
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रामचरित मानस के छठे सोपान लंका काण्ड की शुरुआत समुद्र पार सेतु बनाने से होती है। प्रभु श्रीराम को समुद्र ने उपाय बता दिया, जिससे उसकी मर्यादा भी बनी रहेगी और सेना भी पार उतर जाएगी। प्रभु श्रीराम मर्यादा पुरुषोत्तम हैं। वे मर्यादा की रक्षा करने के लिए ही नर रूप में अवतरित हुए। समुद्र के बचन सुनकर सचिवों को बुलाकर कहा कि अब देर का कारण क्या है? समुद्र पर सेतु का निर्माण करो और सेना समुद्र के पार उतर जाए। वानर व भालुओं ने बहुत सुंदर सेतु बनाया है। प्रभु श्रीराम बहुत प्रसन्न हैं और वहां शिवलिंग की स्थापना करते हैं। सेतुवंधु रामेश्वरम आज भी हमारे देश का परम पुनीत तीर्थ स्थल है। यही प्रसंग यहां बताया गया है। अभी तो गोस्वामी तुलसीदास जी आगे की कथा कहने के लिए प्रभु श्रीराम और गिरिजा पति शम्भु की वंदना कर रहे हैं-
रामं कामारि सेव्यं भव भय हरणं कालमन्त्तेभ सिहं।
योगीन्द्रं ज्ञानगम्यं गुणनिधिमजितं निर्गुणं निर्विकारम्।
मायातीतं सुरेशं खल वध निरतं ब्रह्मवृन्दैकदेवं।
वन्दे कन्दावदातं सरसिजनयनं देवमुर्वीशरूपम्।
कामदेव के शत्रु शिव जी के सेव्य अर्थात शिवजी जिनकी सेवा करते हैं, जन्म मृत्यु के भय को हरने वाले, काल रूपी मतवाले हाथी के लिए सिंह के समान, योगियों के स्वामी (योगीश्वर), ज्ञान के द्वारा जानने योग्य, गुणों की निधि, अजेय निर्गुण, निर्विकार, माया से परे, देवताओं के स्वामी, दुष्टों के वध में तत्पर, विप्र वृन्द के एकमात्र देवता (रक्षक), जल वाले मेघ के समान सुन्दर श्याम, कमल के समान नेत्र वाले पृथ्वी पति (राजा) के रूप में परमदेव श्रीराम जी की मैं वंदना करता हूं।
शंखेन्द्वाभमतीवसुन्दरतनुं, शार्दूल चर्माम्बरम्।
काल व्याल कराल भूषण धरं, गंगाशशांकप्रियम।
काशीशं कलिकल्मषौध शमनं कल्याणकल्पद्रुमं।
नौमीड्यं गिरिजापतिं गुणनिधिंकन्दर्यहं शंकरम्।
शंख और चन्द्रमा की कांति के समान अत्यंत सुन्दर शरीर वाले, व्याघ्र चर्म को वस्त्र के रूप में धारण करने वाले, काल के समान काले रंग के भयानक सर्पों को आभूषण के रूप में पहनने वाले, गंगा और चन्द्रमा के प्रेमी, काशीपति कलियुग के पाप समूह का नाश करने वाले, कल्याण के कल्पवृक्ष, गुणों के निधान और कामदेव को भस्म करने वाले पार्वती पति वंदनीय श्री शंकर जी को मैं नमस्कार करता हूं।
यो ददाति सतां शम्भुः कैवल्यमपि दुर्लभम्।
खलानां दण्ड कृद्योअसौ शंकरः शं तनोतु मे।
भगवान शंकर की पुनः आराधना करते हुए गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि जो सत्पुरुषों को अत्यंत दुर्लभ कैवल्य मुक्ति तक दे डालते हैं और जो दुष्टों को दण्ड देने वाले हैं, वे कल्याणकारी श्री शंभु मेरे कल्याण का और विस्तार करंे अर्थात उसे बहुत ज्यादा बढ़ा दें।
लव निमेष परमानु जुग बरष कलप सर चंड।
भजसि न मन तेहि राम को कालु जासु को दंड।
सिन्धु बचन सुनि राम, सचिव बोलि प्रभु अस कहेउ।
अब विलंबु केहि काम, करहु सेतु उतरहि कटकु।
सुनहु भानुकुल केतु, जामवंत कर जोरि कह।
नाथ नाम तव सेतु, नरचढ़ि भव सागर तरहिं।
गोस्वामी तुलसीदास जी कहते हैं कि लव, निमेष, परमाणु, वर्ष, युग और कल्प जिनके प्रचण्ड वाण हैं और काल जिनका धनुष है, हे मन तू उन रामजी को क्यों नहीं स्मरण करता?
ईश वंदना के बाद गोस्वामी तुलसीदास भगवान शंकर एवं पार्वती, ऋषि याज्ञवल्क्य एवं भारद्वाज तथा काग भुशुंडि और गरुड़ के संवादों के माध्यम से कथा को आगे बढ़ाते हैं। समुद्र ने सेतु बनाने का उपाय बता दिया है। समुद्र के बचन सुनकर प्रभु श्रीराम जी ने मंत्रियों को बुलाकर कहा कि अब विलम्ब (देरी) किस लिए हो रहा है। सेतु अर्थात पुल तैयार करो जिससे सेना समुद्र पार कर लंका पहुंचे। प्रभु श्रीराम के बचन सुनकर जाम्ववान जी ने हाथ जोड़कर कहा-हे सूर्य कुल के ध्वजा स्वरूप, कुल की कीर्ति को बढ़ाने वाले श्रीराम जी सुनिए। हे नाथ, सबसे बड़ा सेतु तो आपका नाम ही है जिस पर चढ़कर अर्थात जिसका आश्रय लेकर मनुष्य संसार रूपी समुद्र पार हो जाता है।
यह लघु जलधि तरत कतिबारा, अस सुनि पुनि कह पवन कुमारा।
प्रभु प्रताप बड़वानल भारी, सोषेउ प्रथम पयोनिधि बारी।
तव रिपुनारि रुदन जल धारा, भरेउ बहोरि भयउ तेहि खारा।
सुनि अति उकुति पवनसुत केरी, हरषे कपि रघुपति तन हेरी।
जामवंत बोले दोउ भाई, नल नीलहि सब कथा सुनाई।
राम प्रताप सुमिरि मन माहीं, करहु सेतु प्रयास कछु नाहीं।
बोलि लिए कपि निकट बहोरी, सकल सुनहु विनती कछु मोरी।
राम चरन पंकज उर धरहू, कौतुक एक भालु कपि करहू।
धावहु मर्कट विकट बरूथा, आनहु विटप गिरिन्ह के जूथा।
सुनि कपि भालु चले करि हूहा, जय रघुवीर प्रताप समूहा।
अति उतंग गिरि पादप लीलहिं लेहिं उठाइ।
आनि देहिं नल नीलहिं रचहिं ते सेतु बनाइ।
जाम्बवान जी कह रहे हैं कि यह छोटा सा समुद्र पार करने में कितनी देर लगेगी? ऐसा सुनकर पवन सुत हनुमान जी ने कहा-प्रभु का प्रताप भारी बड़वानल (समुद्र की आग) के समान है इसने पहले समुद्र के जल को सोख लिया था लेकिन आपके दुश्मनों की स्त्रियों के आंसुओं से यह फिर भर गया इसीलिए समुद्र खारा (नमकीन) है। हनुमान जी की यह अलंकार से भरी वाणी सुनकर सभी वानर रघुनाथ जी की तरफ देखकर हर्षित हुए। उसी समय जाम्बवान ने नल-नील नामक वानरों को बुलाया और उन्हें ऋषि के वरदान वाली कथा का स्मरण कराया। उन्होंने कहा तुम दोनों भाई मन में श्रीराम जी के प्रताप का स्मरण करके सेतु तैयार करो, तुम्हें कोई परिश्रम भी नहीं करना पड़ेगा। इसके बाद वानरों के समूह को बुला लिया और कहा आप सब लोग मेरी कुछ विनती सुनिए। अपने हृदय में श्रीराम जी के चरण कमलों को धारण कर सभी वानर और भालु एक खेल करो। सभी लोग समूह में दौड़कर जाओ और वृक्षों तथा पर्वतों को उखाड़ कर ले आओ। यह सुनकर वानर और भालू हुंकार करके और श्री रघुनाथ जी के प्रताप समूह की जयकार करते हुए चले। वे बहुत ऊँचे-ऊँचे पर्वतों और वृक्षों को खेल की तरह उखाड़ते और उठा लेते हैं और लाकर नल-नील को देते हैं। नल-नील उन्हें अच्छी तरह गढ़कर सुंदर पुल तैयार करने लगे।
सैल विसाल आनि कपि देहीं, कंदुक इव नल नील ते लेहीं।
देखि सेतु अति सुंदर रचना, बिहसि कृपा निधि बोले बचना।
परम रम्य उत्तम यह धरनी, महिमा अमित जाइ नहिं बरनी।
करिहउं इहां संभु थापना, मोरे हृदय परम कलपना।
वानर और भालू बड़े-बड़े पहाड़ लाकर देते हैं और नल-नील उन्हें गेंद की तरह पकड़ लेते हैं। सेतु की अत्यंत सुंदर रचना देखकर कृपा सिंधु रघुनाथ हंसकर कहने लगे कि यहां की भूमि परम रमणीय और उत्तम है। इसकी असीम महिमा का वर्णन नहीं किया जा सकता। मैं यहां भगवान शंकर की स्थापना करूंगा। मेरे हृदय में यह महान संकल्प है। (हिफी)