
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
विभीषण जी प्रभु श्रीराम से बता रहे हैं कि आपके दर्शन करने से सभी प्रकार की कुशल प्राप्त हो जाती है, उसको किसी प्रकार का कष्ट नहीं रहता है। प्रभु श्रीराम कहते हैं कि मेरी शरण में जो आ जाता है, उसे सज्जन बना देता हूं। इस प्रकार विभीषण ने प्रभु श्रीराम से कुछ और न मांगकर भक्ति मांगी। प्रभु श्रीराम ने कहा कि आप मुझसे कुछ मांगने की इच्छा नहीं रखते, तब भी मेरा दर्शन निष्फल नहीं जाता और यह कहकर उन्होंने समुद्र का नीर मंगाकर विभीषण का राजतिलक कर दिया। उन्हें लंका का राजा बना दिया। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो विभीषण जी प्रभु श्रीराम से अपने मन की बात कह रहे हैं-
ममता तरुन तमी अंधियारी, राग द्वेष उलूक सुखकारी।
तब लगि बसति जीव मन माहीं, जब लगि प्रभु प्रताप रबि नाहीं।
अब मैं कुसल मिटे भय भारे, देखि राम पद कमल तुम्हारे।
तुम्ह कृपाल जापर अनुकूला, ताहि न ब्याप त्रिविध भवसूला।
मैं निसिचर अति अधम सुभाऊ, सुभ आचरनु कीन्ह नहिं काऊ।
जासु रूप मुनि ध्यान न आवा, तेहिं प्रभु हरषि हृदयं मोहि लावा।
अहोभाग्य मम अमित अति राम कृपा सुख पुुंज।
देखेउं नयन विरंचि सिव सेव्य जुगल पद कंज।
विभीषण जी कहते हैं कि मोह-ममता अंधेरी रात है जो राग-द्वेष रूपी उल्लुओं को सुख देने वाली है। वह ममता रूपी रात्रि तभी तक जीव के मन में बसती है, जब तक प्रभु का प्रताप रूपी सूर्य उदय नहीं होता। हे श्रीरामजी आपके चरण कमलों के दर्शन कर अब मैं कुशल से हूं, मेरे भारी भय मिट गये हैं। हे कुपालु, आप जिस पर अनुकूल होते हैं, उसे तीन प्रकार के भव शूल
(आध्यात्मिक, आद्यि दैविक और आद्यि भौतिक) नहीं व्यापते हैं। विभीषण जी कहते हैं कि मैं तो अत्यंत नीच स्वभाव का राक्षस हूं। मैंने कभी शुभ आचरण नहीं किया और जिन प्रभु का रूप मुनियों के भी ध्यान में नहीं आया, उन प्रभु ने स्वयं हर्षित होकर मुझे हृदय से लगा लिया। हे कृपा और सुख के पुंज श्रीरामजी, मेरा अत्यंत असीम सौभाग्य है जो मैंने ब्रह्माजी और शिवजी के द्वारा सेबित चरण कमलों को अपने नेत्रों से देखा है।
सुनहु सखा निज कहउं सुभाऊ, जान भुसुंडि संभु गिरिजाऊ।
जौं नर होइ चराचर द्रोही, आवै सभय सरन तकि मोही।
तजि मद मोह कपट छल नाना, करउं सद्य तेहिं साधु समाना।
जननी जनक बंधु सुत दारा, तनु धनु भवन सुहृद परिवारा।
सब कै ममता ताग बटोरी, मम पद मनहि बांध बरि डोरी।
समदरसी इच्छा कछु नाहीं, हरष सोक भय नहिं मन माही।
अस सज्जन मम उर बस कैसें, लोभी हृदयं बसइ धनु जैसंे।
तुम्ह सरिखे संत प्रिय मोरें,
धरउं देह नहिं आन निहोरे।
सगुन उपासक परहित निरत नीति दृढ़ नेम।
ते नर प्रान समान मम जिन्ह के द्विज पद प्रेम।
विभीषण की बातें सुनकर प्रभु श्रीराम कहने लगे, हे सखा सुनो, मैं तुमसे अपना स्वभाव कहता हूं जिसे काग भुशुण्डि जी, शिवजी और पार्वती जी भी जानती हैं। कोई मनुष्य सम्पूर्ण जड़-चेतन जगत का द्रोही हो, यदि वह भी भयभीत होकर मेरी शरण में आ जाता है और मद, मोह तथा नाना प्रकार के छल-कपट त्याग दे तो मैं उसे बहुत शीघ्र साधु के समान कर देता हूं। माता-पिता, भाई-पुत्र, स्त्री, शरीर, धन, घर, मित्र और परिवार इन सभी के ममत्व रूपी तागों को बटोर कर और उन सबकी एक डोरी बंटकर उसके द्वारा जो अपने मन को मेरे चरणों में
बांध देता है अर्थात् सारे सांसारिक कर्मों का केन्द्र मुझे बना लेता है, जो समदर्शी है, जिसे कोई इच्छा नहीं है और जिसके मन में हर्ष, शोक और भय नहीं है, ऐसे सज्जन मेरे हृदय में ऐसे बसते हैं, जैसे लोभी के हृदय में धन बसा करता है। प्रभु ने कहा, हे विभीषण, तुम सरीखे संत तो मुझे प्रिय हैं। मैं और किसी के निहोरे अर्थात् कृतज्ञता से देह धारण नहीं करता। प्रभु ने कहा कि जो सगुण (साकार उपासक) हैं, दूसरे के हित में लगे रहते हैं, नीति और नियमों में दृढ़ हैं और जिन्हें ब्राह्मणों के चरणों में प्रेम है, वे मनुष्य मेरे प्राणों के समान हैं।
सुनु लंकेस सकल गुन तोरें, तातें तुम्ह अतिसय प्रिय मोरे।
राम बचन सुनि बानर जूथा, सकल कहहिं जय कृपा बरूथा।
सुनत विभीषनु प्रभु कै बानी, नहिं अघात श्रवनामृत जानी।
पद अंबुज गहि बारहिं बारा, हृदयं समात न प्रेमु अपारा।
सुनहु देव सचराचर स्वामी, प्रनतपाल, उर अन्तरजामी।
उर कछु प्रथम बासना रही, प्रभु पद प्रीति सरित सो बही।
अब कृपाल निज भगति पावनी, देहु सदा सिव मनभावनी।
एवमस्तु कहि प्रभु रनधीरा, मागा तुरत सिंधु कर नीरा।
जदपि सखा तव इच्छा नाहीं, मोर दरसु अमोघ जगमाही।
अस कहि राम तिलक तेहि सारा, सुमन वृष्टि नभ भई अपारा।
रावन क्रोध अनल निज स्वास समीर प्रचंड।
जरत विभीषनु राखेउ दीन्हेउ राजु अखंड।
जो संपति सिव रावनहिं दीन्हिं दिए दस माथ।
सोइ संपदा विभीषनहिं सकुचि दीन्हि रघुनाथ।
प्रभु श्रीराम कहते हैं कि हे लंकापति विभीषण सुनो, तुम्हारे अंदर तो वे सभी गुण हैं जिनके बारे में अभी मैंने कहा है। इससे तुम मुझे अत्यत ही प्रिय हो। श्रीरामजी के बचन सुनकर बानरों के समूह कहने लगे- कृपा के समूह श्रीराम जी की जय हो। विभीषण जी तो प्रभु की वाणी सुनकर तृप्त ही नहीं हो रहे। उनके लिए तो कानों में अमृत के समान वह वाणी लग रही है। वह बार-बार श्रीराम जी के चरण कमलों को पकड़ते हैं। अपार प्रेम हृदय में समाता नहीं है। विभीषण जी ने कहा- हे देव, हे चराचर जगत के स्वामी, हे शरणागत के रक्षक, हे सभी के हृदय के भीतर को जानने वाले, सुनिए, मेरे हृदय में पहले कुछ वासना थी, वह प्रभु के चरणों की प्रीति रूपी सरिता में बह गयी है। अब तो हे कृपालु, शिव जी के मन को प्रसन्न करने वाली अपनी पवित्र भक्ति मुझे दीजिए। प्रभु श्रीराम ने तुरंत ही एवमस्तु अर्थात् ऐसा ही हो कहकर समुद्र का जल मंगाया और कहा कि हे सखा, यद्यपि तुम्हारी इच्छा नहीं है, पर जगत में मेरा दर्शन अमोघ है अर्थात् कुछ न कुछ देता ही है। ऐसा कहकर श्रीराम जी ने विभीषण का राजतिलक कर दिया। उस समय आकाश से फूलों की वर्षा हुई। श्रीराम जी ने रावण के क्रोध रूपी अग्नि, जो विभीषण के बचन रूपी पवन से प्रचण्ड हो रही थी, उसमें जलते हुए विभीषण को बचा लिया और उसे अखंड राज्य दिया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि शिवजी ने जो सम्पत्ति रावण को दसों सिरों की बलि देने पर दी थी, वही सम्पत्ति श्री रघुनाथ जी ने विभीषण को बहुत ही सकुचाते हुए दी। -क्रमशः (हिफी)