अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

राम विरोध न उबरसि सरन विष्नु अज ईस

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

रावण को जब यह पता चलता है कि प्रभु श्रीराम समुद्र से पार उतरने के लिए विनय कर रहे हैं तो वह उपहास उड़ाता है। इस पर गुप्तचर शुक लक्ष्मण की चिट्ठी देता है। चिट्ठी सुनकर भी वह हंसी उड़ा रहा है, तब शुक ने स्पष्ट शब्दों में रावण से कहा कि मेरी सत्य बात को सुनिए और अभिमान त्यागकर श्रीराम से विरोध न करें और सीता जी को वापस कर दें। इतना सुनते ही रावण क्रोधित हो उठा और गुप्तचर शुक को भी लात मारकर भगा दिया। शुक श्रीराम की शरण में चला गया। वह पूर्व जन्म में ज्ञानी महात्मा था लेकिन अगस्त्य ऋषि के श्राप से राक्षस हो गया था। लक्ष्मण जी ने उस चिट्ठी में लिखा था कि बातों से मन को मत समझाओ, प्रभु श्रीराम की शरण में आ जाओ। राम का विरोध करने पर ब्रह्मा, विष्णु, महेश भी तुमको नहीं बचा पायेंगे। इसी प्रसंग को यहां बताया गया है। अभी तो अभिमानी रावण श्रीराम और उनकी सेना का उपहास उड़ा रहा है-
सचिव समीत विभीषन जाके, विजय विभूति कहां जग ताके।
सुनि खल बचन दूत रिस बाढ़ी, समय विचारि पत्रिका काढ़ी।
रामानुज दीन्ही यह पाती, नाथ बचाइ जुड़ावहु छाती।
बिहसि बाम कर लीन्हीं रावन, सचिव बोलि सठ लाग बचावन।
बातन्ह मनहि रिझाइ सठ जनि घालसि कुलखीस।
राम विरोध न उबरसि सरन बिष्नु अज ईस।
की तजि मान अनुज इव प्रभु पद पंकज भृंग।
होहि कि राम सरानल खल कुल सहित पतंग।
रावण अपने गुप्तचर शुक से कहता है कि जिसके पास विभीषण जैसा डरपाक मंत्री हो उसे जगत में विजय और ऐश्वर्य कैसे मिल सकता है? दुष्ट रावण के बचन सुनकर गुप्तचर को क्रोध आ गया। उसने मौका समझकर वह चिट्ठी निकाली जो लक्ष्मण जी ने दी थी और कहने लगा-श्रीरामचन्द्र जी के छोटे भाई लक्ष्मण ने यह पत्रिका दी है। हे नाथ इसे बचवाकर छाती ठण्डी कीजिए। रावण ने हंसकर उसे बाएं हाथ में लिया। कहते हैं कि शत्रु के द्वारा भेजी गयी कोई वस्तु बाएं हाथ से ली जाती है। इसीलिए भारतीय संस्कृति में बाएं हाथ से किसी को कुछ भी नहीं दिया जाता। रावण ने चिट्ठी को बाएं हाथ में लिया और सचिव से कहा पढ़कर सुनाओ। पत्रिका में लिखा था कि अरे मूर्ख, केवल बातों से ही मन को रिझाकर अपने कुल को नष्ट-भ्रष्ट न कर। श्रीराम जी से विरोध करके तू ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शरण में जाकर भी नहीं बचेगा। तू या तो अपने छोटे भाई की तरह अभिमान छोड़कर प्रभु के चरण कमलों का भ्रमर बन जा अथवा रे दुष्ट श्रीरामजी के बाण रूपी अग्नि में परिवार सहित पतिंगा होकर जल।
सुनत सभय मन मुख मुसुकाई, कहत दसानन सबहि सुनाई।
भूमि परा कर गहत अकासा, लघु तापस कर बाग विलासा।
कह सुक नाथ सत्य सब बानी, समुझहु छाड़ि प्रकृति अभिमानी।
सुनहु बचन मम परिहरि क्रोधा, नाथ रामसन तजहु विरोधा।
अति कोमल रघुबीर सुभाऊ, जद्यपि अखिल लोक कर राऊ।
मिलत कृपा तुम्ह पर प्रभु करिही, उर अपराध न एकउ धरिही।
जनक सुता रघुनाथहि दीजे, एतना कहा मोर प्रभु कीजे।
जब तेहि कहा देन वैदेही, चरन प्रहार कीन्ह सठ तेही।
नाइ चरन सिरु चला सो तहां, कृपा सिंधु रघुनायक जहां।
करि प्रनामु निज कथा सुनाई, राम कृपा आपनि गति पाई।
रिषि अगस्ति की साप भवानी, राक्षस भयउ रहा मुनि ग्यानी।
बंदि राम पद बारहिं बारा, मुनि निज आश्रम कहुं पगु धारा।
लक्ष्मण जी ने रावण के लिए जो चिट्ठी भिजवाई थी उसे सुनकर रावण मन ही मन भयभीत जरूर हो गया क्योंकि लक्ष्मण जी ने साफ-साफ लिखा था कि ब्रह्मा, विष्णु और महेश की शरण जाने पर भी तू नहीं बचेगा। रावण सोचने लगा कि उसके पास तपस्या की शक्ति ब्रह्मा जी और शंकर भगवान की ही दी हुई है और इनकी शरण में भी जाने से मेरी रक्षा नहीं हो सकेगी इस तरह की चुनौती देने वाला निश्चित रूप से इनसे भी बड़ा है। इसलिए रावण मन ही मन डर गया लेकिन वह सभा के बीच अपने को कमजोर नहीं दिखाना चाहता था इसलिए मुस्कराते हुए सभी को सुनाकर कहने लगा अरे, यह छोटा सा तपस्वी, इस तरह से डींग हांक रहा है अर्थात बढ़ चढ़कर बोल रहा है जैसे कोई पृथ्वी पर पड़ा हुआ अपने हाथ से आकाश को पकड़ने की चेष्टा कर रहा हो। रावण की यह बात सुनकर शुक (दूत) ने कहा-हे नाथ अभिमानी स्वभाव छोड़कर इस पत्र में लिखी सब बातों को सत्य समझिए और क्रोध छोड़कर मेरी बात सुनिए।
शुक कहता है कि हे नाथ श्रीराम जी से वैर त्याग दीजिए। श्री रघुनाथ जी यद्यपि समस्त लोकों के स्वामी हैं लेकिन उनका स्वभाव अत्यंत ही कोमल है। मिलते ही प्रभु आप पर कृपा करेंगे और आपका एक भी अपराध वे अपने हृदय में नहीं रखेंगे। इसके साथ ही जनक सुता अर्थात सीता जी को श्री रघुनाथ जी को वापस कर दीजिए। हे प्रभु इतना कहना मेरा मान लीजिए। दूत ने जब कहा कि सीता जी को वापस कर दीजिए तब दुष्ट रावण ने उसको लात मारी। दूत भी विभीषण की तरह चरणों में सिर नवाकर वहीं चला, जहां कृपा सागर श्री रघुनाथ जी थे। प्रभु श्रीराम को प्रणाम करके उसने अपनी कथा सुनाई और भगवान की कृपा से अपना पूर्व स्वरूप पा गया। भगवान श्ंाकर पार्वती जी को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि रावण का वह गुप्तचर शुक पूर्व जन्म में महान ज्ञानी मुनि था लेकिन एक दिन उससे अनजाने में अपराध हो गया और उसे अगस्त्य मुनि ने श्राप दे दिया। उसी श्राप के कारण वह राक्षस हो गया था। राक्षस शरीर से मुक्त होकर वह ऋषि श्रीराम को बार-बार प्रणाम करने लगा और अपने आश्रम की तरफ प्रस्थान कर गया। -क्रमशः (हिफी)

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