
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
प्रभु श्रीराम की सेना समुद्र के पार आ गयी। वानर-भालू निडर होकर फल-कंदमूल खा रहे हैं। पेड़ों को तोड़कर लंका की तरफ फेंकते हैं। उन्हें कोई निशाचर मिल जाता है तो उसे घेर कर बहुत परेशान करते हैं। कई निशाचरों के नाक-कान काट लियें वे सब रावण के पास रोते-बिखलते पहुंचते हैं और बताते हैं कि समुद्र पर पुल बनाकर वानर-भालुओं की सेना आ गयी है। इतने विशाल समुद्र पर पुल बनाने की खबर सुनकर रावण चिंताग्रस्त हो जाता है। बावजूद इसके वह अपनी विकलता को छिपाने का प्रयास करता है। मन्दोदरी तक ये समाचार पहुंचते हैं और रावण को फिर से समझाती है। यही कथा इस प्रसंग में बतायी गयी है। अभी तो वानर-भालू जमकर उपद्रव कर रहे हैं-
जहं कहुं फिरत निसाचर पावहिं, घेरि सकल बहु नाच नचावहिं। दसनीन्ह काटि नासिका काना, कहि प्रभु सुजसु देहिं तब जाना।
जिन्ह कर नासा कान निपाता, तिन्ह रावनहि कही सब बाता।
सुनत श्रवन बारिधि बंधाना, दस मुख बोलि उठा अकुलाना।
बांध्यो बननिधि नीर निधि जलधि सिंधु बारीस।
सत्य तोयनिधि कंपति उदधि पयोधि नदीस।
बानर और भालू घूमते-फिरते जहां कहीं किसी निशाचर को पा जाते हैं, तो सब उसे घेरकर खूब नाच नचाते हैं और दांतों से उसके नाक-कान काटे लेते हैं निशाचर जब तक श्रीराम की जय-जय नहंी कहता, तब तक उसे जाने ही नहीं देते। जिन राक्षसों के नाक-कान काट डाले गये, वे रावण के पास पहुंचे और समुद्र पर पुल बनाने का समाचार भी बताया। समुद्र पर पुल का बांधा जाना सुनकर रावण घबड़ा कर एकदम बोला कि वन निधि, नीर निधि, जलधि, सिंधु, बारीश तोप निधि, कंपति, उदधि, पयोधि और नदीश को क्या सचमुच ही बांध लिया। ये सभी समुद्र के ही पर्यायवाची रूप हैं और जब अक्सर कोई अनहोनी की बात सुनता है तो एक ही शब्द उसके मुख से बार-बार निकलता है। गोस्वामी तुलसीदास ने यहां अपनी काव्य प्रतिभा का भी प्रदर्शन किया और एक ही दोहे में समुद्र के सभी पर्यायवाची शब्द दे दिये। बच्चों के लिए हिन्दी व्याकरण सीखने के लिए यह उत्तम दोहा है।
रावण यह सुनकर व्याकुल तो हो गया लेकिन उसे छिपाने की कोशिश करते हुए हंसने का प्रयास कर रहा है-
निज विकलता बिचारि बहोरी, बिहँसि गयउ गृहकरि भय भोरी।
मंदोदरीं सुन्यो प्रभु आयो, कौतुकही पाथोधि बंधायो।
कर गहि पतिहि भवन निज आनी, बोली परम मनोहर बानी।
चरन नाइ सिरु अंचलु रोपा, सुनहु बचन पिय परिहरि कोपा।
नाथ बयरु कीजे ताही सों, बुधि बल सकिअ जीति जाही सों।
तुम्हहि रघुपतिहि अंतर कैसा, खलु खद्योत दिनकरहि जैसा।
अतिबल मधु कैटभ जेहिं मारे, महावीर दितिसुत संघारे।
जेहिं बलि बांधि सहस भुज मारा, सोइ अवतरेउ हरन महि भारा।
तासु विरोध न कीजिअ नाथा, काल करम जिव जाकें हाथा।
रामहि सौंपि जानकी, नाइ कमल पद माथ।
सुत कहंु राज समर्पि बन जाइ भजिअ रघुनाथ।
अपनी व्याकुलता को समझकर, ऊपर से हंसता हुआ, भय को भुलाकर रावण महल को चला गया। उधर, मंदोदरी ने सुना कि प्रभु श्रीरामजी आ गये हैं और उन्होंने खेल में ही समुद्र को बंधवा लिया है, तो वह हाथ पकड़ कर पति (रावण) को अपने महल में ले गयी और परम मनोहर वाणी बोली। चरणों में सिर नवाकर उसने अपना आंचल पसारा और कहा कि हे प्रियतम, क्रोध त्यागकर मेरी बात सुनिए। मन्दोदरी ने कहा कि हे नाथ वैर उसी के साथ करना चाहिए, जिसे बुद्धि और बल से जीता जा सके। आप में और रघुनाथ जी में उसी प्रकार अंतर है जैसे जुगनू और सूर्य में होता है। मंदोदरी रावण को समझाते हुए कहती हैं कि जिन्होंने विष्णु के रूप में अत्यंत बलवान
मधु-कैटभ दैत्य मारे और वाराह तथा नृसिंह रूप में महान शूरवीर दिति के पुत्रों हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का संहार किया, जिन्होंने बामन रूप धरकर बलि को बांधा और परशुराम का रूप धर कर सहस्त्रबाहु को मारा। वे ही भगवान पृथ्वी का भार हरण करने के लिए राम के रूप में अवतीर्ण अर्थात् प्रकट हुए हैं। हे नाथ उनका विरोध न कीजिए जिनके हाथ में काल, कर्म और जीव सभी हैं। श्रीरामजी के चरण कमलों में सिर नवाकर उनको सीताजी को सौंप दी दीजिए और आप पुत्र को राज्य देकर वन में जाकर श्री रघुनाथ जी का भजन कीजिए।
नाथ दीनदयाल रघुराई,
बाधउ सनमुख गएँ न खाई।
चाहिअ करन सो सब करि बीते, तुम्ह सुर असुर चराचर जीते।
संत कहहिं असि नीति दसानन, चैथे पन जाइहि नृप कानन।
तासु भजनु कीजिअ तहं भर्ता, जो कर्ता पालक संहर्ता।
सोइ रघुबीर प्रनत अनुरागी, भजहु नाथ ममता सब त्यागी।
मुनिबर जतनु करहिं जेहि लागी, भूप राजु तजि होहिं बिरागी।
सोइ कोसलाधीस रघुराया, आयउ करन तोहि पर दाया।
जौं पिय मानहु मोर सिखावन, सुजसु होइ तिहुं पुर अति पावन।
अस कहि नयन नीर भरि गहि पद कंपित गात।
नाथ भजहु रघुनाथहिं अचल होई अहिवात।
मंदोदरी कह रही है कि हे नाथ, श्री रघुनाथ जी तो दीनों पर दया करने वाले हैं। सम्मुख अर्थात् शरण में जाने पर तो बाघ भी नहीं खाता है आपको जो कुछ करना चाहिए था, वह सब आप कर चुके। आपने देवता राक्षस तथा चर-अचर सभी को जीत लिया है। हे दशानन, संत जन ऐसी नीति कहते हैं कि चैथेपन (बुढ़ापे) में राजा को वन में चले जाना चाहिए। हे स्वामी, वहां (वन में) आप उनका भजन कीजिए जो सृष्टि को रचने वाले और संहार करने वाले हैं। मंदोदरी ने कहा कि हे नाथ आप विषय-वासना, ममता को छोड़कर उन्हीं शरणागत पर प्रेम करने वाले भगवान का भजन कीजिए जिनके लिए श्रेष्ठ मुनि साधन करते हैं और राजा राज्य छोड़कर बैरागी हो जाते हैं। वही, कोशलाधीश श्री रघुनाथ जी आप पर दया करने आए हैं। हे प्रियतम, यदि आप मेरी सीख मान लेंगे तो आपका अत्यंत पवित्र और सुन्दर यश तीनों लोकों में फैल जाएगा। ऐसा कहकर और नेत्रों में करुणा का जल भरकर और पति के चरण पकड़कर कांपते हुए शरीर से मंदोदरी ने कहा- हे नाथ! श्री रघुनाथ जी का भजन कीजिए, जिससे मेरा सुहाग अचल हो जाए।
तब रावन मयसुता उठाई, कहै लाग खल निज प्रभुताई।
सुनु तैं प्रिया बृथा भय माना, जग जोधा को मोहि समाना।
बरुन कुबेर पवन जम काला, भुजबल जितेउं सकल दिगपाला।
देव दनुज नर सब बस मोेरंें, कवन हेतु उपजा भय तोरें।
मंदोदरी के इतना समझाने पर भी रावण का अहंकार नहीं गया और वह मंदोदरी को उठाकर अपनी प्रभुता का बखान करने लगा। रावण कहने लगा कि तुम व्यर्थ ही भय मान रही हो, बताओ जगत में मेरे समान कौन योद्धा है? मैंने वरुण, कुबेर, पवन और यमराज आदि सभी दिक्पालों तथा काल को भी अपनी भुजाओं के बल से जीत रखा है। देवता, दानव और मनुष्य सभी मेरे वश में हैं, फिर तुमको यह भय किस कारण उत्पन्न हो रहा है? -क्रमशः (हिफी)