभी यश चाहे और अभिमानी चारों फल अर्थात धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष की कल्पना करे तो ये सभी प्राणी उसी तरह से हैं जैसे कोई आकाश से दूध दुहना चाह रहा हो।
लक्ष्मण की बात सुनकर शूर्पणखा फिर श्रीराम के पास आ गयी। प्रभु ने फिर उसे लक्ष्मण के पास भेज दिया। लक्ष्मण जी ने कहा तुम्हारे साथ वही शादी करेगा जिसने लाज-शरम का पूरी तरह त्याग कर दिया अर्थात तृण तोड़कर प्रतिज्ञा की हो और निपट निर्लज्ज हो। यह सुनकर शूर्पणखा खिसिया गयी और क्रोधित होकर श्रीराम के पास गयी। उसने अपना भयंकर रूप प्रकट किया। सीता जी को भयभीत देखकर श्री रघुनाथ जी ने लक्ष्मण जी को इशारे से निर्देश दिया। लक्ष्मण जी ने बड़ी फुर्ती से उसको बिना नाक-कान के कर दिया। इस प्रकार मानो उसके हाथों से रावण को चुनौती दी हो।
नाक कान बिनु भइ बिकरारा, जनु स्रव सैल गेरू कै धारा।
खर दूषन पहिं गई बिलपाता, धिग, धिग तव पौरूष बल भ्राता।
तेहिं पूछा सब कहेसि बुझाई, जातु धान सुनि सेन बनाई।
धाए निसिचर निकर बरूथा, जनु सपच्छ कज्जल गिरि जूथा।
नाना वाहन नारा कारा,
नानायुध धर घोर अपारा।
सूपनखा आगे करि लीनी, असुभ रूप श्रुति नासा हीनी।
असगुन अमित होहिं भयकारी, गनहिं न मृत्यु बिवस सब झारी।
गर्जहिं तर्जहिं गगन उड़ाहीं, देखि कटकु भट अति हरषाहीं।
कोउ कह जिअत धरहु द्वौ भाई, धरि मारहु तिय लेहु छड़ाई।
धूरि पूरि नभ मंडल रहा, राम बोलाइ अनुज सन कहा।
लै जानकिहि जाहु गिरिकंदर, आवा निसिचर कटकु भयंकर।
रहेउ सजग सुनि प्रभु कै बानी, चले सहित श्री सर धनुपानी।
देखि राम रिपु दल चलि आवा, बिहसि कठिन कोदंड चढ़ावा।
बिना नाक-कान के शूर्पणखा विकराल हो गयी। उसके शरीर से रक्त इस प्रकार वह रहा था मानो काले पर्वत से गेरू की धारा बह रही हो। वह विलाप करती हुई खर-दूषण के पास गयी और बोली हे भाई तुम्हारे पौरूष (वीरता) को धिक्कार है, तुम्हारे बल को धिक्कार है। खर-दूषण ने उससे पूछा तो उसने सब कहानी बताई। यह सुनकर राक्षसों ने सेना तैयार की। राक्षस समूह झुंड के झुंड दौड़ पड़े मानो
पंखधारी काजल के पर्वतों का झुंड दौड़ रहा हो। वे अनेक प्रकार की सवारियों पर चढ़े हुए तथा अनेक प्रकार की सूरत के हैं। वे अपार हैं और अनेक प्रकार के भयंकर अस्त्र धारण किये हैं। उन्होंने नाक कान कटी हुई अमंगल कारिणी शूर्पणखा को आगे कर रखा है। उस समय अनगिनत भयंकर अप शकुन हो रहे हैं लेकिन मृत्यु के वश में होने के कारण वे सबके सब कुछ समझ नहीं पाते। वे गरज रहे हैं, ललकार रहे हैं और आकाश में उड़ रहे हैं। सेना देखकर योद्धा बहुत हर्षित हो रहे हैं। कोई कहता है कि दोनों भाइयों को जीवित पकड़ लो, पकड़कर मार डालो और स्त्री को छीन लो। आकाश मण्डल धूल से भर गया है तब श्रीराम जी ने लक्ष्मण को बुलाकर उनसे कहा राक्षसों की भयानक सेना आ गयी है। जानकी को लेकर तुम पर्वत की कंदरा (गुफा) में चले जाओ। सावधान रहना। प्रभु श्री रामचन्द्र के बचन सुनकर लक्ष्मण जी हाथ में धनुष वाण लिये श्री सीता जी के साथ चले। शत्रुओं की सेना करीब आ गयी है यह देखकर श्रीराम जी ने हंसकर कठिन धनुष को चढ़ाया। (क्रमशः) (हिफी)

Related Articles

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Back to top button