
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम तीन दिन तक सागर के तट पर कुश बिछाकर समुद्र देव की प्रार्थना करते रहते हैं लेकिन वह उनकी विनय को नहीं सुनते, तब प्रभु श्रीराम एक व्यावहारिक बात कहते हैं कि दुष्ट लोग विनय करने से नहीं मानते हैं। इसीलिए वह धनुष पर वाण चढ़ाकर समुद्र को सुखाने के लिए तैयार हो जाते हैं तब समुद्र हाथ जोड़कर उनके सामने आता है। समुद्र विनय करके कहता है कि यदि आप मुझे सुखा देंगे तो मेरी मर्यादा ही नष्ट हो जाएगी, इसलिए आप पुल बनवाइए। पुल कैसे बनाया जाए, इसका उपाय भी बताता है। समुद्र पर सुंदर पुल बनने लगता है और इसी के साथ सुंदर काण्ड का समापन होता है। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि इस प्रसंग को जो आदर के साथ सुनेंगे वे संसार रूपी सागर को बिना जहाज के ही पार कर लेंगे। यही कथा इस प्रसंग में बतायी गयी है। अभी तो प्रभु श्रीराम क्रोध की लीला कर रहे हैं-
विनय न मानत जलधि जड़, गए तीन दिन बीति।
बोले राम सकोप तब भय बिनु होइ न प्रीति।
लछिमन बान सरासन आनू, सोषौं बारिधि बिसिख कृसानू।
सठ सन विनय कुटिल सन प्रीती, सहज कृपन सन सुंदर नीती।
ममता रत सन ग्यान कहानी, अति लोभी सन विरति बखानी।
क्रोधिहि सम कामिहि हरिकथा, ऊसर बीज बएं फल जथा।
अस कहि रघुपति चाप चढ़ावा, यह मत लछिमन के मन भावा।
संधानेउ प्रभु बिसिख कराला, उठी उदधि उर अंतर ज्वाला।
मकर उरग झष गन अकुलाने, जरत जंतु जलनिधि जब जाने।
कनक थार भरि मनि गन नाना, विप्र रूप आयउ तजि माना।
प्रभु श्रीराम ने लक्ष्मण जी से कहा कि तीन दिन बीत गये लेकिन जड़ समुद्र विनय नहीं मान रहा है। वह क्रोध के साथ कहने लगे कि बिना भय के प्रीति नहीं होती। हे लक्ष्मण, धनुष बाण लाओ मैं अग्नि बाण से समुद्र को सुखा दूं। उन्होंने कहा-मूर्ख से विनय, कुटिल के साथ प्रीति, स्वाभाविक कंजूस को उदारता का उपदेश, ममता मंे फंसे मनुष्य को ज्ञान की कथा सुनाना, अत्यंत लोभी से वैराग्य का वर्णन, क्रोधी से शांति की बात और कामी पुरुष से भगवान की कथा-इन सबका वैसे ही फल होता है जैसे ऊसर जमीन में बीज बोना। ऐसा कहकर श्री रघुनाथ जी के धनुष चढ़ाया। यह विचार लक्ष्मण जी को बहुत अच्छा लगा। प्रभु ने भयानक अग्निबाण धनुष पर चढ़ा लिया। तीर को खींचते ही समुद्र के अंदर आग की ज्वाला उठने लगी। मगर, सांप तथा मछलियांे के समूह व्याकुल हो गये। समुद्र ने जब जीवों को जलते हुए समझा, तब सोने के थाल में अनेक मणियों (रत्नों) को भरकर, अभिमान छोड़कर ब्राह्मण का रूप धारण कर आ गया।
काटेहिं पइ कदरी फरइ, कोटि जतन कोउ सींच।
विनय न मान खगेस सुनु डाटेहिं पइ नव नीच।
काग भुशंुडि जी गरुड़ जी को कथा सुनाते हुये कहते हैं कि केला को जब तक काटोगे नहीं तब तक वह फलेगा ही नहीं चाहे करोड़ों तरह से उसे सींचते रहो। इसी प्रकार दुष्ट (नीच) विनय से नहीं मानते, उनको डांटना ही पड़ता है।
सभय सिंधु गहि पद प्रभु केरे, छमहु नाथ सब अवगुन मेरे।
गगन समीर अनल जल धरनी, इन्ह कइ नाथ सहज जड़ करनी।
तव प्रेरित माया उपजाए, सृष्टि हेतु सब ग्रंथन गाए।
प्रभु आयसु जेहि कहं जस अहई, सो तेहि भांति रहे सुख लहई।
प्रभु भल कीन्ह मोहि सिख दीन्हीं, मरजादा पुनि तुम्हारी कीन्हीं।
ढोल गंवार सूद्र पसु नारी, सकल ताड़ना के अधिकारी।
प्रभु प्रताप मैं जाब सुखाई, उतरिहि कटुक न मोरि बड़ाई।
प्रभु अग्या अपेल श्रुति गाई, करौं सो बेगि जो तुम्हहि सोहाई।
समुद्र ने भयभीत होकर प्रभु के चरण पकड़कर कहा कि मेरे सब अवगुण क्षमा कीजिए। हे नाथ, आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी, इन सबकी करनी तो स्वभाव से ही जड़ है। आपकी प्रेरणा से ही माया ने इन्हें सृष्टि के लिए उत्पन्न किया है, सब ग्रंथों में यही बताया गया है और जिसके लिए स्वामी की जैसी आज्ञा है वह उसी प्रकार से रहने में सुख पाता है। प्रभु ने अच्छा किया जो मुझे दण्ड दिया लेकिन मर्यादा भी आपकी ही बनायी हुई है। ढोल, गंवार, शूद्र और स्त्री ये सभी शिक्षा के अधिकारी हैं। प्रभु के प्रताप से मैं सूख जाऊंगा और सेना पार उतर जाएगी लेकिन इसमें मेरी मर्यादा नहीं रहेगी। तथापि प्रभु की आज्ञा टाली नहीं जा सकती। प्रभु आपको जो अच्छा लगे वही मैं करने को तैयार हूं।
सुनत विनीत बचन अति कह कृपाल मुसुकाइ।
जेहि विधि उतरै कपि कटकु तात सो कहहु उपाइ।
नाथ नील नल कपि द्वौ भाई, लरिकाई रिषि आसिष पाई।
तिन्ह के परस किएं गिरि भारे, तरिहहिं जलधि प्रताप तुम्हारे।
मैं पुनि उर धरि प्रभु प्रभुताई, करिहउं बल अनुमान सहाई।
एहि विधि नाथ पयोधि बंधाइअ, जेहिं यह सुजसु लोक तिहुं गाइअ।
एहिं सर मम उत्तर तट बासी, हतहु नाथ खल नर अधरासी।
सुनि कृपाल सागर मन पीरा, तुरतहिं हरी राम रनधीरा।
देखि राम बल पौरुष भारी, हरषि पयोनिधि भयउ सुखारी।
निज भवन गवनेउ सिंधु श्री रघुपतिहि यह मत भायऊ।
यह चरित कलिमल हर जथा मति दास तुलसी गायऊ।
सुख भवन संसय समन दवन विषाद रघपुति गुन गना।
तजि सकल आस भरोस गावहिं सुनहिं संतत सठ मना।
सकल सुमंगल दायक, रघुनायक गुन गान।
सादर सुनहिं ते तरहिं भव सिंधु बिना जलजान।
समुद्र के अत्यंत विनय भरे बचन सुनकर कृपालु श्रीराम ने मुस्कराकर कहा कि हे तात, जिस प्रकार वानरों की सेना पार उतर जाए, वही उपाय बताओ समुद्र ने कहा हे नाथ, नील और नल नामक दो वानर भाई हैं। उन्हें बचपन में ही ऋषि ने वरदान दिया था। उनके स्पर्श कर लेने से ही भारी, भारी पहाड़ भी आपके प्रताप से समुद्र में तैरते रहेंगे। मैं भी प्रभु की प्रभुता को हृदय में धारण करके अपने बल के अनुसार सहायता करूंगा। इस प्रकार आप पुल बनाइए जिससे तीनों लोकों में आपका यश गाया जाए। समुद्र ने कहा कि इस बाण को मेरे उत्तर तट पर रहने वाले पाप के राशि दुष्ट मनुष्यों का वध कीजिए। कृपालु और रणधीर श्रीराम ने समुद्र की पीड़ा सुनकर उसे तुरंत ही दूर किया अर्थात वाण से उन दुष्टों का बध कर दिया। श्रीराम जी का भारी बल और पौरुष देखकर समुद्र हर्षित होकर उन दुष्टों का चरित्र प्रभु को सुनाया, फिर चरणों की वंदना करके चला गया। गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि समुद्र अपने घर चला गया श्री रघुनाथ जी को उसकी यह सलाह अच्छी लगी। यह चरित्र कलियुग के पापों को हरने वाला है। इसे तुलसीदास कवि ने अपनी बुद्धि के अनुसार सुनाया। श्री रघुनाथ जी के गुण समूह सुख के धाम, संदेह का नाश करने वाले और विषाद का दमन करने वाले हैं। अरे मूर्ख मन, तू संसार की सब आशा और भरोसा त्यागकर निरंतर इन्हें गा और सुन। श्री रघुनाथ जी का गुणगान सम्पूर्ण सुंदर मंगलों को देने वाला है जो इसे आदर सहित सुनेंगे वे बिना किसी जहाज के ही अर्थात बिना किसी साधन के भवसागर को पार कर लेंगे।
कलियुग के समस्त पापों का नाश करने वाले श्रीराम चरित मानस का पांचवा सोपान सुंदरकाण्ड का इस प्रकार समापन होता है। -क्रमशः (हिफी)