
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
आज भी माता-पिता या अभिभावक बच्चों को समझाते हैं कि बुरे लोगों का साथ कभी मत करना क्योंकि उनके साथ रहकर अच्छे लोग भी गलत काम करने लगते हैं। रावण का भाई विभीषण समुद्र पार कर श्रीराम की शरण में पहुंचता है तो दोनों भाइयों को देखकर उसे बहुत खुशी होती है। श्रीराम और लक्ष्मण जी उससे गले मिलते हैं और अपने पास ही बैठाते हैं। लंकेश कहकर उसकी कुशल पूछते हैं। प्रभु श्रीराम कहते हैं कि दुष्टों की मंडली में तुम निवास कर रहे हो फिर भी धर्म का आचरण कैसे कर लेते हो? भगवान कहते हैं कि नर्क में रहना फिर भी अच्छा है लेकिन विधाता कभी दुष्टों का साथ न दे। विभीषण जी अपनी व्यथा बताते हैं। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो विभीषण को शरण में लेने को लेकर प्रभु श्रीराम अपने विचार व्यक्त कर रहे हैं-
पापवंत कर सहज सुभाऊ, भजनु मोर तेहि भाव न काऊ।
जौं पै दुष्ट हृदय सोइ होई, मोरे सन्मुख आव कि सोई।
निर्मल मन जन सो मोहि पावा, मोहि कपट छल छिद्र न भावा।
भेद लेन पठवा दस सीसा, तबहुं न कछु भय हानि कपीसा।
जग महुं सखा निसाचर जेते, लछिमनु हनइ निमिष महुं तेते।
जौं सभीत आवा सरनाई, रखिहउं ताहि प्रान की नाई।
उभय भांति तेहिं आनहु, हंसि कह कृपा निकेत।
जय कृपाल कहि कपि चले अंगद हनू समेत।
श्रीराम सुग्रीव से कहते हैं कि पापी का यह सहज स्वभाव है कि मेरा भजन उसे कभी नहीं अच्छा लगता। यदि वह (रावण का भाई) निश्चय ही दुष्ट हृदय का होता तो क्या वह मेरे सामने आ सकता था? प्रभु श्रीराम कहते हैं कि जो मनुष्य निर्मल मन का होता है, वही मुझे पा सकता है, मुझे कपट और छल-छिद्र अच्छे नहीं लगते। यदि उसे रावण ने भेद लेने के लिए भेजा है तब भी हे सुग्रीव, अपने को कोई न डर है और न हानि होगी। इसका कारण बताते हुए प्रभु श्रीराम कहते हैं कि जगत में जितने भी राक्षस हैं, लक्ष्मण क्षण भर में उन सबको मार सकते हैं और यदि वह (रावण का भाई) भयभीत होकर मेरे पास आया है तो उसे मैं प्राणों की तरह अर्थात अत्यधिक प्यार करके रखूंगा। कृपा के धाम रघुनाथ जी ने हंसकर कहा कि दोनों ही स्थितियों में उसे मेरे पास ले आओ। तब अंगद और हनुमान जी के साथ सुग्रीव विभीषण को लिवा लाने के लिए चल पड़े।
सादर तेहि आगे करि वानर, चले जहां रघुपति करुनाकर।
दूरिहि ते देखे द्वौ भ्राता, नयनानंद दान के दाता।
बहुरि राम छबि धाम बिलोकी, रहेऊ ठटुकि एकटक पल रोकी।
भुज प्रलंब कंजारुन लोचन, स्यामल गात प्रनत भय मोचन।
सिंघ कंध आयत उर सोहा, आनन अमित मदन मन मोहा।
नयन नीर पुलकित अति गाता, मन धरि धीर कही मृदु बाता।
नाथ दसानन कर मैं भ्राता, निसिचर बंस जनम सुर त्राता।
सहज पापप्रिय तामस देहा, जथा उलूकहिं तम पर नेहा।
श्रवन सुजसु सुनि आयउं प्रभु भंजन भव भीर।
त्राहि-त्राहि आरति हरन सरन सुखद रघुवीर।
वहां पहुंचकर सुग्रीव ने विभीषण को आदर सहित आगे करके श्रीराम के पास चलने को कहा। सभी लोग वहां पहुंचे जहां करुणा की खान श्री रघुनाथ जी थे। विभीषण ने नेत्रों को आनंद का दान देने वाले दोनों भाइयों को दूर से ही देख लिया। इसके बाद शोभा के धाम श्रीराम जी को देखकर वे पलक झपकाना भी भूल गये और ठिठक कर एकटक देखते ही रह गये। भगवान की विशाल भुजाएं हैं, लाल कमल के समान नेत्र हैं और शरणागत के भय को नष्ट कर देने वाला सांवला शरीर है। सिंह के समान मजबूत कंधे हैं, चैड़ी छाती (विशाल वक्ष स्थल) अत्यंत शोभा दे रही है। असंख्य कामदेवों के मन को मोहित करने वाला मुख है। भगवान के स्वरूप को देखकर विभीषण जी के नेत्रों में प्रेमाश्रुओं का जल भर आया और शरीर अत्यंत पुलकित हो गया। इसके बाद मन में धीरज धरकर उन्होंने कोमल बचन कहे-हे नाथ मैं दश मुख रावण का भाई हूं, हे देवताओं के रक्षक, मेरा जन्म राक्षस कुल में हुआ है, मेरा तामसी शरीर है, स्वभाव से ही मुझे पाप प्रिय है जैसे उल्लू को स्वाभाविक रूप से अंधकार अच्छा लगता है। मैं कानों से आपका सुयश सुनकर आया हूं कि प्रभु जन्म-मरण के भय का नाश करने वाले और संसार की पीड़ा से छुटकारा दिलाने वाले हैं। हे दुखियों के दुख दूर करने वाले और शरणागत को सुख देने वाले श्री रघुबीर मेरी रक्षा कीजिए, रक्षा कीजिए। मैं आपकी शरण में आया हूं।
अस कहि करत दण्डवत देखा, तुरत उठे प्रभु हरष विसेषा।
दीन बचन सुनि प्रभु मन भावा, भुल विसाल गहि हृदय लगावा।
अनुज सहित मिलि ढिग बैठारी, बोले बचन भगत भय हारी।
कहु लंकेस सहित परिवारा, कुसल कुठाहर बास तुम्हारा।
खल मंडली बसहु दिनु राती, सखा धरम निबहइ केहि भांती।
मैं जानउं तुम्हारि सब रीती, अति नय निपुन न भाव अनीती।
बरु भल बास नरक कर ताता, दुष्ट संग जनि देइ विधाता।
अब पद देखि कुसल रघुराया, जौं तुम्ह कीन्हि जानि जन दाया।
तब लगि कुसल न जीव कहुं सपनेहुं मन विश्राम।
जब लगि भजत न राम कहुं सोक धाम तजि काम।
विभीषण ने रक्षा करो-रक्षा करो कहते हुए दण्डवत की तो प्रभु श्रीराम यह देखकर अत्यंत हर्षित हो गये और उठकर उसका स्वागत किया। विभीषण जी के दीन बचन प्रभु को बहुत अच्छे लगे और उन्होंने अपनी विशाल भुजाओं में पकड़कर उनको हृदय से लगा लिया। छोटे भाई लक्ष्मण जी के साथ वे उनसे गले मिले और अपने पास बैठाकर श्रीराम जी, भक्तों के भय को हरने वाले बचन बोले-श्रीराम ने कहा, हे लंकेश परिवार सहित अपनी कुशलता बताओ। तुम अत्यंत नीति निपुण हो, तुम्हें अनीति अच्छी नहीं लगती, तुम्हारा निवास बुरी जगह (कुठाहर) है, दिन रात दुष्टों की मंडली में रहते हो, ऐसी दशा में हे तात, तुम अपने धर्म का पालन कैसे करते होगे? श्रीराम ने कहा कि मैं तुम्हारी सब रीति (आचार-व्यवहार) जानता हंू। हे तात, नर्क में रहना फिर भी अच्छा है लेकिन विधाता दुष्ट लोगों का साथ कभी न दे।
यह सुनकर विभीषण जी ने कहा-हे रघुनाथ जी अब आपके चरणों का दर्शन कर कुशल से हूं। आपने अपना सेवक जानकर मुझ पर दया की है। जीव की कुशल तब तक नहीं है और न स्वप्न में भी उसके मन में शांति हो सकती है जब तक वह शोक के धर अर्थात विषय-भावना को छोड़कर श्रीराम जी का भजन नहीं करता।
तब लगि हृदय बसत खल नाना, लोभ मोह मच्छर मद माना।
जब लगि उर न बसत रघुनाथा, धरे चाप सायक कटि भाथा।
विभीषण जी कहते हैं कि लोभ, मोह, मत्सर (डाह) मद और मान आदि अनेक दुष्ट तभी तक हृदय में बसते हैं जब तक कि धनुष वाण और कमर में तरकस धारण किये हुए श्री रघुनाथ जी हृदय में नहीं बसते। (क्रमशः) (हिफी)