
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
भरत अत्रि अनुसासन पाई, जल भाजन सब दिए चलाई।
सानुज आपु अत्रि मुनि साधू, सहित गए जहं कूप अगाधू।
पावन पाथ पुन्य थल राखा, प्रमुदित प्रेम अत्रि अस भाषा।
तात अनादि सिद्ध थल एहू, लोपेउ काल बिदित नहिं केहू।
तब सेवकन्ह सरस थलु देखा, कीन्ह सुजल हित कूप विशेषा।
विधि बस भयउ विस्व उपकारू, सुगम अगम अति धरम बिचारू।
भरत कूप अब कहिहहिं लोगा, अति पावन तीरथ जल जोगा।
पेम सनेम निमज्जत प्रानी, होइहहिं विमल करम मन बानी।
कहत कूप महिमा सकल गए जहां रघुराउ।
अत्रि सुनायउ रघुबरहि तीरथ पुन्य प्रभाउ।
भरत जी ने अत्रि मुनि की आज्ञा पाकर जल के सब पात्र रवाना कर दिये और छोटे भाई शत्रुघ्न, अत्रि मुनि तथा अन्य साधु-संतों सहित खुद भी वहा गये जहां वह अथाह कुआं था। उन्होंने उस पवित्र जल को उस पवित्र स्थल पर रख दिया, जब अत्रि ऋषि ने प्रेम से आनंदित होकर ऐसा कहा-हे तात यह अनादि सिद्ध स्थल है कालक्रम से यह लोप हो गया था इसलिए किसी को इसका पता नही था। उसी समय भरत जी के सेवकों ने उस जल युक्त स्थान को देखा और उस सुंदर तीर्थों के जल के लिए एक विशेष कूप बना दिया। इस प्रकार दैव योग से विश्व भर का उपकार हो गया। धर्म का विचार जो अत्यंत अगम था वह इस कूप के प्रभाव से सुगम हो गया। मुनि ने कहा कि अब इस कुएं को लोग भरत कूप कहेंगे। तीर्थों के जल के संयोग से तो यह अत्यंत पवित्र हो गया है। इसमें प्रेम पूर्वक नियम से स्नान करने पर प्राणी मन, बचन और कर्म से निर्मल हो जाएंगे। कूप की महिमा कहते हुए सब लोग वहां गए जहां श्री रघुनाथ जी थे। श्री रघुनाथ जी को अत्रि ने उस तीर्थ का पुण्य प्रभाव बताया।
कहत धरम इतिहास सप्रीती, भयउ भोरू निसि सो सुख बीती।
नित्य निबाहि भरत दोउ भाई, राम अत्रि गुर आयसु पाई।
सहित समाज साज सब सादें, चले राम बन अटन पया दें।
कोमल चरन चलत बिनु पनहीं, भइ मृदु भूमि सकुचि मन मनहीं।
प्रेम पूर्वक धर्म के इतिहास कहते वह रात सुख से बीत गयी और सवेरा हो गया। भरत-शत्रुघ्न दोनों भाई नित्य क्रिया करके श्रीराम जी, अत्रि जी और गुरू वशिष्ठ की आज्ञा पाकर समाज सहित सब सादे साज से श्रीराम जी के वन में भ्रमण करने के लिए पैदल ही चल दिये। भरत जी के कोमल चरण हैं और पैदल ही चल रहे हैं यह देखकर पृथ्वी मन ही मन सकुचाकर कोमल हो गयी। -क्रमशः (हिफी)