
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम पम्पा सरोवर की शोभा को देखते हुए प्रकृति के गुणों से मनुष्यों को भी सीख लेने का मंत्र बताते हैं। वह कहते हैं कि फल लगने से जिस प्रकार शाखाएं जमीन के निकट आ जाती हैं अर्थात झुक जाती हैं, उसी प्रकार मनुष्यों को भी संपत्ति पाकर विनम्र हो जाना चाहिए। आमतौर पर देखा जाता है कि संपत्ति पाने पर लोग अभिमान से ग्रसित हो जाते हैं, अपने को बड़ा आदमी समझने लगते हैं। गरीब नाते-रिश्तेदारों, यहां तक कि परिजनों को भी भूल जाते हैं जबकि प्रकृति हमें यह सिखाती है कि सम्पदा मिलने पर हमें विनम्र हो जाना चाहिए। इसी अवसर पर नारद जी प्रभु श्रीराम से मिलने आते हैं। इस प्रसंग में यही बताया गया है-
सुखी मीन सब एक रस अति अगाध जल माहिं।
जथा धर्म सीलन्ह के दिन सुख संजुत जाहिं।
बिकसे सरसिज नान रंगा,
मधुर मुखर गुंजत बहु भृंगा।
बोलत जल कुक्कुट कलहंसा, प्रभु बिलोकि जनु करत प्रसंसा।
चक्रवाक बक खग समुदाई, देखत बनइ बरनि नहिं जाई।
सुंदर खग गन गिरा सुहाई, जात पथिक जनु लेत बोलाई।
ताल समीप मुनिन्ह गृह छाए, चहु दिसि कानन विटप सुहाए।
चंपक बकुल कदंब तमाला, पाटल पनस परास रसाला।
नव पल्लव कुसुमित तरू नाना, चंचरीक पटली कर गाना।
सीतल मंद सुगंध सुभाऊ, संतत बहइ मनोहर बाऊ।
कुहू कुहू कोकिल धुनि करहीं, सुनि रव सरस ध्यान मुनि टरहीं।
फल भारन नामि बिटप सब रहे भूमि निअराइ।
पर उपकारी पुरूष जिमि नवहिं सुसंपति पाइ।
प्रभु श्रीराम अपने छोटे भाई लक्ष्मण को प्रकृति के रूप में जीवन दर्शन समझा रहे हैं। वह कहते हैं कि इस सरोवर के अथाह जल में सभी मछलियां सदैव एक समान सुखी रहती हैं क्योंकि जिन तालाबों में पानी कम होता है और गर्मी आते ही पानी कम होने लगता तो मछलियां व्याकुल हो जाती हैं लेकिन पंपा सरोवर में अथाह जल है उसके सूखने की कोई संभावना नहीं, ठीक उसी तरह से धर्मशील पुरूषों के दिन सदैव सुखपूर्वक बीतते हैं। उस सरोवर में रंग-बिरंगे कमल खिले हुए हैं। बहुत से भौंरे प्रभु को देखकर उनकी प्रशंसा कर रहे हैं। चक्रवान, बगुले आदि पक्षियों का समुदाय देखते ही बनता है। उसका वर्णन नहीं किया जा सकता। सुंदर पक्षियों की बोली बहुत ही सुहावनी लगती है, मानो रास्ते में जाते हुए पथिक को भी बुला लेते हैं। झील के समीप मुनियों ने आश्रम बना रखे हैं। उसके चारों ओर वन के सुंदर वृक्ष हैं। चम्पा, मौलसिरी, कदंब, तमाल, पाटल, कटहल, ढाक और आम आदि बहुत प्रकार के वृक्ष नये-नये फलों और सुगंधित पुष्पों से युक्त हैं जिन पर भौरों के समूह गुंजार कर रहे हैं। स्वभाव से ही शीतल, मंद, सुगंधित और मन को हरने वाली हवा सदा बहती रहती है। कोयलें कुहू-कुहू का शब्द करती हैं। उनकी रसीली बोली सुनकर मुनियों का भी ध्यान टूट जाता है। फलों के बोझ से झुककर सारे वृक्ष पृथ्वी के पास आ लगे हैं जैसेे परोपकारी पुरुष बड़ी सम्पत्ति पाकर विनम्र हो जाते हैं।
देखि राम अति रुचिर तलावा, मज्जनु कीन्ह परम सुख पावा।
देखी सुंदर तरुवर छाया, बैठे अनुज सहित रघुराया।
तहं पुनि सकल देव मुनि आए, अस्तुति करि निज धाम सिधाए।
बैठे परम प्रसन्न कृपाला, कहत अनुज सन कथा रसाला।
विरहवंत भगवंतहिं देखी, नारद मन भा सोच विसेषी।
मोर साप करि अंगीकारा, सहत राम नाना दुख भारा।
ऐसे प्रभुहिं बिलोकउं जाई, पुनि न बनिहि अस अवसरू आई।
यह बिचारि नारद कर बीना, गए जहां प्रभु सुख आसीना।
गावत रामचरित मृदु बानी, प्रेम सहित बहु भांति बखानी।
करत दंडवत लिए उठाई, राखे बहुत बार उर लाई।
स्वागत पूंछि निकट बैठारे, लछिमन सादर चरन पखारे।
नाना विधि विनती करि प्रभु प्रसन्न जिय जानि।
नारद बोले बचन तब जोरि सरोरूह पानि।
प्रभु श्रीराम ने अत्यंत सुंदर तालाब देखकर स्नान किया और परम सुख पाया। एक सुंदर उत्तम वृक्ष की छाया देखकर श्री रघुनाथ जी भाई लक्ष्मण के साथ बैठ गये। प्रभु को इस प्रकार बैठे देखकर वहां सब देवता और मुनि आए और स्तुति करके अपने-अपने धाम को चले गये कृपालु श्रीरामचन्द्र जी परम प्रसन्न बैठे हुए छोटे भाई लक्ष्मण से रसीली कथाएं कह रहे हैं। भगवान को बिरह युक्त देखकर नारद जी के मन में विशेष रूप से सोच हुआ। वह कहने लगे कि मेरे ही श्राप को धारण कर श्रीरामजी नाना प्रकार के दुखों को सहन कर रहे हैं, ऐसे भक्त वत्सल प्रभु को जाकर देखूंगा, फिर ऐसा अवसर नहीं बन पाएगा। यह विचार कर नारद जी हाथ में वीणा लिये हुए वहां गये जहां प्रभु सुखपूर्वक बैठे हुए थे। वे कोमल वाणी से प्रेम के साथ बहुत प्रकार से बखान कर राम के चरित का गान करते हुए चले आ रहे थे। दण्डवत करते देखकर श्रीराम ने मुनि को उठा लिया और बहुत देर तक हृदय से लगाये रखा। फिर स्वागत-कुशल पूछकर पास में बैठा लिया। लक्ष्मण जी ने आदर के साथ उनके चरण धोए। तब नारद जी ने बहुत प्रकार से विनती करके और प्रभु को प्रसन्न जानकर अपने कमल के समान हाथ जोड़कर कहा-
सुनहु उदार सहज रघुनायक, सुंदर अगम सुगम बर दायक।
देहु एक बर मागहुं स्वामी, जद्यपि जानत अन्तरजामी।
जानहु मुनि तुम्ह मोर सुभाऊ, जन सन कबहुंकि करउं दुराऊ।
कवन वस्तु असि प्रिय मोहि लागी, जो मुनिवर न सकहु तुम्ह मांगी।
जन कहुं कछु अदेय नहिं मोरे, अस विस्वास तजहु जनि भोरे।
तब नारद बोले हरषाई, अस बर मागउं करउं ढिठाई।
जद्यपि प्रभु के नाम अनेका, श्रुति कह अधिक एक ते एका।
राम सकल नामन्ह ते अधिका, होउ नाथ अघ खग गन बधिका।
हे स्वभाव से ही उदार रघुनाथ जी सुनिए, आप सुंदर अगम और सुगम वर को देने वाले हैं। हे स्वामी मैं एक वर मांगता हूं, वह मुझे दीजिए यद्यपि आप अन्तर्यामी होने के नाते सब जानते हैं। श्रीराम जी ने कहा हे मुनि तुम मेरा स्वभाव जानते ही हो, क्या मैं अपने भक्तों से कभी कुछ छिपाता हूं? मुझे ऐसी कौन सी वस्तु प्रिय लगती है जिसे हे मुनि श्रेष्ठ तुम नहीं मांग सकते? मुझे भक्तों के लिए कुछ भी अदेय नहीं है, ऐसा विश्वास भूलकर भी मत छोड़ो। तब नारद जी प्रसन्न होकर बोले- मैं ऐसा वर मांग कर धृष्टता कर रहा हूं। यद्यपि प्रभु के अनेक नाम हैं और वेद कहते हैं कि सब एक से बढ़कर एक हैं, तो भी हे नाथ, रामनाम सभी नामो से बढ़कर हो और पाप रूपी पक्षियों के लिए यह बधिक के समान हो। -क्रमशः (हिफी)