
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
अभिमानी रावण अपनी पटरानी मंदोदरी की सीख का उपहास यह कहकर उड़ाता है कि स्त्रियां स्वाभाविक रूप से डरपोक होती हैं। इसके बाद उसके मंत्री भी ठकुर सोहाती कहते हैं कि नर और वानर किस गिनती में हैं, आपने तो देवताओं और दनुजों को बिना परिश्रम के जीत लिया। इन सबके विपरीत रावण के भाई विभीषण कहते हैं कि प्रभु श्रीराम को साधारण मनुष्य न समझें वे पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं के हित में अवतार लेने वाले भगवान हैं, इसलिए मान, मोह और मद त्याग कर सीता को वापस कर उनकी शरण में चले जाएं। उन्होंने यह भी कहा कि सुबुद्धि और कुबुद्धि सभी के पास होती है लेकिन जिसके हृदय में अच्छी बुद्धि होती है वहां सभी प्रकार की समृद्धि रहती है जबकि कुबुद्धि रखने वाले को विपत्ति मिलती है। विभीषण की ये बातें रावण की समझ में नहीं आतीं। विभीषण जी यह भी कहते हैं कि यही बात पुलस्त्य ऋषि ने अपने एक शिष्य के माध्यम से कहलायी है फिर भी रावण नहीं समझता और विभीषण को पैर की ठोकर मारता है। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो विभीषण जी का सभा में प्रवेश हो रहा है-
सोइ रावन कहुं बनी सहाई, अस्तुति करहिं सुनाइ सुनाई।
अवसर जानि विभीषनु आवा, भ्राता चरन सीस तेहिं नावा।
पुनि सिरु नाइ बैठ निज आसन, बोला बचन पाइ अनुसासन।
जौ कृपाल पूंछिहु मोहि बाता, मत अनुरूप कहउं हित ताता।
जो आपन चाहै कल्याना, सुजसु सुमति सुभगति सुख नाना।
सो पर नारि लिलार गोसाईं, तजउ चउथि के चंद कि नाई।
चैदह भुवन एक पति होई, भूत द्रोह तिष्टइ नहिं सोई।
गुन सागर नागर नर जोऊ, अलप लोभ भल कहइ न कोऊ।
काम क्रोध मद लोभ सब नाथ नरक के पंथ।
सब परिहरि रघुबीरहिं भजहु भजहिं जेहि संत।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि सचिव, वैद्य और गुरु जब ठकुर सोहाती करने लगते हैं तो राज्य, शरीर और धर्म का नाश हो जाता है वही स्थिति रावण के लिए बन गयी है। उसके मंत्री सुना सुनाकर रावण की स्तुति करते हैं। उसी समय अवसर जानकर विभीषण जी आए और बड़े भाई के चरणों में सिर नवाया। इसके बाद राजा का सम्मान करते हुए सिर नवाकर अपने आसन पर बैठ गये और आज्ञा पाकर ये बचन बोले-हे कृपालु जब आपने मुझसे राय पूछी है तो हे तात, मैं अपनी बुद्धि के अनुसार आपके हित की बात कहता हूं। विभीषण ने कहा कि जो मनुष्य अपना कल्याण, सुंदर यश, सुबुद्धि, शुभगति और नाना प्रकार के सुख चाहता हो, वह हे स्वामी, पर स्त्री के ललाट (माथे) को चैथ के चंद्रमा की तरह त्याग दे। चैथ का चंद्रमा, विशेष रूप से भादों माह का चंद्रमा देखने से कलंक लग जाता है, ऐसी जनश्रुति है। यह सलाह देते हुए विभीषण ने कहा कि चैदहों लोकों का स्वामी भी जीवों से बैर करके ठहर नहीं सकता अर्थात नष्ट हो जाता है, जो मनुष्य गुणी और चतुर हो उसे चाहे थोड़ा भी लोभ क्यों न हो, तो भी कोई उसे भला नहीं कहता। हे नाथ, काम, क्रोध, मद और लोभ ये सभी नरक के रास्ते हैं, इन सबको छोड़कर श्रीराम जी का भजन कीजिए, जिन्हें संत (सत्पुरुष) भजते हैं।
तात राम नहिं नर भूपाला, भुवनेस्वर कालहु कर काला।
ब्रह्म अनामय अज भगवंता, व्यापक अजित अनादि अनंता।
गो द्विज धेनु देव हितकारी, कृपा सिंधु मानुष तनु धारी।
जनरंजन भंजन खल ब्राता, बेद धर्म रच्छक सुनु भ्राता।
ताहि बयरु तजि नाइअ माथा, प्रनतारति भंजन रघुनाथा।
देहु नाथ प्रभु कहुं बैदेही, भजहु राम बिनु हेतु सनेही।
सरन गएं प्रभु ताहु न त्यागा, विस्व द्रोह कृत अघ जेहि लागा।
जासु नाम त्रय ताप नसावन, सोइ प्रभु प्रगट समुझु जियं रावन।
बार बार पद लागउं विनय करउं दस सीस।
परिहरि मान मोह मद भजहु कोसलाधीस।
विभीषण जी रावण से कहते हैं कि हे तात, राम मनुष्यों के ही राजा नहीं हैं, वे समस्त लोकों के स्वामी और मृत्यु के भी काल हैं। वे सम्पूर्ण यश, ऐश्वर्य, श्री, धर्म, वैराग्य एवं ज्ञान के भण्डार भगवान हैं। वे विकार रहित (निरामय) अजन्मे, व्यापक, अजेय, अनादि और अनंत ब्रह्म हैं। उन कृपा के समुद्र भगवान ने पृथ्वी, ब्राह्मण, गौ और देवताओं का हित करने के लिए ही मनुष्य शरीर धारण किया है। हे भाई, सुनिए वे सेवकों को आनंद देने वाले, दुष्टों के समूह का नाश करने वाले और वेद तथा धर्म की रक्षा करने वाले हैं। इसलिए उनसे वैर त्याग कर उन्हें प्रणाम कीजिए। वे श्री रघुनाथ जी शरणागत का दुख नाश करने वाले हैं। हे नाथ, उन प्रभु सर्वेश्वर को जानकी जी वापस कर दीजिए और बिना ही कारण स्नेह करने वाले श्रीराम जी का भजन करिए। शरण में जाने पर प्रभु उसका भी त्याग नहीं करते, जिसे सम्पूर्ण जगत से द्रोह करने का पाप लगा हो। हे भाई, जिनका नाम तीनों तापों (दैहिक, दैविक और भौतिक) का नाश करने वाला है, वे ही प्रभु श्रीराम मनुष्य रूप से प्रकट हुए हैं। हृदय में यह समझ लीजिए। हे दशशीश, मैं बार-बार आपके चरणों में लगकर विनती करता हूं कि मान, मोह और मद को त्यागकर आप कोशल पति श्रीरामचन्द्र जी का भजन कीजिए।
मुनि पुलस्ति निज सिष्य सन कहि पठई यह बात।
तुरत सो मैं प्रभुसन कही पाइ सुअवसरु तात।
विभीषण जी ने रावण को यह भी बताया कि मैं जो कह रहा हूं यह सिर्फ मेरा मत नहीं है बल्कि पुलस्त्य ऋषि ने अपने एक शिष्य के हाथ यह बात कहला भेजी है। हे तात सुंदर अवसर पाकर मैंने तुरंत ही वह बात आपसे कह दी है। पुलस्त्य ऋषि रावण के पितामह हैं इसलिए विभीषण को लगा कि रावण उनकी सीख को अवश्य सुनेगा।
माल्यवंत अति सचिव सयाना, तासु बचन सुनि अति सुख माना।
तात अनुज तब नीति विभूषन, सो उर धरहु जो कहत विभीषन।
विभीषण की बात का समर्थन माल्यवान नामक बहुत ही बुद्धिमान मंत्री ने भी किया। माल्यवान ने विभीषण के बचनों से सुख माना और कहा कि आपके छोटे भाई विभीषण नीति विभूषण हैं। वे जो कह रहे हैं, उसे हृदय में धारण कर लीजिए।
रिपु उतकरष कहत सठ दोऊ दूरि न करहु इहां हइ कोऊ।
माल्यवंत गृह गयउ बहोरी, कहइ विभीषन पुनि कर जोरी।
सुमति कुमति सबकें उर रहहीं, नाथ पुरान निगम अस कहहीं।
जहां सुमति तहं संपति नाना, जहां कुमति तहं विपति निदाना।
तव उर कुमति बसी विपरीता, हित अनहित मानहु रिपु प्रीता।
काल राति निसिचर कुल केरी, तेहि सीता पर प्रीति घनेरी।
तात चरन गहि मागउं राखहु मोर दुलार।
सीता देहु राम कहुं अहित न होइ तुम्हार।
विभीषण और माल्यवान की बातें रावण को बहुत बुरी लगीं और वह कहने लगा कि ये दोनों मूर्ख शत्रु की महिमा बखान कर रहे हैं। यहां कोई है? इन्हें फौरन यहां से दूर करो। यह सुनकर माल्यवान तो सभा से उठकर घर चला गया लेकिन विभीषण जी हाथ जोड़कर फिर निवेदन करने लगे- हे नाथ, पुराण और वेद ऐसा कहते हैं कि सुबुद्धि (अच्छी बुद्धि) और कुबुद्धि (खोटी बुद्धि) सबके हृदय में रहती है। सुबुद्धि जहां है, वहां नाना प्रकार की सम्पदाएं सुख की स्थिति रहती है और जहां कुबुद्धि है वहां परिणाम में विपत्ति (दुःख) रहती है। आपके हृदय में उल्टी बुद्धि आ बसी है इसीलिए आप हित को अहित और शत्रु को मित्र मान रहे हैं। आपकी उन सीता पर इस समय बड़ी ही प्रीति है जो राक्षस कुल के लिए कालरात्रि के समान है। इसलिए हे भाई, मैं पैर पकड़कर आपसे भीख मांगता हूं और आप मेरे स्नेह (दुलार) की रक्षा कीजिए अर्थात मुझ बालक के आग्रह को स्नेहपूर्वक स्वीकार कीजिए। श्रीरामजी को सीता जी वापस कर दीजिए जिससे आपका अहित न हो। -क्रमशः (हिफी)