
(शांतिप्रिय-हिन्दुस्तान समाचार फीचर सेवा)
रावण को उसकी पटरानी मंदोदरी बहुत प्रकार से समझाती है लेकिन वह उनकी बातों को नहीं मानता। अभिमान में डूबा हुआ रावण अपनी सभा में जाता है, वहां अपने सचिवों से पूछता है कि शत्रु से कैसे लड़ा जाए तो मंत्रीगण उपहास करते हुए कहते हैं कि यह बात आप बार-बार क्यों पूछते हैं जब वानर-नर और रीछ हमारे भोजन हैं। यह सुनकर रावण का बेटा प्रहस्त, जो ज्ञानी है, कहता है कि ‘महाराज नीति के विरुद्ध आप कुछ मत करिए, मंत्री तो अल्पबुद्धि के हैं। प्रहस्त कहता है कि मंत्री तो मुंह देखी बातें कर रहे हैं जबकि सच्चाई यह है कि जो वानर समुद्र पार करे लंका आया और नगर को जला दिया, तब उसे किसी ने क्यों नहीं खाया? प्रहस्त की बात भी रावण को अच्छी नहीं लगती और उसे दुर्वचन कहते हुए रावण अपनी रंगशाला में जाकर आमोद-प्रमोद करने लगता है। यही प्रसंग यहां पर बताया गया है। अभी तो रावण मंदोदरी की सीख ही सुन रहा है-
नाना विधि तेहि कहेसि बुझाई, सभा बहोरि बैठ सो जाई।
मंदोदरी हृदय अस जाना, काल वस्य उपजा अभिमाना।
सभा आइ मंत्रिन्ह तेहि बूझा, करब कवन विधि रिपु सैं जूझा।
कहहिं सचिव सुनु निसिचर नाहा, बार-बार प्रभु पूछहु काहा।
कहहु कवन भय करिअ बिचारा, नर कपि भालु अहार हमारा।
सब के बचन श्रवन सुनि कह प्रहस्त कर जोरि।
नीति विरोध न करिअ प्रभु मंत्रिन्ह मति अति थोरि।
मंदोदरी ने रावण को बहुत प्रकार से समझाया लेकिन उसने एक भी बात नहीं सुनी। रावण सभा में जाकर बैठ गया। मंदोदरी ने भी हृदय में ऐसा जान लिया कि काल के वश में होने के कारण पति को अभिमान हो गया है। सभा में जाकर रावण ने मंत्रियों से पूछा कि शत्रु के साथ किस प्रकार से युद्ध करना होगा। मंत्री कहने लगे- हे राक्षसों के स्वामी आप बार-बार क्यों पूछते हैं? मनुष्य और वानर-भालू तो हमारे भोजन की सामग्री हैं। मंत्रियों के बचन सुनकर रावण का पुत्र प्रहस्त हाथ जोड़कर कहने लगा कि हे प्रभु, नीति के विरुद्ध कुछ भी नहीं करना चाहिए। ये मंत्री तो अल्प बुद्धि वाले हैं।
कहहिं सचिव सठ ठकुर सोहाती, नाथ न पूर आव एहि भांती।
बारिधि नाघि एक कपि आवा, तासु चरित मनमहुं सबु गावा।
छुघा न रही तुम्हहि तब काहू। जारत नगर कस न धरि खाहू।
सुनत नींक आगे दुख पावा, सचिवन अस मत प्रभुहि सुनावा।
जेहिं बारीस बंधायउ हेला, उतरेउ सेन समेत सुबेला।
सो भनु मनुज खाब हम भाई, बचन कहहिं सब गाल फुलाई।
तात बचन मम सुनु अति आदर, जनि मन गुनहु मोहि करि कादर।
प्रियबानी जे सुनहिं जे कहहीं, ऐसे नर निकाय जग अहईं।
बचन परम हित सुनत कठोरे, सुनहिं जे कहहिं ते नर प्रभु थोरे।
प्रथम बसीठ पठउ सुनु नीती, सीता देइ करहु पुनि प्रीती।
नारि पाइ फिरि जाहिं जौं तौ न बढ़ाइअ रारि।
नाहिं त सन्मुख समर महि तात करिअ हठि मारि।
प्रहस्त कहता है कि ये सभी मूर्ख और खुशामदी मंत्री ठकुर सोहाती अर्थात मुंह देखी बातें कर रहे हैं, हे नाथ इस प्रकार की बातों से पूरा नहीं पड़ेगा। उसने अपनी बात का प्रमाण देने के लिए कहा कि एक ही बंदर समुद्र पार कर आया था, उसका चरित्र (यश) सब लोग अब भी मन ही मन स्मरण करते हैं। उस समय तुम लोगों में से किसी को भूख नहीं लगी थी? बंदर तो तुम्हारा भोजन ही है तब लंका जलाते समय उसे पकड़कर क्यों नहीं खा लिया? प्रहस्त कहता है कि इन मंत्रियों ने स्वामी (रावण) को ऐसी सम्मति (राय) सुनाई है, जो सुनने में अच्छी लग रही लेकिन आगे दुख ही दुख है। उसने कहा कि जिसने खेल-खेल में ही समुद्र पर पुल बना लिया और जो सेना समेत सुबेल पर्वत पर आ उतरा। हे भाई, कहो कि क्या वह मनुष्य है, जिसे कहते हो हम खा लेंगे। सब गाल फुला-फुलाकर पागलों की तरह बचन कह रहे हैं। प्रहस्त ने रावण से कहा कि हे तात मेरे बचनों को बहुत ही गौर से सुनिए, मुझे मन में कायर न समझ लीजिएगा। जगत में ऐसे मनुष्य झुंड के झुंड अर्थात् बहुत अधिक संख्या में हैं जो मुंह पर मीठी लगने वाली बात ही सुनते और कहते हैं। हे प्रभो, सुनने में कठोर लेकिन परिणाम में परम हितकारी बचन जो सुनते और
कहते हैं, वे मनुष्य बहुत ही थोड़े हैं। आप नीति की बात सुनिए, पहले दूत भेजिए और फिर सीता को देकर श्रीराम जी से प्रीति (मेल) कर लीजिए यदि वे स्त्री पाकर लौट जाएं, तब तो व्यर्थ में झगड़ा मत बढ़ाइए और यदि इसके बाद भी नहीं लौटते हैं तो आमने-सामने युद्ध भूमि में उनसे डटकर मारकाट कीजिए।
यह मत जौं मानहु प्रभु मोरा, उभय प्रकार सुजसु जग तोरा।
सुत सन कह दसकंठ रिसाई, असि मति सठ केहिं तोहि सिखाई।
अबहीं ते उर संसय होई, बेनु मूल सुत भयहु घमोई।
सुनि पितु गिरा परुष अति घोरा, चला भवन कहि बचन कठोरा।
हित मत तोहि न लागत कैसेें, काल विबस कहुं भेषज जैसे।
प्रहस्त कहता है कि, हे प्रभो यदि आप मेरी यह सम्मति मानेंगे तो जगत में दोनों ही प्रकार से आपका सुयश होगा। यह सुनकर रावण ने गुस्से में आकर पुत्र से कहा, अरे मूर्ख, तुझे ऐसी बुद्धि किसने सिखायी। अभी से संदेह हो रहा है कि हे पुत्र तू बाॅस की जड़ में घमोई पैदा हो गया है अर्थात् तू मेरे वंश के अनुरूप नहीं हुआ। पिता की अत्यंत घोर और कठोर वाणी सुनकर प्रहस्त कुछ कठोर बचन कहते हुए घर की तरफ चल दिया। उसने कहा कि हित की सलाह आपको उसी तरह व्यर्थ लग रही है जैसे मुत्यु के वश में हो गये रोगी पर दवा का कोई असर नहीं पड़ता।
संध्या समय जानि दससीसा, भवन चलेउ निरखत भुजबीसा।
लंका सिखर उपर आगारा, अति बिचित्र तहं होइ अखारा।
बैठ जाइ तेहि मंदिर रावन, लागे किन्नर गुनगन गावन।
बाजहि ताल पखाउज बीना, नृत्यु करहिं अपछरा प्रवीना।
सुनासीर सत सरिस सो संतत करइ बिलास।
परम प्रबल रिपु सीस पर तद्यपि सोच न त्रास।
संध्या का समय जानकर रावण अपनी बीस भुजाओं को देखते हुए महल को चला। लंका की चोटी पर एक अत्यंत विचित्र महल था। वहां नाच-गाने का अखाड़ा जमता था अर्थात् कई कलाकार अपनी कला का प्रदर्शन करते थे। रावण उसी महल में जाकर बैठ गया। किन्नर रावण के गुण समूह गाने लगे। ताल (करताल), पखावज, मृदंग और वीणा बज रहे हैं। नृत्य में
प्रवीण अप्सराएं नाच रही हैं। इस
प्रकार अभिमानी रावण निरंतर सैकड़ों इन्द्रों के समान भोग बिलास करता रहता है यद्यपि श्रीराम सरीखा
अत्यंत प्रबल शत्रु उसके सिर पर है, फिर भी रावण को न तो चिंता है और न डर है। -क्रमशः (हिफी)
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