अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

पदुम अठारह जूथप बंदर

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

रावण अपने दूतों से श्रीराम की सेना की खबर पूछता है। वह दूतों से कहता है कि कहीं ऐसा तो नहीं कि मेरा बल-विक्रम सुनकर वे दोनों राजकुमार भाग तो नहीं गये? इस पर दूतों ने रावण को समाचार बताया कि किस तरह विभीषण को भगवान राम ने लंका का राजा घोषित करते हुए तिलक किया और यह भी बताया कि श्रीराम के साथ कितनी विशाल सेना है। दूतों ने बताया कि उस सेना में 18 पदम तो सेनापति ही हैं और सभी वानर इतने बलशाली हैं जो आपको पराजित कर सकते हैं। स्वाभाविक है कि रावण यह सुनकर क्रोधित होता है। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो रावण ही अपने अहंकार में बोल रहा है-
जिन्ह के जीवन कर रखवारा, भयउ मृदुल चित सिंधु विचारा।
कहु तपसिन्ह कै बात बहोरी, जिन्ह के हृदय त्रास अति मोरी।
की भइ भेंट कि फिरि गए, श्रवन सुजसु सुनि मोर।
कहसि न रिपुदल तेज बल बहुत चकित चित तोर।
रावण कहता है कि वानरों की सेना, जो मृत्यु से प्रेरित होकर यहां आ गयी है उनके जीवन का रखवाला कोमलचित वाला बेचारा समुद्र बना हुआ है अर्थात उनके और राक्षसों के बीच में यदि समुद्र न होता तो राक्षस उन्हें मारकर खा गए होते। रावण कहता है कि अब उन तपस्वियों की बात बता जिनके हृदय में मेरा डर भरा हुआ है। उनसे तेरी भेंट हुई या वे कानों से मेरा सुयश सुनकर ही लौट गए। रावण कहता है अरे दूतों, तुम शत्रु सेना का बल और तेज क्यों नहीं बता रहे हो? तुम्हारा चित बहुत ही चकित सा क्यों हो रहा है?
नाथ कृपा करि पूँछेहु जैसे, मानहु कहा क्रोध तजि तैसे।
मिला जाइ जब अनुज तुम्हारा, जातहिं राम तिलक तेहि सारा।
रावन दूत हमहि सुनि काना, कपिन्ह बांधि दीन्हें दुख नाना।
श्रवन नासिका काटैं लागे, राम सपथ दीन्हें हम त्यागे।
पूंछिहु नाथ राम कटकाई, बदन कोटि सत बरनि न जाई।
नाना बरन भालु कपि धारी, बिकटानन बिसाल भयकारी।
जेहिं पुर दहेउ हतेउ सुत तोरा, सकल कपिन्ह महं तेहि बलु थोरा।
अमित नाम भट कठिन कराला, अमित नाग बल बिपुल बिसाला।
द्विबिद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद बिकटासि।
दधि मुख केहरि निसठ सठ जामवंत बलरासि।
रावण के दूतों ने अब जवाब दिया। दूतों का प्रधान था शुक। उसने कहा हे नाथ, आपने कृपा करके जैसे पूछा है, वैसे ही क्रोध छोड़कर मेरा कहना भी मानिए अर्थात मेरी बातों पर विश्वास कीजिए। शुक ने बताया कि जब आपका छोटा भाई श्रीराम जी से मिला, तब उसके पहुंचते ही श्रीराम जी ने उसका राजतिलक कर दिया। इसके बाद जब वानरों को पता चला कि हम रावण के दूत हैं तो यह कानों से सुनकर वानरों ने हमें बांधकर बहुत कष्ट दिया, यहां तक कि वे हमारे नाक-कान काटने लगे। श्रीराम जी की शपथ दिलाने पर उन्होंने हमें छोड़ा। दूत ने कहा कि हे नाथ, आपने श्रीरामजी की सेना पूछी, सो वह तो सौ करोड़ मुखों से भी वर्णन नहीं की जा सकती। अनेक रंगों के भालु और वानरों की सेना है जो भयंकर मुख वाले विशाल शरीर वाले और भयानक हैं। दूत ने कहा कि जिसने नगर को जलाया और आपके पुत्र अक्षय कुमार को मारा, उसका बल तो सब वानरों में थोड़ा है। असंख्य नामों वाले बड़े ही कठोर और भयंकर योद्धा हैं। उनमें असंख्य हाथियों का बल है और बड़े ही विशाल हैं। इनमें द्विविद, मयंद, नील, नल, अंगद, गद बिकटास्य, दधि मुख, केसरी, निशठ, शठ और जाम्ववान ये सभी बल की राशि है अर्थात बल के अकूत भण्डार हैं।
ए कपि सब सुग्रीव समाना, इन्ह सम कोटिन्ह गनइ को नाना।
रामकृपा अतुलित बल तिन्हहीं, तृन समान त्रैलोकहि गनहीं।
अस मैं सुना श्रवन दसकंधर, पदुम अठारह जूथप बंदर।
नाथ कटक महं सो कपि नाहीं, जो न तुम्हहि जीतै रन माहीं।
परम क्रोध मीजहिं सब हाथा, आयसु पै न देहिं रघुनाथा।
सोषहिं सिंधु सहित झष ब्याला, पूरहिं न त भरि कुधर विसाला।
मर्दि गर्द मिलवहिं दससीसा, ऐसेइ बचन कहहिं सब कीसा।
गर्जहिं तर्जहिं सहज असंका, मानहु ग्रसन चहत हहिं लंका।
सहज सूर कपि भालु सब पुनि सिर पर प्रभु राम।
रावन काल कोटि कहुं जीति सकहिं संग्राम।
दूत ने रावण से कहा कि ये सब बानर बल में सुग्रीव के समान है और इनके जैसे एक-दो नहीं करोड़ों हैं, उन सबकी गिनती कौन कर सकता है? श्रीराम जी की कृपा से उनमें अतुलनीय बल है। वे तीनों लोकों को तिनके के समान अर्थात् तुच्छ समझते हैं। हे दशग्रीव, मैंने कानों से ऐसा सुना है कि 18 पद्म तो अकेले वानरों के सेनापति हंै। हे नाथ उस सेना में ऐसा कोई वानर नहीं है, जो आपको रण में जीत न सके। वे सबके सब अत्यंत क्रोध से हाथ मीजते हैं पर श्री रघुनाथ जी उन्हें आज्ञा नहीं देते। वानर सेना कहती है कि हम मछलियों और सांपों सहित समुद्र को सोख लेंगे, नहीं तो बड़े-बड़े पर्वतों से उसे भरकर पाट देंगे। रावण को मसलकर धूल में मिला देंगे। सब वानर ऐसे ही बचन कह रहे हैं, सब सहज ही निडर हैं, इस प्रकार गर्जते और डपटते है मानो लंका को ही निगल जाना चाहते हैं। सभी वानर ओर भालू सहज ही शूरवीर हैं फिर उनके सिर पर प्रभु सर्वेश्वर श्रीराम जी हैं। हे रावण, वे संग्राम में करोड़ों मृत्यु (काल) को भी जीत सकते हैं।
रामतेज बल बुधि बिपुलाई, सेष सहस सत सकहिं न गाई।
सक सर एक सोषि सत सागर, तव भ्रातहि पूंछेउ नय नागर।
तासु बचन सुनि सागर पाहीं, मागत पंथ कृपा मन माहीं।
दूत ने कहा श्री रामचन्द्र जी का तेज (सामथ्र्य), बल और बुद्धि की
अधिकता को लाखों शेष भी नहीं गा सकते। वे एक ही बाण से सैकड़ों समुद्रों को सुखा सकते हैं
लेकिन नीति में निपुण श्रीरामजी ने नीति की रक्षा के लिए आपके भाई से उपाय पूछा। आपके भाई के बचन सुनकर वे (श्रीरामजी समुद्र से मार्ग मांग रहे हें। उनके मन में कृपा भरी है, इसलिए वे समुद्र को सुखाना नहीं चाहते।
सुनत बचन बिहसा दस सीसा, जौं असि मति सहायकृत कीसा।
सहज भीरु कर बचन दृढ़ाई, सागर सन ठानी मचलाई।
मूढ़ मृषा का करसि बड़ाई, रिपु बल बुद्धि थाह मैं पाई।
दूत के बचन सुनकर रावण
हंसने लगा और बोला ऐसी बुद्धि है। तभी तो वानरों को सहायक बनाया
है। आरे मूर्ख, तू उनकी व्यर्थ ही बड़ाई कर रहा है। शत्रु के बल और बुद्धि की थाह कैसे पा ली। -क्रमशः (हिफी)

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