
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
मागेउ विदा प्रनामु करि राम लिए उर लाइ।
लोग उचाटे अमरपति कुटिल कुअवसरु पाइ।
सो कुचालि सब कहं भइ नीकी, अवधि आस सम जीवनि जी की।
नतरु लखन सिय राम वियोगा, हहरि मरत सब लोग कुरोगा।
रामकृपा अबरेब सुधारी,
बिबुध धारि भई गुनद गोहारी।
भेंटत भुज भरि भाइ भरत सो, रामप्रेम रसु कहि न परत सो।
तन मन बचन उमग अनुरागा, धीर धुरंधर धीरजु त्यागा।
वारिज लोचन मोचत बारी, देखि दसा सुरसभा दुखारी।
मुनिगन गुर धुर धीर जनक से, ग्यान अनल मन कसें कनक से।
जे विरंचि निरलेप उपाए, पदुम पत्र जिमि जग जलजाए।
तेउ बिलोकि रघुबर भरत प्रीति अनूप अपार।
भए मगन मन तन बचन सहित बिराग बिचार।
भरत जी ने प्रणाम करके बिदा मांगी, तब श्री रामने उन्हें हृदय से लगा लिया। इधर, कुटिल इन्द्र ने कुअवसर पाकर लोगों का उच्चाटन कर दिया। वह कुचाल भी सबके लिए हितकारी हो गयी, अवधि की आशा के समान ही वह जीवनके लिए संजीवनी हो गयी। इन्द्र यदि यह मोह (उच्चाटन) न डालते तो श्रीराम के बिना अयोध्या जाते लेाग उनके बियोग में ही हाय-हाय कर मर जाते। श्रीराम की कृपा ने सारी उलझन सुधार दी। देवताओं की सेना जो लूटने आयी थी, वही हितकारी बन गयी। श्री रामजी भुजाएं भरकर भरत जी से मिल रहे हैं। श्री रामजी के प्रेम का वह रस कहते नहीं बनता। तन, मन और बचन तीनों प्रकार से प्रेम उमड़ रहा है। धीरज की धुरी को धारण करने वाले श्री राम ने भी धैर्य त्याग दिया है, वे कमल सदृश नेत्रों से जल बहाने लगे। उनकी यह दशा देखकर देवताओं का समाज भी दुखी हो गया। मुनिगण, गुरु वशिष्ठ जी और जनक जी सरीखे धीर धुरंधर जो अपने मन को ज्ञान रूपी अग्नि में सोने के समान कस चुके हैं जिनको ब्रह्मा जी ने निर्लेप ही रचा और जो जगत रूपी जल में कमल के पत्ते की तरह तैरते रहते हैं अर्थात् अनासक्त हैं, वे भी श्रीराम और भरत के उपमा रहित अपार प्रेम को देखकर वैराग्य और विवेक सहित तन, मन, वचन से उस प्रेम में मग्न हो गये। -क्रमशः (हिफी)