अध्यात्म

हरि अनंत हरि कथा अनंता

सिन्धु पार प्रभु डेरा कीन्हा

 

(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)

नल और नील ने बानर-भालुओं की सहायता से समुद्र पर पुल बना दिया। प्रभु श्रीराम ने वहां शिवलिंग की स्थापना कर विधिवत पूजा की। उन्होंने सभी को बताया कि भगवान शंकर के समान मुझे कोई दूसरा इतना प्रिय नहीं है। वहां एक तीर्थ बना जिसे आज भी रामेश्वरम के नाम से जानते हैं। भगवान श्रीराम ने कहा था कि जो लोग इस तीर्थ के दर्शन करेंगे, वे मृत्यु के बाद मेरे धाम को सीधे पहुंचेंगे। पुल से होते हुए श्रीराम सेना के साथ लंका की तरफ चले तो समुद्री जीव उनके दर्शन को आतुर हो उठे। इस प्रकार समुद्र के तट पर प्रभु ने सेना समेत डेरा डाला। यही इस प्रसंग में बताया गया है। अभी तो प्रभु श्रीराम शिवलिंग की स्थापना की तैयारी कर रहे हैं
सुनि कपीस बहु दूत पठाए, मुनिबर सकल बोलि लै आए।
लिंग थापि विधिवत करि पूजा, सिव समान प्रिय मोहि न दूजा।
सिव द्रोही मम भगत कहावा, सो नर सपनेहु मोहि न पावा।
संकर बिमुख भगति चह मोरी, सो नारकी मूढ़ मति थोरी।
संकरप्रिय मम द्रोही सिव द्रोही मम दास।
ते नर करहिं कलप भरि घोर नरक महुं बास।
भगवान राम ने जब कहा कि हम यहां शिवलिंग की स्थापना करेंगे, तब वानरराज सुग्रीव ने बहुत से दूत भेजे, जो सभी श्रेष्ठ मुनियों को बुलाकर ले आए। शिवलिंग की स्थापना करके विधिपूर्वक उसका पूजन किया, फिर भगवान बोले- शिवजी के समान मुझको दूसरा कोई प्रिय नहीं है, जो शिव से द्रोह रखता है और मेरा भक्त कहलाता है, वह मनुष्य स्वप्न में भी मुझे नहीं अच्छा लगता। शंकर जी से बिमुख होकर जो मेरी भक्ति चाहता है, वह नरकगामी, मूर्ख और अल्प बुद्धि है। भगवान ने कहा कि जिनको शंकर जी प्रिय हैं लेकिन जो मेरे द्रोही हैं और जो शिवजी के द्रोही हैं लेकिन मेरे दास बनना चाहते हैं, वे मनुष्य कल्प भर नरक में निवास करते हैं।
जे रामेस्वर दरसनु करिहहिं, ते तनु तजि ममलोक सिधरिहहिं।
जो गंगा जल आनि चढ़ाइहिं, सो साजुज्य मुक्ति नर पाइहि।
होइ अकाम जो छल तजि सेइहि, भगति मोरि तेहि संकर देइहि।
मम कृत सेतु जो दरसनु करिही, सो बिनु श्रम भव सागर तरिही।
राम बचन सबके मन भाए, मुनिवर निज निज आश्रम आए।
गिरिजा रघुपति कै यह रीती, संतत करहिं प्रनत पर प्रीती।
बांधा सेतु नील नल नागर, रामकृपां जसु भयउ उजागर।
बूड़हिं आनहि बोइहिं जेई, भए उपल बोहित सम तेई।
महिमा यह न जलधि कइ बरनी, पाहन गुन न कपिन्ह कइ करनी।
श्री रघुबीर प्रताप ते सिंधु तरे पाषान।
ते मतिमंद जे राम तजि भजहिं जाइ प्रभु आन।
प्रभु श्रीराम रामेश्वरम् की महिमा बताते हुए कहते हैं कि जो मनुष्य मेरे स्थापित किये हुए इन रामेश्वर (शिवलिंग) का दर्शन करेंगे, वे शरीर छोड़कर मेरे लोक को जाएंगे और जो गंगाजल लाकर इन पर चढ़ाएंगे वे सायुज्य मुक्ति पाएंगे अर्थात् मेरे में ही लीन हो जाएंगे। इसके साथ ही जो छल छोड़कर और निष्काम होकर श्री रामेश्वर जी की सेवा करेंगे, उन्हें शंकर जी मेरी भक्ति देंगे और जो मेरे बनाए सेतु का दर्शन करेगा, वह बिना ही परिश्रम संसार रूपी समुद्र तर जाएगा।
श्रीराम जी के बचन सबके मन को अच्छे लगे। इसके बाद वे श्रेष्ठ मुनि अपने-अपने आश्रमों को लौट आए। शंकरजी पार्वती को कथा सुनाते हुए कहते हैं कि चतुर नल और नील ने सेतु बांधा। श्रीराम जी की कृपा से उनका यह उज्ज्वल यश सर्वत्र फैल गया, जो पत्थर स्वयं तो डूबते ही हैं दूसरों को भी डुबो देते हैं, वे ही जहाज के समान स्वयं तैरने वाले और दूसरों को पार उतारने वाले हो गये। यह न तो समुद्र की महिमा है और न पत्थरों का गुण है और न वानरों की ही कोई करामात (करिश्मा) है। श्री रघुवीर जी के प्रताप से पत्थर भी समुद्र पर तैर गये। ऐसे श्रीराम जी को छोड़कर जो किसी अन्य स्वामी का भजन करते हैं, वे निश्चय ही मंद बुद्धि हैं।
बांधि सेतु अति सृदृढ़ बनावा, देखि कृपानिधि के मनभावा।
चली सेन कछु बरनि न जाई, गर्जहिं मर्कट भट समुदाई।
सेतुबंध ढिग चढ़ि रघुराई, चितव कृपाल सिंधु बहुताई।
देखन कहुं प्रभु करुना कंदा, प्रगट भए सब जलचर वृंदा।
मकर नक्र नाना झष ब्याला, सत जोजन तन परम विसाला।
अइसेउ एक तिन्हहि जे खाहीं, एकन्ह कें डर तेपि डेराहीं।
प्रभुहिं बिलोकहिं टरहिं न टारे, मन हरषित सब भए सुखारे।
तिन्ह की ओट न देखिअ बारी, मगन भए हरि रूप निहारी।
चला कटकु प्रभु आयसु पाई, को कहि सक कपि दल विपुलाई।
सेतुबंध भइ भीर अति कपि नभ पंथ उड़ाहिं।
अपर जलचरन्हि ऊपर चढ़ि चढ़ि पारहि जाहिं।
नल-नील ने सेतु बांधकर अत्यंत ही मजबूत बनाया। उसे देखकर प्रभु राम मन में बहुत प्रसन्न हुए। सेना चली, जिसका वर्णन नहीं हो सकता योद्धा और वानरों के समुदाय गर्ज रहे हैं। कृपालु श्री रघुनाथ सेतुबंध के तट पर चढ़कर समुद्र का बिस्तार देखने लगे। करुणानंद प्रभु के दर्शन को जलचरों के समूह प्रकट हो गये। बहुत तरह के मगर, घड़ियाल (नक्र) मछलियां और सर्प थे जिनके सौ-सौ योजन के विशाल शरीर थे। कुछ ऐसे भी जीव थे जो उनको भी खा जाएं। किसी-किसी के डर से तो वह भी डर रहे थे। वे सभी वैर-विरोध भूलकर प्रभु के दर्शन कर रहे हैं, हटाने से भी नहीं हटते। सबके मन हर्षित हैं और सब सुखी हो गए। उनके कारण समुद्र का पानी नहीं दिखाई पड़ रहा है। वे सब भगवान का रूप देखकर मग्न है। सेतुबंध पर बड़ी भीड़ हो गयी। इससे कुछ वानर आकाश मार्ग से उड़ने लगे और दूसरे कई जलचर जीवों पर चढ़-चढ़कर समुद्र पार जा रहे हैं।
अस कौतुक बिलोकि द्वौ भाई, बिहसि चले कृपाल रघुराई।
सेन सहित उतरे रघुवीरा, कहि न जाइ कपि जूथप भीरा।
सिंधु पार प्रभु डेरा कीन्हा, सकल कपिन्ह कहुं आयसु दीन्हा।
खाहु जाइ फल मूल सुहाए, सुनत भालु कपि जहं तहं धाए।
सब तरु फरे राम हित लागी, रितु अरु कुरितु काल गति त्यागी।
खाहिं मधुर फल विटप हलावहिं, लंका सन्मुख सिखर चलावहिं।
वानर-भालुओं की सेना जिस तरह से कौतुक कर रही है, उसे देखकर दोनों भाई (श्रीराम और लक्ष्मण जी) हंसते हुए चले। श्री रघुवीर सेना सहित समुद्र के पार हो गये। वानरों और उनके सेनापतियों की गिनती तो की ही नहीं जा सकती। प्रभु ने समुद्र के पार डेरा डाला और तब वानरों को आज्ञा दी तुम लोग जाकर सुन्दर फल-फूल खाओ। यह सुनकर रीछ-वानर जहां तहां दौड़ पड़े। श्रीरामजी के प्रभाव से सभी वृक्ष ऋतु-कुऋतु और समय की गति को छोड़कर फलों से लदे हुए हैं। वानर-भालू मीठे-मीठे फल खा रहे हैं, वृक्षों को हिला रहे हैं और पर्वतों के शिखरों को लंका की तरफ फेंक देते हैं। -क्रमशः (हिफी)

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