अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

एहि विधि जाइ कृपा निधि उतरे सागर तीर

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

प्रभु श्रीराम वानर-भालुओं की सेना लेकर चल पड़े और समुद्र के तट पर पहुंचे। यह खबर लंका में रावण तक पहुंच गयी और सबसे ज्यादा व्याकुलता रावण की महारानी मंदोदरी को हुई। उसने रावण को बहुत समझाया लेकिन अभिमान के चलते उसकी समझ में नहीं आया। रावण के सभासद भी सत्य बोलने में कतराते हैं। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो श्रीराम की सेना प्रस्थान कर रही है-
चिक्करहिं दिग्गज डोल महि गिरि लोल सागर खरभरे।
मन हरष सभ गंधर्ब सुर मुनि नाग किन्नर दुख टरे।
कटकटहिं मर्कट बिकट भट बहु कोटि कोटिन्ह धावहीं।
जय राम प्रबल प्रताप कोसलनाथ गुन गन गावहीं।
श्रीराम की सेना के चलते ही दिशाओं के हाथी चिग्घाडने लगे, पृथ्वी डोलने लगी, पर्वत चंचल हो गये अर्थात कांपने लगे और समुद्र खलबला उठा। गन्धर्ब देवता, मुनिगण, किन्नर सब के सब मन में हर्षित हुए कि अब हमारे दुख टल गये हैं। करोड़ों भयानक वानर योद्धा कटकटा रहे हैं और करोड़ों ही दौड़ रहे हैं। प्रबल प्रताप कोशलनाथ श्रीरामचन्द्र जी की जय हो, ऐसा पुकारते हुए वे उनके गुण समूहों को गा रहे हैं-
सहि सक न भार उदार अहिपति बार बारहिं मोहई।
गह दसन पुनि-पुनि कमठ पृष्ठ कठोर सो किमि सोहई।
रघुबीर रुचिर प्रयान प्रस्थिति जानि परम सुहावनी।
जनु कमठ खर्पर सर्पराज सो लिखत अविचल पावनी।
उदार सर्पराज शेषनाग भी सेना का बोझ नहीं सह पा रहे हैं, वे बार-बार मोहित हो जाते हैं और पुनः-पुनः कच्छप की कठोर पीठ को दांतों से पकड़ लेते हैं। ऐसा करते समय कच्छप की पीठ पर लकीरें खिंच जाती हैं। ये लकीरें श्रीराम की सेना के प्रस्थान की पवित्र कथा के समान हैं। शेष नाग जी इसे परम सुहावनी जानकर लिख रहे हैं।
एहि विधि जाइ कृपा निधि उतरे सागर तीर।
जहं तहं लागे खान फल भालु बिपुल कपि वीर।
इस प्रकार कृपा निधान श्रीराम जी समुद्र तट पर पहुंच गये। अनेक वानर-भालु वीर जहां, तहां फल खाने लगे।
उहां निसाचर रहहिं ससंका, जब तें जारि गयउ कपि लंका।
निज निज गृह सब करहि बिचारा, नहिं निसिचर कुल केर उबारा।
जासु दूत बल बरनि न जाई, तेहि आए पुर कवन भलाई।
दूतिन्ह सन सुनि पुरजन बानी, मंदोदरी अधिक अकुलानी।
रहसि जोरिकर पति पगलागी, बोली बचन नीति रस पागी।
कंत करष हरिसन परिहरहू, मोर कहा अति हित हियं धरहू।
समुझत जासु दूत कइ करनी, स्रवहिं गर्भ रजनीचर धरनी।
तासु नारि निज सचिव बोलाई, पठवहु कंत जो चहहु भलाई।
तव कुल कमल बिपिन दुखदाई, सीता सीत निसा सम आई।
सुनहु नाथ सीता बिनु दीन्हंे, हित न तुम्हार संभु अज कीन्हें।
रामबान अहिगन सरिस निकर निसाचर भेक।
जब लगि ग्रसत न तब लगि जतनु करहु तजि टेक।
वहां, लंका में जब से हनुमान जी नगर को जलाकर गये हैं, तभी से राक्षस भयभीत रहने लगे। अपने-अपने घरों में सब विचार करते हैं कि अब राक्षस कुल की रक्षा का कोई उपाय नहीं है। वे कहते हैं कि जिसके दूत का बल वर्णन नहीं किया जा सकता, उसके स्वयं नगर में आने पर कौन भलाई है? वे कहते हैं कि हम लोगों की बहुत बुरी दशा होगी। रावण की महारानी मंदोदरी को जब महिला दूतों ने इस प्रकार के समाचार बताए तो वह बहुत व्याकुल हो गयीं। मंदोदरी ने एकांत में हाथ जोड़कर पति रावण के चरणों पर गिरकर नीति रस में पगी हुई वाणी से समझाया। उसने कहा हे प्रियतम हरि से विरोध छोड़ दीजिए। मेरे कहने को अत्यंत ही हितकर जानकर उसे हृदय में धारण कीजिए। मंदोदरी ने कहा कि जिसके दूत की करनी (लंका जलाने और अक्षय कुमार समेत कितने ही राक्षसों को मार डालने) का स्मरण करके राक्षसों की स्त्रियों के गर्भ गिर जाते हैं, हे प्यारे स्वामी, यदि भला चाहते हैं तो अपने मंत्री को बुलाकर उसके साथ उनकी स्त्री को भेज
दीजिए। सीता आपके कुल रूपी कमलवन को दुख देने वाली जाड़े
की रात के समान है। हे नाथ सुनिए, सीता को लौटाए बिना शिव और ब्रह्मा के किये भी आपका भला नहीं होने वाला। श्रीराम जी के वाण सर्पों के समूह के समान है और राक्षसों के समूह मेढक के समान। वे सर्प रूपी बाण जब तक इन्हें ग्रस नहीं लेते अर्थात निगलते नहीं, तब तक हठ छोड़कर उपाय कर लीजिए।
श्रवन सुनी सठ ता करि बानी, बिहसा जगत बिदित अभिमानी।
सभय सुभाउ नारि कर सांचा, मंगल महुं भय मन अति कांचा।
जौ आवइ मर्कट कटकाई, जिअहिं बिचारे निसिचर खाई।
अस कहि बिहसि ताहि उर लाई, चलेउ सभा ममता
अधिकाई।
मंदोदरी हृदय कर चिंता, भयउ कंत पर विधि विपरीता।
बैठेउ सभा खबरि असि पाई, सिंधु पार सेना सब आई।
बूझेसि सचिव उचित मत कहहू, ते सब हंसे मष्ट करि रहहू।
जितेहु सुरासुर तब श्रम नाहीं, नर बानर केहि लेखे माहीं।
सचिव बैद गुर तीनि जौं, प्रिय बोलहिं भय आस।
राज धर्म तन तीनि कर होइ बेगिहीं नास।
मूर्ख और जगत प्रसिद्ध अभिमानी रावण ने जब मंदोदरी की बातें सुनीं तो वह खूब हंसा और बोला-स्त्रियों का स्वभाव सचमुच बहुत डरपोक होता है। मंगल (कल्याण) में भी भय देखती हो, तुम्हारा मन (हृदय) बहुत ही कच्चा अर्थात् कमजोर है। उसने कहा, यदि वानरों की सेना आएगी तो उसे खाकर बेचारे राक्षस अपने जीवन का निर्वाह करेंगे। लोकपाल भी जिसके डर से कांपते हैं उसकी स्त्री डरपोक हो, यह उपहास की बात है। रावण ने ऐसा कहकर मंदोदरि को हृदय से लगा लिया और स्नेह (ममता) बढ़ाकर वह सभा में चला गया। मंदोदरी हृदय में चिंता करने लगी कि पति पर विधाता प्रतिकूल है, तभी वे अच्छी बात नहीं समझ रहे हंैं, उधर, रावण जैसे ही सभा में पहुंचा, उसे खबर मिली कि शत्रु की सेना समुद्र के उस पार आ गयी है। उसने मंत्रियों से पूछा कि उचित सलाह दीजिए कि अब क्या करना चाहिए? मंत्रीगण हंसने लगे और बोले महाराज, आप चुप रहिए इसमंें सलाह की क्या बात है। आपने देवताओं और राक्षसों को जीत लिया तब तो कुछ मेहनत नहीं करनी पड़ी, फिर मनुष्य और वानर किस गिनती में है? गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि मंत्री, वैद्य और गुरु यदि भय अथवा लाभ की आशा में हित की बात न कहकर प्रिय बोलें अर्थात ठकुरसोहाती, करने लगे तो क्रमशः राज्य, शरीर और धर्म, इन तीन का शीघ्र ही नाश हो जाता है। सचिव राजनीति के बारे में सलाह देता है जबकि बैद्य शरीर के स्वस्थ रहने का उपाय बताता है और गुरु धर्म पर चलने की सलाह देता है लेकिन भयभीत होकर अथवा ईनाम पाने की इच्छा से कभी-कभी ये लोग सच कहने से कतरा जाते हैं। रावण के साथ भी यही हो रहा रहा है। -क्रमशः (हिफी)

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